प्रेसक्लब और वेश्यालयों में क्या फर्क है
आगरा में रहते एक महान पत्रकार से मिलना हुआ था..ओम ठाकुर..कभी शशिशेखर के समय आज अखबार की दुर्गन्धित पत्रकारिता में लीन रहे थे..बाद में उनकी सबसे बड़ी क्वालीफिकेशन आगरा प्रेस क्लब का अध्यक्ष होना बनी..उसके बाद धंधेबाजी करते हुए जमीनें कब्जियाईं और अपना खाने कमाने इंतज़ाम चोखा कर लिया..बाद में शहर के सारे कुओं और तालाबों को सुखाने वाले माफिया अग्रवाल से जुड़ कर शहर को रेगिस्तान बनाने में जुट गए..
ये जो प्रेसक्लब हैं, कभी रहे होंगे पत्रकारिता संबंधी गतिविधियों के केंद्र...अब तो धंधों की दुकानें या नशेबाजों की मधुशालाएं बन कर रह गए हैं...अब तो जो कोई अपना परिचय प्रेसक्लब से जोड़ कर देता है, तो तुरंत उससे दलाली की दुर्गन्ध आनी शुरू हो जाती है...
सबसे बड़ी बात ये कि सरकार और सरकारी महकमों के लिए प्रेसक्लब की औकात वेश्यालयों से बेहतर नहीं है..क्योंकि पत्रकारों की कलम के रेट भी प्रेस क्लबों में ही तय होते है..अब जो पत्रकार यूनियन हैं उनके पदाधिकारियों के आरामगाह बन गए हैं प्रेसक्लब..
देश भर के जितने भी प्रेसक्लब हैं, उनके सदस्य पत्रकार तो बहुत कम हैं, ज़्यादातर सदस्य सरकारी भड़वे हैं, पत्रकारिता की बोली लगाने का काम करते हैं...
एक समय पत्रकारिता में प्रेस क्लब खासा महत्व रखता था..मुख्यमंत्री से लेकर संतरी तक को पत्रकारों की नज़र ए इनायत की ज़रूरत पड़ती थी..तो प्रेसक्लबों को साल में कई अनुदान और शराब की सप्लाई से लेकर चिकन-बटेर-मटन-मछली में सब्सिडी मिल जाया करती थी..अब जबकि पत्रकारिता धंधा बन गयी है तो आप समझ सकते हैं प्रेसक्लबों का चरित्र किस हाल में पहुंच गया होगा..
मध्यप्रदेश के कई प्रेसक्लबों में बाकायदा नाल निकाल कर जुआ खेला जाता है, जिसकी वसूली रात को किसी अखबार का संपादक करता है..
5/21/18