गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

भारत में छात्र राजनीति

राजीव मित्तल

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद व्यवस्था के खिलाफ ऐसे न जाने कितने आंदोलन हुए, जिनमें युवा और छात्रों का रोष उभरा और समय के साथ गायब हो गया...

छात्र आंदोलन का तेजस्वी रूप 1942 में तब देखने को मिला था, जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होते ही सभी बड़े बड़े नेता गिरफ्तार हो गए और आन्दोलन की बागडोर युवा हाथों में चली गई..आंदोलन बखूबी अपने मक़ाम तक पहुंचा और देश भर की जेलें 16 साल से लेकर 20 साल के युवाओं से भर गयीं..

लेकिन आज़ादी मिलते ही युवाओं को मिलने वाले प्रेरणा स्रोत सूखते चले गए और देश में घटिया सोच वाली राजनीति ने पाँव इस तरह जमा लिए कि देश के अंदर छात्रों की सामूहिक रचनात्मकता अराजक मुद्दों में भटक गई..

हमारे छात्र आंदोलन क्षेत्रीयवाद, भाषावाद, जातिवाद जैसी सोच के मोहताज हो गए..
मुझे कॉलेज के दिनों की याद है कि छात्र यूनियन के चुनाव कैसे राजनीतिक दलों के मुखौटे बनते चले गए..जो चुनाव प्रत्याशियों के कार्ड और उनके पोस्टरों तक सीमित होते थे, वही चुनाव बड़े बड़े जुलूसों, दारू के वितरण, गुंडागर्दी और अपने अपने वर्चस्व को कैसे भी स्थापित करने का जरिया बन गए..

हमारे देश में एक मौका आया था जब युवाओं को ठोस दिशा मिलती..वो मौका था इमरजेंसी के पहले का गुजरात और फिर बिहार युवा आंदोलन...लेकिन जयप्रकाश नारायण की अव्यवहारिक सोच के चलते ये आंदोलन राजनीति का अखाड़ा बन गए..और उन आंदोलनों की शुचिता पर काले धब्बे डाल दिये इमरजेंसी के बाद हुए हुए लोकसभा चुनावों में विपक्ष के विभिन्न दलों के असंगत जमावड़े के रूप बने जनता पार्टी के गठन और उसकी जीत ने..

तीन साल बाद भनुमति का कुनबा तो बिखर गया, उससे भी ज़्यादा खराब बात यह हुई कि उसमें शामिल जितने नौजवान थे, उन्होंने अपने सिरों पर विभिन्न राजनीतिक दलों की टोपियां सजा लीं, और बहती गंगा में हाथ धोने में जुट गए..और वही आज सड़ी गली राजनीति का व्यापार कर रहे हैं..

एक खास बात और कि आजादी से पहले जो समाजवादी युवा नेता देश के नौजवानों को रचनात्मक दिशा की ओर प्रेरित कर रहे थे, आज़ादी के बाद वही सब नेता प्रौढ़ हो कर वर्चस्व की संकीर्ण राजनीति के पहरुआ बन गए और देश का युवा तबका भटकाव के रास्ते पर चल पड़ा..

बहरहाल, कुल मिला कर स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि किसी भी विश्वविद्यालय का छात्रसंघ पाकसाफ नहीं है..छात्र नेतृत्व के पास कोई रचनात्मक सोच बची ही नहीं है..सब पर दलगत राजनीति हावी है..छात्र नेताओं के पास अपने अपने शॉर्टकट हैं राजनीति के जरिये अपनी दुकान सजाने के, अपना भविष्य उज्जवल करने के..उनकी सोच में न देश है न समाज..

12/18/17