शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

एक निरर्थक कवायद

राजीव मित्तल
अब जबकि चुनाव की तिथि घोषित हो गयी है, यहां-वहां अपने को फिट करने के खेल का एक दौर हो चुका है और अब मामला आखिरी जाम को एक झटके से गले के नीचे उतारने का आ गया है, तब एक मिनट के लिए कहीं अकेले में सोचने की जरूरत महसूस नहीं होती कि, यह चुनाव क्यों? जैसे कई बार सच का कोई अर्थ नहीं रह जाता, ईश्वर बोझ लगने लगता है, रिश्तों की गर्माहट क्रूरता की हद तक सर्द हो जाती है, तो बिहार में होने जा रहा यह चुनाव पैसे, समय और श्रम की होली जलाना नहीं है? करीब 20 अरब का खर्च, कई दिन पहले शुरू हो चुकी कदमताल के ढाई महीने और, रैला-रैलियों का भीड़ जमाऊ खेल केवल लोकतंत्र की एक जरूरी शर्त को पूरा करने के लिए? क्योंकि पति परमेश्वर है इसलिए चाहे वह शराबी हो, वेश्याओं के यहां रातें गुजारता हो, दिन-रात कहर ढाता हो-लेकिन अगले सात जनम तक उससे गांठ बंधी रहे इसलिए दिन भर भूखे-प्यासे रह कर करवाचौथ जरूरी?

खंडहर में दिया जरूर जलाया जाए क्योंकि दीवाली पे लक्ष्मी आती है? आज यही सारी बातें क्या बिहार के लिए मौजूं नहीं हैं। मार्च के पहले सप्ताह में कुछ भी नया नहीं होना है-जैसा चला आ रहा है वही अगले पांच साल चलाने का महज ठप्पा नहीं होगा यह? चुनाव का मतलब है कुछ नये की कामना, राज्य और राज्य के नागरिकों की बेहतरी की कामना, जो गुजर गया उसे भूल आगे कुछ कर गुजरने का उल्लास, वो सपने जो धरती पर भले ही न उतरें पर आंखों में उनकी टिमटिमाहट तो हो। क्या यह सब कुछ है इस चुनाव में? कोई सपना, विकास की कोई झलक, कोई मुद्दा कहां नजर आ रहा है, जो लोकतंत्र को ऑक्सीजन देते हैं, चुनाव के होने को मुकम्मल बनाते हैं।

सिर्फ कान में सीसा उडेलती बयानबाजियां, अंधकार को उजाले में बदलने के लिए जादूगर की तरह छड़ी घुमाना और मतदाता को गधा समझ लाल-लाल गाजर दिखा कर बहलाना। कल, आज और कल के वही क्षण, वही घंटे, वही दिन, वही रात। कुछ सोचिये जनाब! जी हां, यह निराशा है, अब यह मत कहियेगा कि आशा के दीप जलाओ!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें