बुधवार, 1 अप्रैल 2020

मुज़फ़्फ़रपुर में पत्रकारिता के पांच साल

सोलह साल पहले जब दिल्ली से मुज़फ्फरपुर हिंदुस्तान भेजे जाने का परवाना मिला था..तो हाथों से तोते इसलिए नहीं उड़े क्योंकि नौ महीने की बेरोजगारी जो झेल चुका था...

लेकिन दिल्ली में बिहारवासी साथियों ने मुज़फ्फरपुर का जो चित्रण खींचा, वो बहुत उत्साहवर्धक नहीं था...ऊपर से प्रथम दृष्टया वाला मामला..न मुज़फ़्फ़रपुर मुझे जानता था न मैं उसे..

वैसे मेरे मामले में थोड़ा घपला यह हुआ कि मृणाल जी के दिमाग में मुझे रांची भेजने की बात भी थी लेकिन हो सकता है उन्होंने सिक्का उछाल कर मेरी किस्मत में मुज़फ्फरपुर तय किया हो..

बहरहाल दिल की धड़कनों को शांत करने हेतु सीधे मुज़फ्फरपुर न जा कर ट्रेन पटना की तरफ मुड़वा ली और स्टेशन से रिक्शा पकड़ पहुंच गया नवीन जोशी के बोरिंग रोड में कृष्णा अपार्टमेंट वाले फ्लैट में..पटना हिंदुस्तान के संपादक और मुझे बेरोजगारी से निजात दिलाने को आतुर रहे नवीन आदतानुसार मुझे देख कतई न अचकचाए और तुरंत नाश्ता कराने में जुट गए..

रविवार था उस दिन.. फिर भी तुरंत खुद भी तैयार हुए और मुझे भी किसी से मिलने लायक बना कर कार मंगवाई और आफिस चल पड़े..वहां उन्होंने बिड़ला जी के इस अखबार की एक महत्वपूर्ण शख़्सियत वाईसी अग्रवाल को फोन पर मेरे आने की सूचना दी और फिर मुझे उनसे मिलाने को उठ लिए..वाईसी से मिलना मतलब एक सल्तनत के सामने खड़ा होना था उन दिनों..नवीन मुझे उनके सामने रख कर निकल लिए कि झेलो बेटा इन्हें..

कोई न..बस एक घबराहट कि कई सालों से अखबार से दूर हूँ कुछ गलती न हो जाये..लेकिन अपन ने और नवीन जोशी में अपने को लेकर विश्वास ने संभाल लिया..

खैर जी, दो दिन पटना में नवीन के सानिध्य में गुजारने के बाद तीसरे दिन मुज़फ्फरपुर निकलने को टैक्सी मंगवाई तो पता चला उस दिन बिहार बंद है..टैक्सी को अगले दिन बुला कर सुबु सुबु चल पड़े...

कुछ ज्ञात-अज्ञात, शरीरी-अशरीरी देवी-देवताओं को नमन कर जब मुज़फ्फरपुर की धरती पर कदम रखा तो बहुत अजाना नहीं लगा वो मुझे.. बस सारी चिंता यही खाये जा रही थी कि ऑफिस के लोग कैसे होंगे..संपादक नामका प्राणी कैसा होगा, जिनसे पटना से ही फोन पर बात हो चुकी थी..तभी लग गया कि बहुते खड़ूस है..

आज तक वैसे भी अपनी पटरी बहुत कम सम्पादकों से सही बैठी.. और अब तो सबसे बड़ा डर उस समाचार संपादक वाले पद को लेकर था, जो मुझ जैसे निहायत अराजक व्यक्ति को थमाया गया था..कई तरह की आशंकाएं कि कैसे निभा पाऊंगा यह दायित्व, क्योंकि अख़बारी काम को कई साल से छुआ जो नहीं था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले जाने के कारण...

एमडीडीएम कॉलेज में मैडम विनोदिनी शर्मा के यहां पहले से तयशुदा अपनी रिहायश बना कर शहर से काफी दूर मोतिहारी रोड पर खेतों और लीची के बागानों के बीच उस वीराने में बने ऑफिस में जब कदम रखा तो दिल ढोल पीट रहा था..

सबसे मिल कर मन को थोड़ी शांति मिली..लेकिन सुकान्त जी के अंदर वही संपादक, जिससे मैं अब तक बिदकता आ रहा था..फिर भी कम सुचारू ढंग से शुरू कर दिया..कुछ दिन में ही अपने ऊपर विश्वास जमने लगा..सबसे बड़ी बात कि बिहार के स्टाफ ने इस गैर बिहारी को अपना माना..

सम्पादक जी भी सहज लगने लगे..लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत उस बिहारी भाषा से थी जो अखबार में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही थी..तब चार चार घंटे बैठ कर अखबार काला कर सुकान्त जी और स्टाफ के साथ विचार-विमर्श शुरू किया...इस मामले में काफी कड़ाई बरती..हिंदी के अखबारों में संपादन करने से हर कोई बचना चाहता है..बहुत कम डेस्ककर्मी दिल लगा कर संपादन का काम करते है..मेरा सौभाग्य कि सम्पादन का काम शुरू से ही मेरे लिए प्राथमिक रहा..

मुज़फ़्फ़रपुर में अब तक और अखबारों की तरह  हिंदुस्तान का भी यही हाल था कि जैसे तैसे छह घंटे की ड्यूटी पूरी कर घर भागो...चूंकि मुज़फ्फरपुर में न तो अपना परिवार था, न कोई समाजिक गतिविधि...ऑफिस में न कोई गुटबाजी करनी थी..न संपादक के खिलाफ षड्यंत्र रचने थे, इसलिए अखबार को देने के लिए अपने पास भरपूर समय था, और जिसे देने में अपन ने कोई कोताही नहीं बरती..धीरे धीरे मेहनत रंग लाई और  संपादन को बेहतर बनाया..मेरी इस मेहनत को कारगर बनायाअखबार में काम करने वाले हर व्यक्ति ने..

सम्पादक जब अपन की तरफ से पूरी तरह निश्चिंत हो गए तो अपने साथ उत्तर बिहार के अन्य जिलों के दौरों पर ले जाने लगे..बाद में तो उन्होंने भाषा सुधारने के काम में खुली छूट दे दी..इसकी सुगबुगाहट पटना और दिल्ली तक पहुंची..फिर मुज़फ्फरपुर से जुड़े सभी ब्यूरो में भाषागत कार्यशाला शुरू कीं..इन लगातार दौरों से बिहार के सामाजिक और आर्थिक तानेबाने को समझने में बहुत मदद मिली, जिसका मुझे अपने लेखन में बेहद लाभ मिला..

मुज़फ़्फ़रपुर में 2004 के लोकसभा चुनाव के समय जिस प्रवाह में मेरा लिखना शुरू हुआ, उसकी गति अगले तीन साल अनवरत बनी रही..बाहर से आये किसी इंसान ने बिहार की सरजमीं को माथे लगा कर उसके हर पक्ष पर जितना लिखा, वो शायद एक उदाहरण बन गया...

पांच साल के मुज़फ्फरपुर प्रवास ने न केवल मेरी पत्रकारिता को नया जीवन दिया, लेखनी को धार दी, बल्कि सोचने का एक अद्भुत अंदाज़ दिया..बिल्कुल उसी तरह जैसे गौतमबुद्ध को हासिल हुआ होगा तीन हज़ार साल पहले...
जोड़ मुज़फ्फरपुर की पत्रकारिता

मुज़फ्फरपुर की खास बात यह रही कि वहां मैंने ऑफिस में अक्सर 14 से 18 घंटे गुज़ारे और करीब तीन साल ऑफिस में ही सोया... समाचार संपादक के क्यूबिकिल में कम्प्यूटर की मेज के बगल में स्लीपर क्लास की बोगी वाली लंबाई की रैक..उस पर दरी और ओढ़ने को चादर...

ऑफिस रात गुजारने का सबसे बड़ा सुख लाइट का...जब पूरा शहर अंधेरे में सर्दी बनाम गर्मी और मच्छरों से जूझ रहा होता तो अपन रात दो बजे आखिरी एडिशन छोड़ कर संपादकीय हॉल के सन्नाटे में कम्प्यूटर पर रोजाना कोई किस्सा गढ़ते..जाड़ों में हीटर की गर्मी और गर्मियों में एसी की ठंडक..मेहरबानी जेनेरेटर की..

सबके जाने के बाद उस बड़े से हॉल में मेरे अलावा प्रोडक्शन के त्रिपाठी जी कम्प्यूटर पर ताश खेलते हुए अक्सर मेरे गायन पेमुज़फ़्फ़रपुर में पत्रकारिता के पांच साल

सोलह साल पहले जब दिल्ली से मुज़फ्फरपुर हिंदुस्तान भेजे जाने का परवाना मिला था..तो हाथों से तोते इसलिए नहीं उड़े क्योंकि नौ महीने की बेरोजगारी जो झेल चुका था...

लेकिन दिल्ली में बिहारवासी साथियों ने मुज़फ्फरपुर का जो चित्रण खींचा, वो बहुत उत्साहवर्धक नहीं था...ऊपर से प्रथम दृष्टया वाला मामला..न मुज़फ़्फ़रपुर मुझे जानता था न मैं उसे..

वैसे मेरे मामले में थोड़ा घपला यह हुआ कि मृणाल जी के दिमाग में मुझे रांची भेजने की बात भी थी लेकिन हो सकता है उन्होंने सिक्का उछाल कर मेरी किस्मत में मुज़फ्फरपुर तय किया हो..

बहरहाल दिल की धड़कनों को शांत करने हेतु सीधे मुज़फ्फरपुर न जा कर ट्रेन पटना की तरफ मुड़वा ली और स्टेशन से रिक्शा पकड़ पहुंच गया नवीन जोशी के बोरिंग रोड में कृष्णा अपार्टमेंट वाले फ्लैट में..पटना हिंदुस्तान के संपादक और मुझे बेरोजगारी से निजात दिलाने को आतुर रहे नवीन आदतानुसार मुझे देख कतई न अचकचाए और तुरंत नाश्ता कराने में जुट गए..

रविवार था उस दिन.. फिर भी तुरंत खुद भी तैयार हुए और मुझे भी किसी से मिलने लायक बना कर कार मंगवाई और आफिस चल पड़े..वहां उन्होंने बिड़ला जी के इस अखबार की एक महत्वपूर्ण शख़्सियत वाईसी अग्रवाल को फोन पर मेरे आने की सूचना दी और फिर मुझे उनसे मिलाने को उठ लिए..वाईसी से मिलना मतलब एक सल्तनत के सामने खड़ा होना था उन दिनों..नवीन मुझे उनके सामने रख कर निकल लिए कि झेलो बेटा इन्हें..

कोई न..बस एक घबराहट कि कई सालों से अखबार से दूर हूँ कुछ गलती न हो जाये..लेकिन अपन ने और नवीन जोशी में अपने को लेकर विश्वास ने संभाल लिया..

खैर जी, दो दिन पटना में नवीन के सानिध्य में गुजारने के बाद तीसरे दिन मुज़फ्फरपुर निकलने को टैक्सी मंगवाई तो पता चला उस दिन बिहार बंद है..टैक्सी को अगले दिन बुला कर सुबु सुबु चल पड़े...

कुछ ज्ञात-अज्ञात, शरीरी-अशरीरी देवी-देवताओं को नमन कर जब मुज़फ्फरपुर की धरती पर कदम रखा तो बहुत अजाना नहीं लगा वो मुझे.. बस सारी चिंता यही खाये जा रही थी कि ऑफिस के लोग कैसे होंगे..संपादक नामका प्राणी कैसा होगा, जिनसे पटना से ही फोन पर बात हो चुकी थी..तभी लग गया कि बहुते खड़ूस है..

आज तक वैसे भी अपनी पटरी बहुत कम सम्पादकों से सही बैठी.. और अब तो सबसे बड़ा डर उस समाचार संपादक वाले पद को लेकर था, जो मुझ जैसे निहायत अराजक व्यक्ति को थमाया गया था..कई तरह की आशंकाएं कि कैसे निभा पाऊंगा यह दायित्व, क्योंकि अख़बारी काम को कई साल से छुआ जो नहीं था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चले जाने के कारण...

एमडीडीएम कॉलेज में मैडम विनोदिनी शर्मा के यहां पहले से तयशुदा अपनी रिहायश बना कर शहर से काफी दूर मोतिहारी रोड पर खेतों और लीची के बागानों के बीच उस वीराने में बने ऑफिस में जब कदम रखा तो दिल ढोल पीट रहा था..

सबसे मिल कर मन को थोड़ी शांति मिली..लेकिन सुकान्त जी के अंदर वही संपादक, जिससे मैं अब तक बिदकता आ रहा था..फिर भी कम सुचारू ढंग से शुरू कर दिया..कुछ दिन में ही अपने ऊपर विश्वास जमने लगा..सबसे बड़ी बात कि बिहार के स्टाफ ने इस गैर बिहारी को अपना माना..

सम्पादक जी भी सहज लगने लगे..लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत उस बिहारी भाषा से थी जो अखबार में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही थी..तब चार चार घंटे बैठ कर अखबार काला कर सुकान्त जी और स्टाफ के साथ विचार-विमर्श शुरू किया...इस मामले में काफी कड़ाई बरती..हिंदी के अखबारों में संपादन करने से हर कोई बचना चाहता है..बहुत कम डेस्ककर्मी दिल लगा कर संपादन का काम करते है..मेरा सौभाग्य कि सम्पादन का काम शुरू से ही मेरे लिए प्राथमिक रहा..

मुज़फ़्फ़रपुर में अब तक और अखबारों की तरह  हिंदुस्तान का भी यही हाल था कि जैसे तैसे छह घंटे की ड्यूटी पूरी कर घर भागो...चूंकि मुज़फ्फरपुर में न तो अपना परिवार था, न कोई समाजिक गतिविधि...ऑफिस में न कोई गुटबाजी करनी थी..न संपादक के खिलाफ षड्यंत्र रचने थे, इसलिए अखबार को देने के लिए अपने पास भरपूर समय था, और जिसे देने में अपन ने कोई कोताही नहीं बरती..धीरे धीरे मेहनत रंग लाई और  संपादन को बेहतर बनाया..मेरी इस मेहनत को कारगर बनायाअखबार में काम करने वाले हर व्यक्ति ने..

सम्पादक जब अपन की तरफ से पूरी तरह निश्चिंत हो गए तो अपने साथ उत्तर बिहार के अन्य जिलों के दौरों पर ले जाने लगे..बाद में तो उन्होंने भाषा सुधारने के काम में खुली छूट दे दी..इसकी सुगबुगाहट पटना और दिल्ली तक पहुंची..फिर मुज़फ्फरपुर से जुड़े सभी ब्यूरो में भाषागत कार्यशाला शुरू कीं..इन लगातार दौरों से बिहार के सामाजिक और आर्थिक तानेबाने को समझने में बहुत मदद मिली, जिसका मुझे अपने लेखन में बेहद लाभ मिला..

मुज़फ़्फ़रपुर में 2004 के लोकसभा चुनाव के समय जिस प्रवाह में मेरा लिखना शुरू हुआ, उसकी गति अगले तीन साल अनवरत बनी रही..बाहर से आये किसी इंसान ने बिहार की सरजमीं को माथे लगा कर उसके हर पक्ष पर जितना लिखा, वो शायद एक उदाहरण बन गया...

पांच साल के मुज़फ्फरपुर प्रवास ने न केवल मेरी पत्रकारिता को नया जीवन दिया, लेखनी को धार दी, बल्कि सोचने का एक अद्भुत अंदाज़ दिया..बिल्कुल उसी तरह जैसे गौतमबुद्ध को हासिल हुआ होगा तीन हज़ार साल पहले...
जोड़ मुज़फ्फरपुर की पत्रकारिता

मुज़फ्फरपुर की खास बात यह रही कि वहां मैंने ऑफिस में अक्सर 14 से 18 घंटे गुज़ारे और करीब तीन साल ऑफिस में ही सोया... समाचार संपादक के क्यूबिकिल में कम्प्यूटर की मेज के बगल में स्लीपर क्लास की बोगी वाली लंबाई की रैक..उस पर दरी और ओढ़ने को चादर...

ऑफिस रात गुजारने का सबसे बड़ा सुख लाइट का...जब पूरा शहर अंधेरे में सर्दी बनाम गर्मी और मच्छरों से जूझ रहा होता तो अपन रात दो बजे आखिरी एडिशन छोड़ कर संपादकीय हॉल के सन्नाटे में कम्प्यूटर पर रोजाना कोई किस्सा गढ़ते..जाड़ों में हीटर की गर्मी और गर्मियों में एसी की ठंडक..मेहरबानी जेनेरेटर की..

सबके जाने के बाद उस बड़े से हॉल में मेरे अलावा प्रोडक्शन के त्रिपाठी जी कम्प्यूटर पर ताश खेलते हुए अक्सर मेरे गायन पे ताल दिया करते..अक्सर रात को तीन बजे हम मोतिहारी रोड पर बूढ़ी गंडक के ब्ल्यू लैगून तक घूमने निकल जाते...कुल मिला कर यह रात्रि जागरण बड़ा मनोहारी होता और तब तक चलता जब तक बगल में चल रही प्रिंटिंग प्रेस से त्रिपाठी जी छप रहे अखबार की प्रति लेकर आ नहीं जाते थे..

अखबार की सबसे पहली प्रति की सूक्ष्म छानबीन कर हरी झंडी देता छापने की..कई बार किसी बड़ी खबर को अपडेट करने, खेल की किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के ताजा नतीजे वगैरह अखबार के लिए ज़रूरी जान अकेले ही सारी भागदौड़ कर उन्हें लेता प्रेस रुकवा कर..मेरे रात भर आफिस में रुकने का यह बहुत बड़ा फायदा हुआ..इस काम में मेरा साथ प्रिंटिंग वालों ने वहुत दिया...

और यह बहुत बड़ी बात थी कि जब दिल्ली पटना के सारे अख़बारी काम दो बजे तक पूरी तरह ठप्प हो चुके होते थे..मेरे रहते मुज़फ्फरपुर हिंदुस्तान पांच बजे तक अपने को कम्प्यूटर के जरिये अपडेट करने का जज़्बा रखता था..

दिल्ली से मुज़फ़्फ़रपुर चलने तक मुझे सबसे ज़्यादा बिहार के जातिवाद को लेकर डराया जाता रहा..लेकिन इस मामले में अपना खुला खेल फर्रुखाबादी था, इसलिये मुझे इस देश के सबसे घृणित खेल जातिवाद का सामना नहीं करना पड़ा..मेरे इस बेहद कठोर रुख के चलते कभी किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ी..

 ताल दिया करते..अक्सर रात को तीन बजे हम मोतिहारी रोड पर बूढ़ी गंडक के ब्ल्यू लैगून तक घूमने निकल जाते...कुल मिला कर यह रात्रि जागरण बड़ा मनोहारी होता और तब तक चलता जब तक बगल में चल रही प्रिंटिंग प्रेस से त्रिपाठी जी छप रहे अखबार की प्रति लेकर आ नहीं जाते थे..

अखबार की सबसे पहली प्रति की सूक्ष्म छानबीन कर हरी झंडी देता छापने की..कई बार किसी बड़ी खबर को अपडेट करने, खेल की किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के ताजा नतीजे वगैरह अखबार के लिए ज़रूरी जान अकेले ही सारी भागदौड़ कर उन्हें लेता प्रेस रुकवा कर..मेरे रात भर आफिस में रुकने का यह बहुत बड़ा फायदा हुआ..इस काम में मेरा साथ प्रिंटिंग वालों ने वहुत दिया...

और यह बहुत बड़ी बात थी कि जब दिल्ली पटना के सारे अख़बारी काम दो बजे तक पूरी तरह ठप्प हो चुके होते थे..मेरे रहते मुज़फ्फरपुर हिंदुस्तान पांच बजे तक अपने को कम्प्यूटर के जरिये अपडेट करने का जज़्बा रखता था..



दिल्ली से मुज़फ़्फ़रपुर चलने तक मुझे सबसे ज़्यादा बिहार के जातिवाद को लेकर डराया जाता रहा..लेकिन इस मामले में अपना खुला खेल फर्रुखाबादी था, इसलिये मुझे इस देश के सबसे घृणित खेल जातिवाद का सामना नहीं करना पड़ा..मेरे इस बेहद कठोर रुख के चलते कभी किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ी..

6/25/18