बुधवार, 1 अप्रैल 2020

भारत की जीवनदायिनी नदियां

ब्लैकबोर्ड पर गम निष्पादन के आगे कागज चिपका कर लाल खड़िया से लिख दिया गया है कि आज जोगनियों का कार्यक्रम है। हॅाल से कुर्सियां हटा कर दरी बिछा दी गयी हैं। माइक के पीछे हारमोनियम पर रामदेव और तबले पर उमा देवी उँगली करने में मशगूल हैं। 

विभिन श्रेणी के श्रोता और कई प्रकार के महामहिम आ चुके हैं..आखिर एक तांगा आ कर रुका और उसमें से गंगा, यमुना, नर्मदा, गंडक, कोसी और बागमती वगैरह उतरीं। कुछ जलोदर की मरीज लग रही थीं, तो कुछ कंगाल पीड़ित । 

हॅाल में प्रवेश करते ही जलोदरवालियों ने छूटते ही गंगा और जमुना से कहा- थोड़ा दूर बैठो,बदबू मार रही हो।

कार्यक्रम के आयोजक दंडकारण्य से पकड़ कर लाये गए राक्षस राज रावण के किलेदार इल्वल और वातापि हैं, जिन्हें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की रामायण में पाया गया था...

आज के कार्यक्रम में रोना-धोना अनिवार्य नहीं रखा गया है क्योंकि राक्षस सहोदरों  को डर है कि अगर इन सड़ान्ध मारती नदियों ने आंसू बहाए तो उनका धंधा चौपट हो जायेगा। 

जब माइक बागमती और गंडक के आगे किया गया तो उन्होंने कोसी को भी पास घसीट कर सिर्फ इतना ही कहा कि हम तीनों का काम केवल विनाश करना है क्योंकि इस देश के नेता यही चाहते हैं। इस समय हमारे पेट में पानी बहुत बढ़ गया है, यहां से निकल कर डाक्टर के पास जाया जाएगा। फिर उन्होंने गंगा-यमुना की तरफ इशारा किया-- ये बैठी हैं दोनों, पहले इनकी बकबक सुन लो। 

गंगा जब माइक के पास आ कर बैठी तो तीनों आपस में फुसफुसायीं-लगता है कि सीधे कानपुर या बनारस से चली आ रही है, तभी तो सड़े मुर्दे सी बदबू आ रही है..इतना सुनते ही किनारे बैठी बूढ़ी गंडक ने वहीं ओंकना शुरू कर दिया।

स्थिति संभालने के लिये वापाति ने तुरंत कैसेट लगाया-गंगा मैया तोरे पियरी चढ़इबो। कान में आवाज पड़ते ही गंगा चीत्कार कर उठी-नहीं, मुझे नहीं सुनना यह गाना। उसने अपनी चीथड़ा हो रही रेशमी साड़ी से नम हो आयीं आंखें पोंछीं और बोली- अच्छी भली मैं आकाश में वास करती थी, पर उस दिलद्दरी राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को तारने के लिये उनके जकड़ पोते राजा भगीरथ ने तप कर के मुझे धरती पे बुला लिया। खुद तो चला गया मस्ती मारने स्वर्ग को और मुझे यहां कंगला बनाने को छोड़ गया। 

यहां मेरा काम सिर्फ मुर्दों को ढोना रह गया है। यह जो मेरी बहना यमुना बैठी है, यह तो बेचारी चलने-फिरने से भी लाचार हो चली है, नहीं तो हिरनी सी कूदती-फांदती फिरे थी। किसी बजबजाते नाले और इसमें कोई फर्क नहीं रह गया है।

मेरे भी ऐसे ही दिन आ रहे हैं। जहां मेरा जन्म हुआ था, उस तक को तो कम्बख्तों ने कचरे से लाद दिया है। कितने नाजों से पली थी मैं। शिवजी तक जटाओं में लिये घूमते थे मुझे। कैसा बहका के मुझे इस धरती पर छोड़ा गया कि बड़ी पावन जगह है, देवता भी मुंह मारने यहीं आते हैं, जिंदगी भर चैन की बांसुरी बजाओगी। 



देख लो हमारा हाल, कीड़े तक पड़ने लगे हैं मुझमें। इस देश के लोग इतने दिलद्दरी हैं कि सुबह शाम मां गंगे-मां गंगे करते फिरेंगे, पर कपड़े धोने वाला साबुन तक नहीं देते कि मैं अपना शरीर साफ कर लूं, उलटे तन-मन की सारी गंदगी मुझमें बहाते रहते हैं। तभी बाहर राम-नाम सत्त है कि आवाजें आने लगीं। सुनते ही गंगा भन्ना के बोली-लो, एक औेर मुर्दा मेरे पल्ले आ पड़ा।

6/12/18