सरकारी नौकरी के जायके
तांगे से आयी कि रिक्शा से या उड़ कर ... घर में घुसी और बोली ..... नाकारा इंसान कुछ करेगा भी या यूं ही ज़िंदगी भर बाप की रोटी तोड़ेगा ..... ये थी सरकारी नौकरी .... बराए मेहरबानी ठाकुरप्रसाद सिंह .......
सम्भावना प्रकाशन के काम से या यूं ही मिलने को अशोक जी जब भी लखनऊ आते किसी ना किसी साहित्यिक हस्ती से ज़रूर मिलवाते ..... निरालानगर वाले घर में रवींद्र वर्मा, उनकी लेखिका पत्नी, बटलर पैलेस में श्रीलाल शुक्ल और सूचना विभाग में उप निदेशक और "वंशी और मादल" के रचयिता ठाकुर प्रसाद सिंह, उत्तरप्रदेश मासिक के राजेश शर्मा आदि आदि ...... ...
कुछ साल बाद साथ निभाने आ गए महान कवि अनिल जनविजय .... बहुत मौज के दिन कट रहे...एक शाम ठाकुर साहब किताबें देखने (उन दिनों सम्भावना प्रकाशन की किताबें लखनऊ में बिकवाने का काम अपन को सौंपा गया था.... तो हम भी कुछ हैं ये दिखाने को अपनी मित्र से मिलने पायनियर के सामने वाले बैंक ऑफ़ पटियाला में किताबों वाला बोझा ले कर अक्सर जा धमकता)..... घर आये...... किताबें देखते देखते अचानक पूछ बैठे ... तुमने क्या किया है ..... एम ए ! तो इतने दिन से क्या कर रहे हो ... इतनी सारी जगह निकली हैं तुमने देखा भी नहीं ....कल ऑफिस आ कर पिछली डेट की एप्लिकेशन दो .... और कल से ही दिहाड़ी पे लग जाओ दस रुपये मिलेंगे .... दो महीने बाद टेस्ट और फिर नौकरी पक्की .....
रोज दस रुपये यानी रोज एक पिक्चर विथ कॉफी ...... रंजना में..... दो महीने बाद सूचना विभाग ने हरकारा भेज दिया कि हो जा शुरू..... हैय्या रे हैय्या ... हैय्या हो
आगे पढ़ने की इच्छा हो तो बता देना .......जारी .......
4/30/16