फिर वही याद...
मुज़फ्फरपुर प्रवास का आखिरी दिन...आखिरी रात...आज के दिन 11 साल पहले 12 बजे दोपहर ट्रेन में था..
तीन हज़ार दो सौ पिच्चासी दिन का आंकड़ा कुछ भी भूलने के लिये बड़ा...बहुत बड़ा होता है...नहीं भूला तो नहीं ही भूला मुज़फ्फरपुर को...मज़ाक तो बन ही सकता हूं..लेकिन क्या करूं......इस साल तीन सौ पैंसठ दिन और जोड़ कर फिर वही सब जोड़ घटा रहा हूँ.
एक कस्बानुमा बदहाल शहर हुआ करता था...न बिजली, न पानी, टूटी सड़कें..बजबजाती नालियां...टिपिकल भारतीयता से भरपूर शहर....दिक्कतें ही दिक्कतें..मिला तो खा लिया, नहीं तो चने पर ही गुज़ारा किया...
बिजली न होने से 700 रातें ऑफिस में ही गुजारीं...रोज रात को दो बजे का एडिशन छोड़ने के बाद अपना लेखन...सुबह पांच बजे अपना लिखा दिल्ली..लखनऊ और न जाने कहां कहां मेल करता...मृणाल जी ने बेहद अचम्भे से पूछा भी था कि मैं रात को सोता भी हूं कि नहीं...बहुत दिया मुज़फ्फरपुर ने इस अजनबी को...
7/1/18