सरकारी इमारत में छपाक छई छई
31 दिसंबर की रात फुफेरे भाई की क्लिनिक में ओल्डमौंक और कैपिटल के सामने ठेले पर बिरयानी भकोस मेफेयर में सिनेमा देख अगली सुबह कुड़कुड़ाते हुए आठवीं क्लास के बच्चे की मानिंद सूचनाविभाग में घुस ठाकुर साहब के हीटर से गर्माए कमरे में एक कुर्सी पे पसर पूछ डाला .. अब क्या करूँ..... वही करो जो मैं कर रहा हूँ .... मेरा चपरासी और सूचना निदेशक कर रहे हैं ...... सरकारी नौकरी ...
पढ़ते तो खूब हो ..... कुछ लिखते विखते हो या नहीं ? जी, लिखने को तो ख़त भी लिखना नहीं आता.... हाँ, अनिल जनविजय ने कविता लिखना सिखा दिया है..... भन्ना कर बोले ... लानत है ... कवि तो यहां बहुत सारे हैं .... जाओ हज़रतगंज का चक्कर लगा आओ तब तक कुछ सोचता हूँ .......
बाहर निकल एक अफसर के कमरे के बाहर खड़े चपरासी से बीड़ी माँगी ... वो पता नहीं किस तुफैल में बाहर ले गया चाय पिलाने .... उस से पूछा कि मेरे बैच के कितने लोग आ गए ... अजी लगते तो नई बहार के आप ही पहले हो .... गंज सामने ही था यहां वहां टूल, न्यू ईयर के कार्ड खरीद वापस हो लिया.... ठाकुर साहब बोले .... कल देखते हैं.... तभी बगल वाले कमरे से कुछ आवाज सुनी तो हिम्मत कर धंस लिया .... नानी की नाव के कई सामान वहां मौजूद थे..... कुछ चीं चीं चूँ चूँ के बाद सात-आठ भेड़ों का रेवड़ फिर गंज की ओर चल पड़ा ....
लौटते में चार बज गए .... तब तक मन कई फैसले कर चुका था .... ससुरी इस सरकारी नौकरी को अपने माफिक बनाना है और चार बजे के बाद ऑफिस में नहीं रुकना है.... और जो रुकता है वो धंधेबाज होता है या बीवी का मारा होता है ....(ये बाद के अनुभवों से पता चला) .....
तो ये था सरकारी दमादी का पहला दिन .....
5/1/16