अखबार की पहली नौकरी..बोले तो नभाटा
सरकारी नौकरी से जी ऊब चला था..तो नजीबाबादी सम्बन्धों का लाभ उठा कर पत्रकार बनने की ठानी..लाभ मिल भी गया और अपन कुछ दिन के लिए बेनेट कोलमन के चाकर हो गए..
सितंबर की उनतीस तारीख। दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर कतार से लगी बाटा की दुकान पर रैक में सजे जूतों के डिब्बों सरीखी इमारती कतार। एक डिब्बे पर बैनेटकोलमन प्रा.लि का बोर्ड देखा तो धंस लिए...अंदर ऐसे घुस रहा जैसे खो गयी गाय का बछड़ा। घबराहट के मारे दम निकल रहा।
दूसरी मंजिल पर पहले टाइम्स ऑफ़ इन्डिया रेजीमेंट से सामना। गैलरी से निकल कदम आगे खिसके तो कानों में सायं-सायं.. .. चिल्ल-पों से भरा हॉल.. ..नवभारत टाइम्स।..कई सारे प्रायद्वीप..जिन पर अलग-अलग किसिम के जलचर-उभयचर..उन सबको कंट्रोल करने को कोई जैन साब..समाचार सम्पादक..उसके बाद लकड़ी का लम्बा खांचा..फिर छोटी सी गैलरी..गैलरी के उस तरफ कतार से लगे दड़बे..सम्पादक..सहायक सम्पादक अचार..सहायक सम्पादक विचार..सहायक सम्पादक मुरब्बा..सहायक सम्पादक चटनी..
एक दड़बे के दरवाजे पर सम्पादक की नाम पट्टिका देखी..रामपाल सिंह..कार्यवाहक सम्पादक..कान में रामधुन बजने लगी। और जुबान पर गायत्री मंत्र। लेकिन हौसले बुलंद थे, धड़ाक से दरवाजा खोला। दंडवत की सोची, पर फौरन दिल से निकाल दिया। (उन दिनों कैसा भी नेता, मंत्री और सम्पादक का नाम लेना उद्दंडता की श्रेणी में नहीं आता था) सो पहले उन्हें उनके नाम से सुशोभित किया, फिर अपना नाम बताया, और फिर हम दोनों हे-हे करने लगे।
क्यों आया हूं और किसने भेजा है, यह सुन हे-हे की जगह मीठी मुस्कान ने ले ली। उन्होंने समाचार सम्पादक जैन साहब को बुलवाया और मुझे उन्हें सौंप एक आंख थोड़ी छोटी की और ‘उनका’ नाम बड़ी श्रद्धा से लिया। जैन साब ने बस गोद में नहीं उठा लिया, लेकिन भाव वही था। अपन भी उसी भाव में ही उनकी गोदी में सवार हो गए। वो मुझे गोदी में लिये मुख्य उप सम्पादक पंत जी के पास पहुंचे। उनके सामने की मेज पर जैसे ही जैन साब ने मुझे रखा, पंत जी बिलबिलाए..यह किसको उठा लाए..क्या मैंने ट्रैनिंग सेन्टर खोल रखा है, हटाइये मेरे सामने से।
जैन साब ने उनकी ठोड़ी पर उंगलियां फेरीं और निकल लिये। पंत जी कड़कड़ाए..जहां जगह मिले बैठ जाओ..खबर बनाने को नहीं दूंगा..डस्टबिन से उठाओ और रियाज़ करो। लखनऊ के मोहन मार्केट में रेवड़ी बनते देखी थी, तभी से खानी बंद कर दी। अखबार के लिए पहली बार खबरें बनते देखना कोई सुखद अनुभव नहीं था। बोरियत दूर करने के हालात दूर-दूर तक नहीं थे। हंसी-ठट्ठा, चीख-चिल्लाहट, हाय-तौबा--सबके बीच हुक्का बन कर बैठना कितना त्रासदायक होता है। तभी पता चला कि घर छोड़ने वाले वाहन नीचे खड़े हैं, जिसको जाना हो निकल जाए। जैन साब को कह निकल लिया। उन्होंने एक पर्ची दी, जो वाहन पर बैठने के लिये थी। अखबार सप्लाई के हलब्बी ट्रक पर अपनी बारात निकली..उसी से पास के तुर्कमान गेट में पेइंग गेस्टी प्रभात डबराल के कमरे में घुस कर दिन भर के गम घोल कर अगले दिन का हौसला तलाशने में जुट गया।
नभाटा का अगला दिन भी हरामखोरी में गुजरा। हरामखोरी तो वहां रग-रग में समाई हुई थी..मजा भी जम कर लिया जा रहा था..अपना समय आने को था। और वो आ भी गया..एक दिन जैन साब ने अपन का हाथ सत सोनी को सौंप दिया, जिनके नेतृत्व में बैनेट कोलमैन का खच्चर सांध्य टाइम्स चौकड़ियां भर रहा था। मेरे पत्रकारिता जीवन का टर्निंग प्वाइंट यही था। यहां एक से एक विभूतियों से मिलना हुआ। दो से तो खासतौर पर। कवि इब्बार रब्बी और वामपंथी प्रदीप कुमार। सत सोनी चार सिर वाले ब्रह्मा..उनके बारे में क्या कहा जाए...
इब्बार रब्बी महन्तनुमा इंसान..दिन भर चेले चपाटों की आवाजाही रहती..उन पर गुस्सा भी आता क्योंकि हर मिलने वाला मेरी कुर्सी पे बिराजमान..और मैं.. मत पूछिए..रब्बी भले आदमी...अपने टिफन की सब्जी में सनी पहली रोटी मुझे ही खिलाते..फिर पूछते कि अब मैं खा लूँ.. लेखन की शुरुआत उनके मिलने जुलने वालों के शब्दचित्र उकेरने से हुई..जो इब्बार रब्बी को पसंद भी आये..
प्रदीप कुमार..उस दाढ़ी वाले के आतंकी तौर-तरीके ने थर्रा दिया। लखनऊ से चलते समय अमृत प्रभात के मंगलेश डबराल और सुभाष धूलिया ने उस कम्युनिस्ट से खासतौर पर मिलने को कहा था। हिम्मत बांध अपना परिचय देने से पहले उन दोनों का नाम तड़पड़ ले दिया। सही कदम था। अगले का चेहरा नरम पड़ा..गले में बाहें भी डालीं और चाय भी पिलायी। हालात सुधरने शुरू हो गए।
कुछ दिन बाद ही राजेन्द्र माथुर पूर्णकालिक सम्पादक बन कर आ गए। उनके लेखन से परिचय था ही, फोटो भी देख चुका था, एक दिन अपना लिखा लेकर पहुंच गया उनके सामने। नभाटा कार्यकाल में माथुर साहब की अच्छी-बुरी किसी बुक में अपना नाम नहीं था। एक साल दिल्ली और फिर तीन साल लखनऊ-कुल चार साल में 10 बार उनसे बात करने का मौका मिला। अकेले में एकाध बार ही।
प्रदीप से दोस्ती जोर पकड़ चुकी थी। वो मुझे अपने घर ले जाने लगे। अपने हाथ से चाय-ऑमलेट बना कर खिलाते...दिल्ली नवभारत टाइम्स में गुल तो खिलाने शुरू कर दिए थे लेकिन जब तक वो गुल फूल बनते लखनऊ नवभारत टाइम्स की शोभा बढ़ाने की ज़िम्मेदारी इन नाजुक कंधों पर डाल फ़ि गई...
5/29/18