बुधवार, 1 अप्रैल 2020

हिंदी के एक सम्पादक...जो अब तीस मार खां हैं..इन पर बाद में...पहले थारू जाति पर ...जिसकी दुश्वारियों पर कथाकार संजीव ने एक उपन्यास लिखा है....जंगल यहां से शुरू होता है...नेपाल की तराई में बसी इस जनजाति का इतिहास राजपुताना के राजे रजवाड़ों से जुड़ा है..सल्तनत काल के हमलों में जौहर न करने वाली हजारों रानियां राजकुमारियां अपने सेवकों के साथ उत्तर बिहार ही तरफ आ निकलीं और महफ़ूज़ जगह जान वहीं बस गयीं...धन भरपूर था साथ में...सेवक दिन में सेवकों की तरह और रात में शैया के सहभागी..इस गठजोड़ से जो औलादें होती रहीं..समाज में कोई इज़्ज़त नहीं....औरतों से जब चाहे तब खेलते  इज़्ज़तदार पुरुष...और आदमी... मोटे और नाकारा मालिक मालकिनों का मल साफ करते...इस काम के लिये नयी नकोर धोती काम में लायी जाती..और साफ सफाई के बाद सेवकों के पहनने के काम आती...
तो आगरा में एक सम्पादक ने जवानी की शुरुआत से ही अपने मालिकों की कुछ ऐसी ही सेवा की ...बाइस साल तक उस अख़बार को पूरी तरह निचोड़ने के बाद जनाब दिल्ली तिड़ी हो लिये और इन दिनों पूरी क़ायनात के सम्पादक हैं...
आगरा के जलवे...पिस्तौल लटका कर घूमना और प्रतिद्वन्द्वी अख़बार के सम्पादक को जब चाहे तब जुतिया देना..एक दिन मुंह काला कर शहर से बाहर करवा दिया..जब ट्रेन से कहीं जाना होता तो रिपोर्टरों का दल स्टेशन पहुंच सबको सावधान मुद्रा में खड़ा करवा देता..मारुति वैन से अध पी बोतल के साथ जब सम्पादक उतरते तो .जी आर पी के जवान थ्री नॉट थ्री थामे गार्ड ऑफ ऑनर देने की मुद्रा में आ जाते..हिंदी पत्रकारिता अमर रहे

6/12/18