मुर्दों ने
आधी रात कब की बीत चुकी थी..नोएडा से वैशाली की तरफ जाते हुए गाजीपुर कब्रिस्तान के सामने स्कूटर रोक दिया...क्यों रोका, कुछ समझ में नहीं आ रहा था...उस सुनसान सड़क पर .. कड़कड़ाती ठंड में कुछ सोचता रहा..फिर यहां-वहां आंखें घुमायीं ..भूले-भटके कोई रूह दिख जाए...कंपकंपी बढ़ने लगी तो भन्ना कर मुंह से निकला..हे नामाकूलो..... सुन रहे हो ना.......छह सेक्टर के उस गैस चैम्बर से पीछा छुड़ाओ..कुछ देर खड़ा आहट लेता रहा कि तभी श्वान झुंड आ धमका... स्कूटर स्टार्ट किया और चल दिया...
ठीक बीस दिन बाद बेरोजगार था....
दैनिक चकरघिन्नी यानी अमर उजाला के नोएडा दफ्तर में पौषी पूर्णिमा यानि 19 जनवरी को राजेश रापरिया ने कहा-या तो मेरठ जाओ अथवा इस्तीफा दे जाओ..जो आसान लगा वही किया..अगले ही दिन से माघ लग गया।
पूरे माघ अंगुलियां भी नहीं चटकायीं.....फाल्गुन शुरू होते ही फाई-फाई अर्थात ज़ी चैनल में ससरेरे यानी संजय पुगलिया को फोन किया.....उन्होंने मिलने को बोला...मिला...भले से बात की....कहा-ठीक है तीन दिन बाद एक और मीटिंग रख लेते हैं..तीन दिन बाद वो फ़ना हो चुके थे..उनकी जगह एक तिड़िकझाइम टाइप सज्जन मिले....उनके साथ गदबदे जिस्म वाली एचआर भी मौजूद....
दोनों ने एकसाथ ठेका लगाया--आपको बुलेटिन निकालना आता है....जी, टीवीआई में 350 निकाल चुका हूं और अगले चैनल से मैं खुद निकल गया...गदबदाई कूकी.......हमारा बुलेटिन कैसा लगता है......दो कौड़ी का ( मन में सोच रहा था.....निकल गया मुहँ से).. अब सिर्फ जीभ काटना बाकी बचा था.......
चैत्र में एक मित्र का फोन आया कि रेरेसस से मिल लो करनाल जा कर..एक सुबह टीवीआई के साथी अगस्त अरुणाचल के साथ तमिलनाडु से आयातित उसकी ओरिजिनल बुलेट पर करनाल जा कर भास्कर के जगदीश शर्मा से भी मुलाकात कर ली...कुछ
किया-विया नहीं उन्होंने, क्योंकि एक रात पहले उनकी जनानी आवाज सुन फोन पर ही हंसी छूट गयी थी..
वैशाख में एक नातेदार ने जोर मारा और दिल्ली की प्रधानी कर रही नेताइन सुषमा स्वराज के पति से मिलने को बोला.. गया उनसे मिलने....बिल्कुल चिरकुटहा निकला..बोले-जितनी तनख्वाह आप मांग रहे हो, उतनी हमने सुनी ही नहीं..
ज्येष्ठ में पता चला कि साप्ताहिक आउटलुक हिंदी में निकलने जा रहा है.. गगमम से समय लेकर मिला.. सज्जन पुरुष थे, तो सज्जनता से ही पेश आए...कुछ पुराने गीत गाये गये। बायोडाटा की एक प्रति आलोक मेहता को पकड़ाई....हेंहेंहें-हींहींहीं के बीच विदा कर दिया भाई ने.........
वैशाख-ज्येष्ठ में श्लाका पुरुष रूपी ताऊ रमेश चंद्रा से मिला और लखनऊ से निकल रहे जनसत्ता के लिये सिफारिश करने को कहा..उनसे लिखाया पत्र ज्ञानपीठ के थोड़ा आगे एक सरकारी बंगले में विराजमान नेता कम मालिक अखिलेश दास को थमाने पहुंच गया.....जिसे उनके चाकर ने थामा..लेकिन उन्होंने सुध नही ली..
ज्येष्ठ में कम्पटीशन मास्टर टाइप पत्रिका के सम्पादक पद के लिये साक्षात्कार..मालिक रूपी प्रधानसम्पादक ने चाल और हाल जानकर पूछा-आपके कितनी सन्तान हैं?....दो...... उनके नाम? चुन्नू-मुन्नूु। ठीक है हमारी ये आपको जल्द ही बता देंगी..
ज्येष्ठ में ही ज़ी चैनल के दूसरे लबादे का फोन नम्बर हासिल कर उसे टटोला, तो बुला लिया गया.. उनके कैबिन में वही एचआर मौजूद....गदबदे बदन वाली.....गालों में गड्ढे डाल मुस्कुरा रही थी..वो खुद भी नहीं जानते थे कि क्या बात करें (बताया जाता है कि धान से भूसी निकालने का काम करने के दौरान उन्हें चैनल थमा दिया गया).. किसी तरह उनके कान में टर्राया कि मैं क्यों आया हूं.. उन्होंने बैठा लिया ... फिर कुछ तोला कुछ माशा टुनटुनाने के बाद बुदबुदाये.......बाद में बताएंगे..
आजतक में ट्राई इसलिये नहीं किया कि दो साल पहले नक़वी ने अपने तईं इंटरव्यू तक तो पहुंचा दिया था..लेकिन जब अंदर घुसे तो देखा उदय शंकर लक्कड़बग्घा स्टाइल में मुस्कुरा रहे थे.. वर्तमान समय के इस महानतम सीईओ को पिछले सहारा चैनल में इन कमजोर हाथों से बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी थी.. मन ही मन वहां धधनीनी नक़वी को जी भर कर कोसा..नौकरी तो तेल लेने जा ही चुकी थी..
बचा NDTV चैनल, तो वहां का किस्सा यह कि वो शुरू हुआ ही था...टीवीआई में रहते ही आवेदन दिया...हरकारे के हाथों एक दिन बुलवा लिया गया.. इंटरव्यू करने वाले सज्जन खांटी चोंचों टाइप थे...उन्हें देख दिमाग में सरसो फूलने लगी..जनाब को पहली आपत्ति यह थी कि मैंने आवेदन में काऊ को गऊ क्यों लिखा....दूसरी कि मैं उन्हें.... नुक्ता चीं ए गम-ए-दिल.....एंग्लो सेक्सन में क्यों नहीं सुना रहा हूं.. खैर.......
बेली रोड वाले सरकारी बंगले में इसलिये नहीं घुसा क्योंकि देवी नलिनी सिंह ने चार हजार, तो उनके पतिदेव सुरसिंगार ने चालीस रुपये का चूना पिछली बार लगा दिया था..
रुमाल से धोती भये 24 घंटे वाले चैनल में अजित अंजुम को पुराने दिनों की याद दिलाने को बाकायदा उनके घर में घुस गया, भाई ने सैंवई खिला कर टरका दिया..
अब हम आषाढ़ में आ जाएं। एक रात छोटा बेटा गेट खोल कर अंदर आया और बाहर से ही आवाज दी..पापा जल्दी आओ..बल्ब की रोशनी में देखा..थोड़ा तिरछे खड़े हो बड़ी अदा से गर्दन घुमा कर घूरा जा रहा है। इसका क्या करें पापा.....कुछ जवाब देते नहीं बना। अब तक नातेदारी में पल रहे श्वानों को तो पुचकार लिया करता था, लेकिन घर में घुस आयी इस नन्हीं जान का क्या किया जाये। डॉक्टरों की तरफ से सख्त पाबंदी थी। तब तक उसे अंदर से लाकर रोटी डाल दी गयी। पता नहीं खायी कि नहीं..फिर वो हम बाप-बेटे की असमंजता से बोर होकर गेट के बीच के सींखचों से सड़क पर निकल ली।
अगली रात को फिर प्रकट भयी। बेकरार हो उस सड़कछाप को नाक-भों सिकोड़ते हुए गोद में उठा लिया, तो मुंह चाटते हुए कुनमुमायी--मेरे साथ खेलोगे तो बोलो....वरना मैं चली।
बेटे ने असल बात बतायी कि पिछली रात किसी के दरवाजे से उठा कर फेंकी गयी थी। किसी खड्ड में उसकी कूं-कां सुन उधर से निकल रहे बेटे का ध्यान गया... उठा लाया। बित्ते भर की काया। सफेद काया पर कत्थई चकत्ते। कत्थई माथे पर सफेद टीका। भेड़िये की सी आंखों के बावजूद मोहिनी सूरत। उठा कर ऊपर टेरेस पर ले गया। नाम रखा गया छुटकी। उसके अवतरण से बेरोजगारी का भारीपन थोड़ा कम हो गया। आसमान गहरा नीला और रातें कम स्याह लगने लगीं। सारा घर उसके पीछे पागल। हम चार जनों की बच्ची। घर से बाहर जाओ तो छुटकी, बाहर से आओ तो छुटकी।
इधर, कई पंडितों और ज्योतिषियों के यहां चक्कर काटने के बाद श्रावण में श्रीमती जी ने बेरोजगारी दूर भगाने के उपाय करने को स्यापा मचाना शुरू किया। उनमें हर बृहस्पतिवार को हाथी और मगरमच्छ में चली हाथापाई की ठांव-ठांव, किसी और वार को एक राजा की दो रानियों सुमति और कुमति की चांव-चांव। ज्योतिषि के उपाय तो और भी अद्भुत। कर डाले.....उससे भी अद्भुत कि नौकरी मिल गयी।
एक रात किसी चैनल की स्क्रौलिंग पर देखा कि नवीन जोशी हिन्दुस्तान पटना के सम्पादक हो गये हैं। तुरंत उन्हें फोन लगाया कि इस नाचीज को बारोजगार कर दे भाई......अबे नालायक....तुम कब सुधरोगे की अजान के साथ उन्होंने तुरंत जीवनवृत्त भेजने को कहा....भाद्रपद शुरू होने के कुछ ही दिन बाद फोन आया दिल्ली में हूं फौरन कस्तूरबा गांधी मार्ग पहुंचो। उन्होंने मृणाल जी से मिलवाया। सो, मुजफ्फरपुर जाने का आॅर्डर हुआ......(लिच्छवि गणतंत्र का यह नगर जैसे बरसों से इसी अनहोनी का इन्तजार कर रहा था)........
नियुक्तिपत्र मिलने पर छुटकी की पो-बारह। अगले तीन दिन उसके पांव जमीन पर नहीं रखने दिये गये।
जब तक सबको लखनऊ शिफ्ट नहीं किया, वैशाली आना-जाना लगा रहा। घरआते ही सबके पास किस्से छुटकी के ही होते। सिर के पास आसन-पाटी लगा कर सुनती अपनी कारस्तानियां। जैसे ही आॅटो रुकता, बाहर ही इंतजार करती मिलती और बाहर ही सारा प्यार लुटा देती। जाने के दिन सामान बंधता देख चुप लगा कर किसी कोने में दुबक जाती। आॅटो आता तो पता नहीं किस खोह से निकल कर सामान के साथ खुद भी सवार। कई सारे करार करने पड़ते, तब आॅटो हिल पाता.....आशीर्वाद कॉलोनी वालों को ऐसे दृष्य कई बार देखने को मिले...... लेकिन हम मजाक का पात्र नहीं बने....वे भी समझ गये थे... पगलैटों का परिवार है।
2/15/18