बोलविया में चे के आखिरी दिन..
कास्त्रो का पूरा विश्वास पाने के बावजूद चे की स्थिति क्यूबा में असहज हो चली थी। यही असहजता वर्ष 1964 में अपनी परिणति पर पहुंच गई और चे ने फिदेल कास्त्रो से लम्बे विचार-विमर्श के बाद क्यूबा छोड़ने का फैसला किया...
अब उनके सामने थे अफ्रीका में कांगो तथा अल्जीयर्स और दक्षिण अमेरिका में खुद उनका अपना देश अर्जेन्टाइना, पेरू व बोलविया... जहां चे को सशस्त्र क्रान्ति के हालात माकूल लग रहे थे..
इस वक्त तक चे विश्व की महत्वपूर्ण हस्ती बन चुके थे। तीसरी दुनिया के देशों के एक तरह से वह प्रवक्ता ही बन गये थे। उनके भाषणों में या तो अमेरिकी साम्राज्यवाद की कटु आलोचना थी या तीसरी दुनिया के देशों की तकलीफें।
1965 में तीन महीने बाहर रह कर क्यूबा लौटने के बाद उन्होंने अपने अगले रणस्थल का चुनाव कर लिया था और वह जल्द ही लापता हो गये। और ठीक उन्नीस महीने बाद 1966 के नवम्बर माह में बोलविया दिखे।
इस बीच वह कहां रहे, क्या किया, यह जानने के लिये अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने जमीन-आसमान एक कर दिया। अन्त में उसने यही निष्कर्ष निकाला कि क्यूबा के सत्ता संघर्ष में चे मारे जा चुके हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति लिण्डन बी जानसन को भी यही बताया गया। पर अमेरिका के लिये यह राहत कुछ महीनों की ही साबित हुई।
चे गुएरा उरुगुवे के नकली पासपोर्ट पर बोलविया में घुसे। घने जंगलों, एण्डीज श्रृंखला के ऊंचे-ऊंचे पहाड़, बड़ी-बड़ी नदियों, गहरी खाइयों वाले इस देश में चे को काफी सम्भावनाएं नज़र आयीं, क्योंकि प्राकृतिक सम्पदा और खनिज से भरपूर इस देश का सदियों से दोहन हो रहा था।
सबसे बड़ी बात उन्हें यह लगी कि पांच देशों से लगे बोलविया में क्रांति की सफलता पूरे दक्षिण अमेरिका को अपनी चपेट में ले लेगी।
वहां चे ने अपना ट्रेनिंग कैम्प नानसाहूआजू नदी की घाटी में बनाया, जहां से करीब थे तीन शहर कोचाबामा, सान्ताक्रूज और सुक्रे, जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे।
तीन-चार महीने की कड़ी ट्रेनिंग के बाद गुरिल्ला दस्तों ने बोलवियाई फौजी रिसालों पर हमले बोलने शुरू कर दिये। चे की निगाह में क्यूबा अभियान की शुरुआत की तुलना में बोलविया अभियान बेहतर ढंग से गति पकड़ रहा था। लेकिन आगे चल कर हालात बिगड़ते गये। बीच ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिससे दुनिया भर को पता चल गया कि चे बोलविया में हैं।
अमेरिका तुरन्त हरकत में आया और बोलवियाई फौज की सैकेण्ड रेंजर बटालियन को सीआईए की देखरेख में ट्रेनिंग दिलाने के बहाने बोलविया से समझौता किया। 1967 के अप्रैल में राष्ट्रपति जानसन के सलाहकार वाल्ट रोस्तोव ने उन्हें असलियत बताई कि चे नहीं मरा और वह बोलविया में है।
तब तक चे की मुश्किलें शुरू हो चुकी थीं। उसके छापामार दस्ते के लोग या तो सैनिक झड़पों में घायल होते जा रहे थे या किसी न किसी बीमारी की चपेट में आ कर असहाय होते जा रहे थे। मौतों का सिलिसला भी शुरू हो गया था। लड़ने वालों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही थी और नयी भरती नाममात्र को थी। उनका स्थानीय जनता से जुड़ाव हो ही नहीं पा रहा था। एक नदी पार करते हुए वह उपकरण भी बह गया, जिसके दम पर चे का क्यूबा से सम्पर्क बना हुआ था।
सितम्बर आते-आते अमेरिका से ट्रेनिंग पायी साढ़े छह सौ जवानों की बटालियन पूरी तरह सक्रिय हो कर चे और उनके दस्तों के खात्मे में जुट गई। चे की 11 महीने के बोलवियाई अभियान के दौरान लिखी गई डायरी पर आखिरी कलम सात अक्टूबर को चली।
उस दिन तक चे का दस्ता सैनिक टुकड़ियों से पूरी तरह घिर चुका था और अन्तिम समय हर पल नजदीक आता जा रहा था। उसी दिन चे ने रेंजरों से बचते हुए ला हिगुएरा के गांव में एक बूढ़ी औरत से सैनिक टुकड़ी की बारे में पूछताछ की, पर कोई पुख्ता जानकारी उन्हें नहीं मिली।
आठ अक्टूबर को रेंजरों को सूचना मिल चुकी थी कि चे अपने दस्ते के साथ घाटी के किस हिस्से में छिपे हैं। उसी दिन अन्तिम भिडंत हुई और दोपहर डेढ़ बजे पैरों में कई गोलियां खा चुके चे रेंजरों के हाथ पड़ गये।
यह था चे का अंत, जिसकी मौत ने उन्हें इस कदर लोकप्रिय बना दिया कि करीब 40 साल बाद जब उनके महाद्वीप के देशों से अमेरिकी दलालों को मार-मार कर भगाया जा रहा था, तो हर किसी की आंखों में चे बसे हुए थे। और आज तमाम दक्षिण अमेरिकी देशों में जो सरकार हैं, वे खुल कर अमेरिकी नीतियों का विरोध कर सत्ता में आयी हैं।
1/9/18