शनिवार, 30 अक्तूबर 2010
1857 की विफलता में छुपा है 1846 का सच
मार्च का महीना भारत की आज़ादी की लड़ाई में काफी महत्त्व रखता है.....ख़ास कर अट्ठारह सौ सत्तावन की ग़दर में इस माह की ज़बरदस्त भूमिका है। मंगल पांडे ने मार्च में ही बंगाल आर्मी में रहते हुए अंग्रेजों के खिलाफ बग़ावत का झंडा बुलंद कर दिया था। घायल हुए और अप्रैल में फांसी पर लटका दिए गए। दस मई को अंग्रेजों का कत्लेआम शुरू हो गया। दिल्ली के साथ-साथ उत्तर भारत के कई महत्वपूर्ण इलाके ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकल गए और वहां मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर या बग़ावत में शामिल सत्ताधीशों का फरमान चलने लगा। अगले डेढ़ साल तक देश के कई हिस्सों में हालात बेहद अराजक रहे। आखिरकार अंगेजों ने बग़ावत को कुचल कर रख दिया और सत्ता की बागडोर ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से निकल इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के हाथों में चली गयी।
अंग्रेजों के खिलाफ पहली बार इतने बड़े पैमाने पर हुई हथियारबंद लड़ाई की विफलता का सबसे बड़ा कारण बताया जाता है अंग्रेजों को सिक्खों की भरपूर मदद मिलना....और इस बात को आज भी घोंट घोंट कर पिलाया जा रहा है। जबकि सच यह है की भारत के ज़्यादातर राजे-रजवाड़े उस मौके पर भी अंग्रेजों के ही साथ रहे और उन्होंने बग़ावत में शामिल अपनी रियाया को बुरी तरह प्रताड़ित किया। तो उसी तरह दोआबा के जाट रजवाड़ों ने भी अपनी फ़ौज कम्पनी के हवाले कर दी....... लेकिन भारत की सबसे शूरवीर कौम ने बग़ावत को कुचलने में अंग्रेजों का साथ क्यों दिया...इसकी पटकथा तो महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद ही लिखी जाने लगी थी......कैसे .....आइये देखें
राजीव मित्तल
उन्नीस सौ साठ के दशक में हुए इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के सम्मेलन का वह सत्र काफी गरमागरम रहा था, मुद्दा था भारत की आजादी की लड़ाई। उसमें पंजाब के एक बड़े इतिहासकार ने जब अपने भाषण में कहा कि आजादी की लड़ाई में पंजाब का खासा योगदान रहा है तो उत्तरप्रदेश के एक इतिहासकार ने फौरन ताना मारा-जैसे 1857 में! इस पर पंजाबी इतिहासकार ने उसी लहजे में सवाल दागा कि 1850 के दशक में आप कहां थे!
एक लाख चालीस हजार देशी जवानों वाली बंगाल आर्मी का पंजाब के दो युद्धों में अंग्रेजों ने जिस तरह देशी पलटनों का इस्तेमाल किया और बंगाल आर्मी के जवानों ने जिस तरह अपने ही देश के एक महत्वपूर्ण हिस्से की बग़ावत को कुचला...यहीं से सिखों की मनोदशा बिगड़नी शुरू हो गयी थी । और इसका असर पड़ा अट्ठारह सौ सत्तावन के जन विद्रोह पर, जिसे अंग्रेज सिखों की मदद के बिना किसी हालत में दबा नहीं सकते थे।
विशेषकर, मई की शुरूआत में ही हाथ से निकल गयी दिल्ली पर अंग्रेज सितम्बर में तब कब्जा कर पाए थे, जब उन्हें सिख और गोरखा रेजीमेंट की सक्रिय मदद मिली। अन्यथा मई से सितम्बर तक दिल्ली पर कब्जा करने को अंग्रेजों ने जितने भी हमले बोले तो या तो उन्हें मुंह की खानी पड़ी या जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा। दिल्ली पर कब्जे के लिये चले करीब चार माह के संघर्ष में अंग्रेजों को अपने तीन-तीन जनरल, सैंकड़ों अफसर और हजारों जवान गंवाने पड़े थे।
ऐसा क्योंकर हुआ........1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पूरा पंजाब अराजक स्थिति में पहुंच गया था। उत्तराधिकार के संघर्ष में काफी खून-खराबे के बाद नाबालिग बेटे दलीप सिंह को गद्दी पर बैठा सत्ता की बागडौर रणजीत सिंह की विधवा जींद कौर ने थाम ली। लाल सिंह को वजीर बना दिया गया और तेज सिंह को सेना की कमान थमा दी गयी। दोनों ही सिख न हो कर डोगरा थे। जबकि पंजाब खालसापंथी बहुल इलाका था।
रणजीत सिंह के रहते पंजाब की तरफ देखने से भी गुरेज करने वाले अंग्रेजों को मौका हाथ लग गया। कुछ समय तक एक दूसरे पर शक, संदेह और आरोप-प्रत्यारोप के बाद 1845 में ईस्ट इंडिया कम्पनी और सिख दरबार के राजनयिक संबंध टूट गये और कम्पनी की फौज (मय बंगाल आर्मी के) ने फिरोजपुर की ओर कूच किया। जवाब में सिख सेना ने सतलज पार कर ब्रिटिश आधिपत्य वाले इलाके में कदम रखा। एक महीने तक तक चली झड़पों के बावजूद सिख सेना अंग्रेजों की जमीन पर बनी रही। लेकिन 10 फरवरी के निर्णायक युद्ध में सेनापति तेजसिंह युद्ध क्षेत्र से भाग गया और नेता विहीन सिख सेना गाजर-मूली की तरह काट डाली गयी।
इस युद्ध के बाद हुए 1846 के लाहौर समझौते में सिखों को कश्मीर छोड़ना पड़ा, ऊपर से उन पर लद गया अंग्रेज रेजीडेंट और कोहिनूर हीरा सज गया महारानी विक्टोरिया के ताज पर। सिख इतिहासकारों के अनुसार दलीप सिंह के नाबालिग होने का वजीर लाल सिंह और सेनापति तेज सिंह ने खूब फायदा उठाया और युद्ध के दौरान दोनों की अंग्रेजों से मिलीभगत रही।
लाहौर संधि के बाद ब्रिटिश रेजीडेंट सर हेनरी लारेंस ने सिख दरबार को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया। हार के बाद सिखों के हाथ से जलंधर दोआबा जैसा बेशकीमती इलाका भी निकल गया और कश्मीर उनके प्रतिद्वंद्वी डोगरा महाराज गुलाब सिंह ने अंग्रेजों से खरीद लिया , जो सिखों के आहत होने का सबसे कारण बना। इस युद्ध के बाद 1848 की शुरुआत में पंजाब के हालात और गरमा गये।
खालसा दरबार के ही एक महत्वपूर्ण हिस्से मुलतान की देखरेख दीवान मूलराज के हाथ में थी और युद्ध के बाद वह अपने को मुलतान का अधिपति समझने लगा था। उसने कर वसूलने आए कुछ अंग्रेज की हत्या करवा दी, जिससे स्थिति बेकाबू हो गयी और सिखों की फौजी टुकड़ियां बागियों के खेमे में जमा होने लगीं। हजारा के खालसा सरदार चतर सिंह अटारीवाला के तेवर भी बगावती होते जा रहे थे। नवम्बर आते-आते पंजाब में अंग्रेजों और सिखों के बीच दूसरे और निर्णायक युद्ध की जमीन तैयार हो चुकी थी, जिसका नतीजा कुल मिला कर अंग्रेजों के पक्ष में रहा।
सबसे पहले मुलतान की लम्बी घेरेबंदी के बाद 22 जनवरी 1849 को मूलराज ने हथियार डाले और फिर 12 मार्च को चतर सिंह और उसके बेटे शेर सिंह ने रावलपिन्डी के समीप अपनी 20 हजार फौज के साथ हथियार डाल दिये। इस युद्ध में खालसाकी हार में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही अफगानिस्तान के दोस्त मोहम्मद खान की, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ भेजी अपनी सेना को ऐन मौके पर वापस बुला लिया। 30 मार्च को दलीप सिंह ने लाहौर में आखिरी बार अपना दरबार कर पंजाब अंग्रेजों के हवाले करने के दस्तावेज पर दस्तखत कर दिये, जिसके लिये लॉर्ड डलहौजी को ब्रितानी संसद की तरफ से साधुवाद और बधाइयों का पुलिंदा हासिल हुआ। पंजाब का इस तरह हाथ से निकलना खालसा सिखों के मन में पुरबियों के प्रति जबरदस्त कसक पैदा कर गया, जिन्होंने हर युद्ध में अंग्रेजों के साथ मिल कर उनकी तबाही में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी।इसके बावजूद यह कहना कि 1857 की स्वाधीनता की लड़ाई से पंजाब बिल्कुल अछूता रहा, गलत है।
हरबंस सिंह नूर ने अपनी किताब सेपॉय म्यूटिनी ऑफ 1857 : पंजाब एंड सिख में ऐसे कई उदाहरण दिये हैं कि सतलज दोआब को छोड़ पंजाब के बाकी हिस्सों के सिखों के तेवर अंग्रेजों के पक्ष में कतई नहीं रहे, इसीलिये विभिन्न जगहों पर उनका बाकायदा कत्लेआम किया अंग्रेजी फौज ने। उन्होंने इस किताब में अंग्रेजों का साथ दे रहे पंजाब के राजाओं-महाराजाओं और उनकी रियाआ के मतभेदों को उजागर करते हुए लिखा है--मई 57 में विद्रोहियों की कमान संभालने के बाद बहादुर शाह जफर ने पटियाला के महाराजा नरिंदर सिंह को एक फरमान भेजा---आपके खानदान से हमारे पुराने ताल्लुकात रहे हैं, जितनी जल्दी हो आप अपनी सेना के साथ हमसे मिलें----- महाराजा ने संदेश चीफ कमिश्नर बर्नेस को भिजवा दिया। इतना ही नहीं, विद्रोहियों से निपटने के लिये उन्होंने अंग्रेजों को पांच लाख रुपये, आठ तोप और पांच हजार सैनिक भी सौंप दिये। महाराजा पटियाला के इस कृत्य को तो स्वंय कार्ल मार्क्स ने शर्मनाक बताया है।
जींद, नाभा के राजाओं और करनाल के नवाब ने भी अंग्रेजों की तन-मन-धन से मदद की। इधर, लाहौर में बगावत की खबर पहुंचते ही चार-चार हिंदुस्तानी रेजीमेंटों से हथियार डलवा दिये गये और शहर में हिन्दु-सिखों को मारा जाने लगा। कुछ ही दिन बाद फिरोजपुर और पेशावर में भी यही हुआ। देशी सैनिकों को अपनी जान की चिंता सताने लगी। कुछ भाग भी निकले, लेकिन सबको पकड़ कर काट डाला गया। एक ब्रितानी इतिहासकार स्टेनले वोलपर्ट ने तो यहां तक लिखा है कि अंग्रेज सैनिकों ने ग्रामीणों और अपने घरों में काम करने वाले नौकरों को भी नहीं बख्शा।
पेशावर में सबसे पहले अपनी बैरेक छोड़ कर भागने वालों में शामिल एक सूबेदार मेजर को पकड़ कर सबके सामने फांसी पर लटका दिया गया। होती मरदान में विद्रोहियों में शामिल होने को भागे 55वीं रेजीमेंट के जवानों का पीछा कर 120 को मार डाला गया और 150 को पकड़ कर यातनाएं दी गयीं। पेशावर में ही एक परेड के दौरान हजारों नागरिकों और सैंकड़ों फौजियों के सामने पकड़े गये 150 सैनिकों में से 40 को गोलियों से भून दिया गया। जुलाई 1857 में लाहौर की जेल तोड़ कर भागे सौ से ज्यादा जवानों का कत्ल कर दिया गया।
अमृतसर के डेपुटी कमिश्नर कूपर ने तो क्रूरता की सारी हदें ही पार कर दीं। उसने बकरीद पर बकरों की जगह 282 इनसानों को कटवा दिया। मामला शांत हो जाने के बाद नौकरियों से निकाल दिये गये मजहबी सिखों ने पायनियर कोर (बाद में ट्वेंटीफोर्थ पंजाबीस) का गठन किया, जो क्रिश्चियनिटी के खिलाफ गांव-गांव में अलख जगाती और ईसाई बने सिखों को वापस लाने का काम करती।
1858 में फ्रेडरिक एंजिल्स ने लिखा था कि सिख कभी भी अपना खोया साम्राज्य वापस लेने का प्रयास कर सकते हैं। उनकी भाव-भंगिमा अंग्रेजों के अनुकूल कतई नहीं है। उन्हें पता है कि अंग्रेज उनकी मदद के बिना भारत में पांव नहीं जमा सकते। अंग्रेज और सिखों में हुए मुडकी, फिरोजपुर और अलीवाल के युद्धों में अंग्रेज कभी बीस साबित नहीं हुए। अगर सिख फौज के सेनापति ने गद्दारी न की होती तो अंग्रेज पंजाब पर कभी कब्जा नहीं कर सकते थे। एंजिल्स के अनुसार सिखों की बोली पुरबियों जैसी निकलने लगी है। उन्हीं दिनों डेरा इस्माइल खान में तैनात सिख रेजीमेंटों के क्रिया-कलाप पर एंजिल्स लिखता है कि लड़-कट मरने में सबसे आगे रहने वाली सिख जाति कभी भी भरोसेमंद नहीं है। उसके लिये ब्रिटिश राज में ज्यादा दिन रह पाना संभंव नहीं है। सिखों की तमन्ना अंग्रेजों को हटा कर खुद दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने की है।
एंजिल्स की यह सोच 20 वीं सदी की शुरुआत में सही साबित हुई, जब अंग्रेजों के खिलाफ पंजाब ने देश हो या विदेश, दोनों जगह जबरदस्त मोर्चा संभाला।इस प्रकार 1857 का सच यह है कि बगावत कुचलने के लिये अंग्रेजों को पंजाब से जो भी मदद हासिल हुई, वह विशेष तौर पर सतलज दोआब से हुई, क्योंकि उस क्षेत्र के सभी राजा किसी न किसी संधि के तहत अंग्रेजों से बंधे हुए थे। उन सभी ने कभी न कभी मुगल साम्राज्य से लोहा लिया था। महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पंजाब में एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना के बाद ही उनके दिन बहुरे थे, जिसके नष्ट हो जाने के बाद वे फिर से दिल्ली की गद्दी पर किसी मुगल बादशाह को नहीं देखना चाहते थे।
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