लखनऊ सिनेफ़ाइल्स की ओर से फ़िल्म प्रदर्शन और बातचीत की रविवारी श्रृंखला में इस बार...
अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के अवसर पर
ईरानी फ़िल्मकार मर्जिएह मेश्किनी की बहुचर्चित फ़िल्म - THE DAY I BECAME A WOMAN ( वह दिन जब मैं औरत बन गई)
'वह दिन जब मैं औरत बन गई' उम्र के तीन अलग-अलग पड़ावों पर खड़ी तीन स्त्रियों की ज़िन्दगी और पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उन पर थोपी गई बंदिशों का कलात्मक प्रस्तुतिकरण है। इसमें रूपक, अन्योक्ति और अतियथार्थवाद (surrealism) का शानदार उपयोग किया गया है। यह फ़िल्म तीन स्वतंत्र कहानियों का एक आकर्षक ऑडियो-विजुअल कोलाज है।
पहली कहानी हावा नामक बच्ची की है जिसे उसके नौवें जन्मदिन पर उसकी माँ और दादी यह एहसास दिलाती हैं कि वह अब औरत बन गई है और इसलिए उसकी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। उसे अब लड़कों के साथ नहीं खेलना चाहिए और बाहर निकलते समय चादोर (ईरानी लिबास जिससे चेहरे के अलावा शरीर का शेष ऊपरी हिस्सा ढका जाता है) पहनना चाहिए। हावा को दोपहर तक का समय दिया जाता है जिसके बाद औरत के रूप में उसकी जिम्मेदारियाँ शुरू हो जाएंगी। उसके बाद दोपहर होने से पहले तक का समय हावा अपने सबसे अच्छे दोस्त हसन के साथ किस तरह बिताती है इसे जानने के लिए फ़िल्म देखें।
दूसरी कहानी आहू नामक युवा स्त्री की है जो साइकिल रेस में हिस्सा लेती है। आहू रेस में सबसे आगे निकल जाती है लेकिन उसका पति घोड़े से उसका पीछा करने लगता है। वह उसे रोककर उसे वापस घर ले जाने की कोशिश करता है और उसे तलाक की धमकी देता है। यही नहीं आहू के पति का पूरा कुनबा घोड़े से उसका पीछा करते हुए उसे रोकने की कोशिश करता है।
तीसरी कहानी हूरा नामक एक बुजुर्ग निसंतान महिला की है जिसे युवावस्था में एक पुरुष ने धोखा दिया था। हूरा के पास बुढ़ापे में एकाएक बहुत पैसा आ जाता है। उस पैसे से वो घर गृहस्थी का वो सारा साजो सामान खरीद लेना चाहती है जो वह पहले पैसों की कमी की वजह से नहीं खरीद सकी थी। फिर भी उसे लगता है कि कोई सामान छूट गया है। कुछ बाल मज़दूरों की मदद से वह उन सामानों को एक समुद्र के किनारे रखवाती है। अन्त में वह खरीदे हुए अपने सारे सामान को बच्चों की मदद से जहाज से समुद्र के पार ले जाने की कोशिश करती है।
'लखनऊ सिनेफ़ाइल्स' को आपके हर तरह के सहयोग की ज़रूरत है, लेकिन फ़िल्म शो के लिए कोई शुल्क नहीं है। आप सब आमंत्रित हैं।
3/7/18