रविवार, 31 अक्तूबर 2010

फीलगुड का मर्म तो पाकिस्तानियों ने समझा

राजीव मित्तल
कलाबाजियां खाते हुए चैनली चिल्लायी-जीत गया भई जीत गया अपना भारत जीत गया। बोंब , राम आसरे की मिठाई खिलाओ, कोई सोच सकता था कि सौरभ की टीम शेर की मांद में जाकर उसके दांत ही नहीं तोड़ेगी, दुम भी काट लाएगी? दो-दो बार पारी की जीत! हाय अल्लाह, मेरा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा। बर्बरीक ने हुंकार भरी-पर, पाकिस्तानी दर्शकों का दिमाग काम कर रहा है, तभी तो तीनों टेस्ट मैचों में लोगों को उनके घरों से बुला-बुला कर स्टेडियम में लाया गया लेकिन तब भी बमुश्किल डेढ़ हजार ही निकले। हां बोंब, यह बात समझ में नहीं आती कि मैदान में हों भारत-पाकिस्तान की टीमें और उन्हें खेलता देखें मात्र तीन हजार जोड़ी आंखें। देखो चैनली, जो खेल मैदान में हो रहा था, वो तो दुनिया ने देखा और जो मैदान के पीछे हो रहा था, उसे पाकिस्तानियों ने समझा। भारतीयों की भी समझ में आ गया होगा, पर जीत की खुशी में कोई समझना नहीं चाहेगा। इस जीत को राष्ट्रीय पर्व की तरह लिया जा रहा है। सारे अखबारों में बैनर और सभी चैनलों में 10 मिनट इसी पर। तुम तो कृष्ण की तरह गीता का ज्ञान दे रहे हो बोंब , वैसे कुछ-कुछ मेरी भी समझ में भी आ रहा है। महाभारत में ऐसे खेल काफी खेले गये थे चैनली। मेरे पिता घटोत्कच पहले से तयशुदा खेल का शिकार हुए। कर्ण के पास जो अमोघ अस्त्र था, उसका इस्तेमाल होना था अर्जुन पर, लेकिन कृष्ण ने इसे भांप युद्धक्षेत्र में उतार दिया पिताश्री को, जिनकी मार से कौरव सेना त्राहि -त्राहि कर उठी। मजबूरन कर्ण को उस अमोघ अस्त्र का इस्तेमाल उन पर करना पड़ा। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, जयद्रथ, अभिमन्यु, कर्ण, दुर्योधन क्या आमने-सामने के युद्ध में मारे गये थे? अब पाकिस्तान में देखना किस-किस को सूली पर चढ़ाया जाता है। तुम्हारे सामने बिसात बिछा कर समझाता हूं कि इसमें कौन कहां फिट बैठा। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड का पैसे-पैसे को मोहताज होना, कारण 15 साल से भारतीय टीम का वाघा सीमा पार न करना, तीन साल से दोनों देशों के बीच किसी प्रतियोगिता का न होना, अमेरिका पर कहर ढाने वाला वो काला 11 सितम्बर, फिर पहले अफगानिस्तान में तालिबान और फिर इराक में सद्दाम का कचूमर, बुश के मुशर्रफ की पीठ पर फेरते हाथों का कई बार उसकी गर्दन तक पहुंच जाना। दो साल तक भारत - पाक सीमा पर दोनों देशों की सेनाओं के बीच पलक झपकाऊ प्रतियोगिता होती रही, बुश के इस आदेश के साथ कि अपनी जगह से हिलना नहीं। चुनाव से थोड़ा पहले ही मुशर्रफ और अटल के बीच इश्कियाबाजी की शुरूआत, अटल जी का पाकिस्तान जाना और वहां से लौट कर फीलगुड का आम के मंजर की तरह आगमन, जायें कि न जायें की हफ्तों की लपझप के बाद फीलगुड की मिठास और बढ़ाने को वाजपेयी का सौरभ को विजयी भव का आशीर्वाद दे पाकिस्तान रवाना करना। और वहां चालीस दिनों में जो कुछ हुआ, वो सबके सामने है। दुनिया को थर्राने वाले शोएब अख्तर जैसे पिच पर नहीं सीतामढ़ी से जनकपुरी धाम को जा रही सड़क पर बॉलिंग कर रहे थे। योहाना-इंजमाम गीली लकड़ी साबित हुए। सुलगे और फुस्स । कई पाक खिलाड़ी आपस में इसी बात को लेकर पिले पड़े थे कि सौरभ की टीम से भिड़ने को बलूच तरीका अपनाया जाये या सिन्धी या पख्तून। अंत में यह तय हुआ कि उन्हें मलाई कोफ्ता खिलाया जाये, जिसके लिये उनमें से दो-चार अपने घर तंदूर सुलगाने चले गये। भारत आयी 1979 की आसिफ इकबाल की टीम से, 1999 में इंगलैंड में वसीम अकरम और इस बार तो बैठकखाना ही मुशर्रफ का था। वो लतीफ चिल्लाता रहा कि सब फिक्स है, कई किक पड़ गयीं उसे। अब फीलगुड का स्वाद क्रैकजैक जैसा हो चला है । मीठा भी नमकीन भी। पर बोंब , जीत तो जीत ही है, इसलिये हमें मिल कर सौरभ और उसकी टीम को बधाई देनी चाहिये-चैनली ने मंदिरा बेदी के अंदाज में चौका जड़ा।

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