चाय बेचने वाली बुद्धि के साथ तो नेहरु को नहीं समझा जा सकता..
2014 के बाद से ही सबसे ज़्यादा प्रहार जवाहरलाल नेहरु पर हो रहे हैं..इसके पीछे मकसद साफ है कि जब तक नेहरु के किये धरे का सत्यानाश नहीं किया जाएगा..इतिहास में 'अपन' जगह कैसे मिलेगी..भाजपा या संघ तबका इस खेल को बहुत घटिया ढंग से खेल रहा है..अपने को उनसे कोई लेनादेना भी नहीं..पर अफसोस तब होता है जब करीबी जन बिना सोचे समझे कौवा कान ले गया के अंदाज़ में नेहरु की कश्मीर नीति, विदेश नीति, आर्थिक नीति वगैरह पर दो चार उल्टे सीधे बोल लिख कर अपनी कुंद बुद्धि का परिचय अक्सर दे देते हैं..
आज़ादी के लड़ाई के एक योद्धा के रूप में उनके योगदान को ये लोग इस अंदाज में नकारते हुए उसी अंदाज में टिप्पणी कर जाते हैं, जैसे पान की दुकान पर किसी क्रिकेट मैच की बकलोली की जाती है, जिसका न कोई सिर होता है न पैर..
सबसे पहली बात कि नेहरु के प्रधानमंत्री बनने से पहले के 35 साल झांक लिए जाएं, जिस दौरान नेहरु आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो कर एक योद्धा की भूमिका ही नहीं निभा रहे थे, अपनी सोच को धार देते हुए उसे वैश्विक रूप भी दे रहे थे..एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना कर रहे थे जो लोकतंत्रिक मूल्यों पर चलते हुए आगे बढ़े, न कि किसी भगवान, न कि किसी अल्लाह, या ईश्वरीय अनुकंपाओं की बदौलत अपने को ठस बनाते हुए फर्जी आधुनिकता का जामा ओढ़ कर बैठ जाये..जैसा कि आज हो रहा है..
सोवियत क्रांति के एक दशक बाद ही यानी 1930 के करीब नेहरु ने उस देश के आर्थिक विकास की रूपरेखा बनानी शुरू कर दी थी, जिसके आज़ाद होने में कई साल बाकी थे..और तब उन्हें यह तक मालूम था कि अंग्रेज आज़ाद करते समय भारत को आर्थिक रूप से किस बुरी हालत में छोड़ के जाएंगे..(यहाँ यह ध्यान में रहे कि उस समय भारत के विभाजन की विभीषिका की कल्पना दूर दूर तक नहीं थी)..
1930 के बाद से ही नेहरु भ्रष्टाचार को ले कर अपनी चिंता जगह जगह व्यक्त कर रहे थे..उनकी चिंता का विषय खाद्य सामग्री में मिलावट भी था..उनकी चिंता भारत की बढ़ती आबादी को लेकर भी थी ( तब जबकि अविभाजित पूरे भारत महादेश की आबादी 30 करोड़ के आसपास थी)...
नेहरु ने अंग्रेजों की जेलों में करीब 15 साल बिताए..और जेल में कटे इन 15 सालों के दौरान उन्होंने एक आज़ाद देश की विदेश, औद्योगिक, आर्थिक नीति, नदी योजनाओं, धार्मिक स्वतंत्रता, समाजवाद को ले कर न जाने कितने सपने देखे होंगे और न जाने कितने मुद्दों के खाके तैयार किये होंगे...यहां तक कि उनके दिमाग में विज्ञान को लेकर भी जबरदस्त उधेड़बुन थी..
जेल में रहते हुए उन्होंने भारत वर्ष का पांच हज़ार साल का इतिहास बेटी के नाम लिखे ख़तों में लिख डाला, विश्व इतिहास लिख डाला..सबसे बड़ी बात कि देश-विदेश के किसी इतिहासकार ने उनके इतिहास लेखन पर उंगली नहीं उठाई..
गांधी जी ने 1921 में असहयोग आंदोलन के साथ ही आज़ादी की लड़ाई को नया जामा पहनाना शुरू कर दिया था..और गरम दल-नरमदल जैसे नेपथ्य से लड़ रहे दलों को किनारे कर अंग्रजों को सामने से ललकारने की ठानी थी..इस लड़ाई को लड़ने के लिए उन्होंने देश के कोने कोने में लीडरशिप तैयार की..इस खोज में उन्हें कई ऐसे नेता मिले जो कि नायब होने के साथ साथ गांधी का आंख मूंद कर अनुसरण करने में एक दूसरे से होड़ कर रहे थे..
उसी दौर में गांधी को दो नवयुवक नेहरु और सुभाष मिले.. दोनों ही आगे चल कर गांधी के बेहद करीब हुए...लेकिन खास बात यह कि नेहरु और सुभाष गांधी के भक्त तो थे, लेकिन अंधभक्त नहीं थे.. दोनों आज़ादी की लड़ाई में तो गांधी के पीछे चलने को तैयार थे, लेकिन एक आज़ाद देश की उनकी परिकल्पना गांधी से अलग थी..वैमनस्य नहीं था तो मतैक्य भी नहीं था...
जारी...
6/5/18