शनिवार, 13 नवंबर 2010

बहना, हमारी तो किस्मत ही फूट गयी

राजीव मित्तल
आज सभी के ‘वहां’ से सिसकियों की आवाजें आ रही हैं। कहीं-कहीं तो यह तक सुनायी पड़ रहा है-मेरी तो किस्मत फूटी थी, तुम इसके चंगुल में कहां से फंस गयीं जीजी? तो अगली ने लम्बी सांस भरी और रुंधे गले से बोली-क्या बताऊं बहना, हमारा तो जन्म ही इसलिये हुआ है कि जिसने मालिक के सामने रुपयों की गड्डी फेंकी, वो हमें हांक ले गया। पता नहीं कौन से पाप किये थे, जो यहां आना पड़ा। दस दिन पहले सासाराम गयी थी, आज भी कमर सीधी नहीं हो रही, रात भर दुखती है। तुम कमर की कह रहो हो, मेरा तो गया से लौटने के बाद से एक पैर ही लचकने लगा है। और यह जो बगल वाली है न जीजी, सीतामढ़ी से शनिवार को लौटने के बाद से ही ऑक्सीजन पर है।
ये उनका दुखड़ा है, जिनके पीछे दुनिया भागती है। इनके शरीर पर यह जो खूबसूरत सा गोदना गुदा है, उससे पता चलता है कि यही हैं स्कार्पियो, सूमो, क्वालिस, सफारी जैसी राजसी ठाठ वाली कारें। हमारे गरीब परवर उमरावों के पास देश-दुनिया की कौन सी कार नहीं है। पांच साला हों या दस साला, कारों के रेवड़ जमा करने में कोई कोताही नहीं। कारें दूध भले ही न देती हों, पर जैसे घर के आंगन में गाय बंधी देख प्रेमचंद का किसान पुलक-पुलक उठता था, इन चौपायों को अपने गैरेज में खड़ा देख इनके गलफड़े फड़कने लगते हैं। चौराहे पर पान खाने भी जाएंगे तो ड्राईवर को आवाज मारेंगे- सब को बाहर निकाल ले, जिसमें मन करेगा उसी में बैठ लेंगे। कुदरत का चमत्कार देखिये कि गाय के भी चार पैर और इनके भी और दोनों का मालिक दोपाया। अब चुनाव का समय है और बिहार की सड़कें इजाजत नहीं देतीं कि इन चौपायों का झुंड इन दिनों यहां-वहां चरता फिरे, इसलिये सबके दलों ने हवा में उड़ने का इंतजाम किया है।
मकरसंक्रांति के बाद से तो मौसम है भी हवाईजहाज से बाहर झांकने लायक। हमने तो भय्या पहले ही बड़े नेता जी को 20 लाख का चैक भेज दिया है ताकि अपने क्षेμा में जाने को किसी चिरकुट का सहारा न लेना पड़े। बाढ़ के दिनों में मजा आ गया था हवाईजहाज पर घूमने का। बाप रे बाप दूर-दूर तक फैला पानी कैसा डरावना दिखता था! जब नीचे भीड़ हाथ उठाए चिल्लाती तो मन करता कि जेब में पड़ी सारी रेजगारी उन्हें ऊपर से फेंक दूं। चलो, वो तो सावन-भादों में फिर देख लेंगे, अब तो चुनाव की तैयारी करनी है। वादों के पर्चो का गटठþर बन गया है, लालकार्ड-पीलाकार्ड के फार्म भी छपवा लिये हैं। चुनाव अफसरों की निगाह बचा कर दो-चार सौ को तो पकड़ा ही दूंगा। फोटो नहीं खिंचवा पाया जल्दी में, तो कोई बात नहीं, तीन साल पहले की फोटो से काम चला लूंगा। लेकिन है सींखचों के पीछे की। क्या फर्क पड़ता है। चुनाव की तैयारियों का ये हाल देख काक भुशुण्डि से रहा न गया और तान भर डाली-रामचंद कह गये सिया से............।

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