शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

लगा कुनबा पीछे सारा...

राजीव मित्तल
भारतीय राजनीति में बेटा ही बाप के तख्त का वारिस होता है। हालांकि पुराने युग में राजा भरत ने इस परम्परा को उलट दिया था। उन्होंने डीएनए की जगह आईक्यू टेस्ट पर ज्यादा भरोसा जताया था और राजपाट अपने किसी बेअक्ले बेटे को न देकर समझदारी और विवेक को प्राथमिकता दी थी। इस सिद्धांत को राजा भरत के ही वंशज शांतनु ने कबाड़ में डाल दिया। और फिर उसके बाद क्या-क्या गुल खिले यह हर आम-ओ-खास को पता है। उस जमाने में राजा विवाह कर दुल्हन को तो घर लाते ही थे, अक्सर उसकी छोटी बहन यानी साली की पालकी भी उठवा लाते थे हंसी-मजाक के लिये क्योंकि नवब्याहता तो रानी साहिबा बन परदे में रह कर सारे रोमांस का कबाड़ा कर देती थी। परम्परा भी यही थी। लेकिन राजा भरत के पड़-पड़ पोते धृतराष्ट्र आंखों पर पट्टी बंधी गांधारी के साथ-साथ साले साहब शकुनि को भी हस्तिनापुर ले आये। पितामह भीष्म ने तीसरे को देख चुटकी भी ली-बरखुरदार, दीवार बिगाड़ी आलों ने-घर बिगाड़ा सालों ने। पर धृतराष्ट्र को यह बारीक बात समझ में नहीं आयी और लगे साले के साथ पांसे खेलने और मच गया महाभारत। सौ बेटे भी गंवाये, दुलारा साला भी गंवाया, राजापाट भी गंवाया और जाना पड़ा बर्फ से ढंके हिमालय की तरफ। फिर आया कलियुग-जिसमें गद्दी को लेकर बाप-बेटों में जम कर जूतम-पैजार हुई। कुछ ने बाप को जेल की कोठरी में डाला तो कुछ बेटे सड़े जेल में। इस मामले में अक्सर सौतेली माएं भी अपना हुनर दिखाने से बाज नहीं आती थीं। फिर देश में तुर्कों के प्रवेश हुआ, जो अपने खानदान और बेगमों के खानदान के साथ-साथ पूरे मोहल्ले को ही साथ ले आते थे यह आशा बंधा कर कि थोड़ी लूटपाट तुम भी कर लेना। सल्तनत पीरियड में तो कई नौकर-चाकरों ने भी दिल्ली की गद्दी संभाली। तो कई के दामाद ही ससुर पर तलवार चमकाते फिरे। अंग्रेजों ने जरूर इस मामले में कुछ नियम कानून बनाये पर भारतवर्ष नाम के इस देश को कुनबों से पीछा छुड़ा पाना उनको भी नाको चने चबवा गया। आखिरकार वे उकता कर -यह ले अपनी लकुटि कमरिया बहुत ही नाच नचायो-कह कर चलते बने। सत्ता मिलने के कुछ दिन बाद तक तो-हम खोये हैं इन रंगरलियों में-की बहार रही पर उसके बाद जैसे ही बेटा-बेटी का कद बाप के बराबर पहुंचा, उनके उद्धार की होड़ मच गयी, जो आज पूरे शबाब पर है। पर अब मामला और पेचीदा हो गया है। छुटकू की मौसी, झम्मन की चाची, लटकन के चाचा, सिटकू के मामा, बुट्टन के भतीजा। और अभी न जाने कितने ताऊ, फूफा, बुआ वगैरह-वगैरह हैं, जो एक मरदूद टिकट के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं क्योंकि यह टिकट नहीं, अलादीन का चिराग है, जिसे घिसने की भी जरूरत नहीं। बस रुपया फेंक कर, कुछ वायदे मुंह से निकाल कर उस टिकट के पीछे कोठरी में बोरे में पड़े वोट पाने हैं। और वे मिल गये तो बिना कुछ किये धरे दो-चार पुश्तें निहाल। काक भुषुंडी जी आखिर में कहते हैं- तो कुनबा क्यों नहीं पीछे पड़ेगा जी!

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