शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

सन् 1857 वाया मंगल पांडे बनाम जहां शाख शाख पर .....

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इस बार के नर्मदा प्रवास में एक सुबह मिलना हुआ जबलपुर के एक जाने माने डॉक्टर से, जो शहर के संघ प्रचारक भी हैं। इतिहास पर बात चली तो उनका हिंदु गुणगान शुरू हो गया। सत्तावन की ग़दर पर वो सावरकर जी कि ही भाषा निकाल रहे थे। जब उनके सामने तर्क रखने शुरू किये तो यहाँ से वहां और वहां से यहाँ होने लगे। अंत में बोले... आप सही कह रहे हैं लेकिन हमारे युवाओं को गौरवशाली इतहास की जरूरत है....... गौरवशाली इतिहास.....यानी कुछ भी सच न हो....कड़वा तो बिलकुल ही नहीं...फिर उन्होंने ज्ञान की एक बात और बघारी-----यह गलत धारणा है कि अंग्रेजों ने सत्ता मुगलों से हासिल की थी । अंग्रेजों को यह देश मिला मराठों से। ......अब तो चुल्लू भर पानी में डूब मरिये डॉक्टर साहेब......मैं जो कहने से बच रहा था आपने वही बात अपने मुखारबिंद से निकाल दी ......कि उस समय के असली गद्दार कौन थे......उस समय अंग्रेजों से जूझ रहा था केवल हैदर अली..... और उसका बेटा टीपू सुलतान....मराठे तो चालें चल रहे थे कि किसकी जेब काटी जाए.....असलियत में वे पिंडारी बने हुए थे... जाते जाते एक बात और सुनते जाएँ डॉक्टर जामदार कि आज गंगा को तबाह हिंदु ही कर रहे हैं.......और गाये कटने को जिन ट्रकों में लाद कर नेपाल ले जाई जाती हैं.....उनके ज़्यादातर ठेकेदार संघ परिवार के नुमाइंदे होते हैं......मेरठ में जो एशिया का सबसे बड़ा स्लाटर हॉउस है, भले ही उसको चलाने वाले मुसलमान हों.....लेकिन उसके खिलाफ मुंह बंद रखने के लिए काफी मोटी रकम संघियों और बीजेपी वालों को भी जाती है.........अब चलें इस राष्ट्र के गौरवमय इतिहास की ओर......
आप सबसे गुजारिश कि एक बार में पूरा न दे पाने की वजह से लेख को दो भाग में देने की मजबूरी है...अगला भाग नीचे देखें







राजीव मित्तल

देश-दुनिया की खबरों से बेखबर नरक-स्वर्ग के पचड़े में पता नहीं किन युगों से फंसा भारतीय समाज सदियों तक अपनी ‘गौरवमयी जड़ता’ में इस कदर डूबा रहा कि उसे भविष्य को भांपने, अपने समय की घटनाओं को झांक कर देखने या उन दिनों के नामी-गिरामी सुधिजनों को उन्हें लिपिबद्ध करने की जरूरत ही कभी महसूस नहीं हुई। लिखा भी तो चंदबरदाई जैसे चारणों ने, जो किसी पब्लिक रिलेशन ऑफिसर वाला कारनामा बन कर रह गया। लेकिन भारतवर्ष नामाराशि वाले इस देश के ढाई हजार सालों का जर्रा-जर्रा उन परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से भरा पड़ा है, जिनसे पता चलता है कि भारत या हिन्दुस्तान एक भूखंड का नाम जरूर था लेकिन देशवासियों के लिये, खास कर शासक वर्ग के लिये यह कभी राष्ट्र नहीं रहा था (आर्यावर्त नाम का कुछ था तो जुरूर पौराणिक, लेकिन वो पुरानों तक ही सीमित है )।

चूंकि राष्ट्र का संबंध केवल भावना से ही नहीं भौतिकता से भी जुड़ा है, जो इहलोक-परलोक के ‘कर्मकांडी अध्यात्म’ में बुरी तरह फंसे हिंदु समाज के लिये बहुत मायने नहीं रखता था। इस सोच में 1857 के मार्च महीने में भी कोई बदलाव नहीं आया था। तो जब जहन में राष्ट्र की कोई परिकल्पना ही नहीं थी, तो माफ करना सावरकर जी, फिर कैसी देशभक्ति और कैसा 1857 में भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम! हां, बेहद निजी किस्म की वीरता से भरपूर कारनामों के चलते और टिकट खिड़की की एकछत्र बादशाहत को देखते हुए हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं के लिये अनेक युद्धों और ‘स्वतन्त्रता संग्रामों ’ में से निकालने को मंगल पांडे या पृथ्वीराज चौहान जैसे जायकेदार चरित्रों की कोई कमी कभी नहीं रहने वाली।

भारत के इतिहास में सन् 1857 का साल बेहद अहम् स्थान रखता है। सैनिक विद्रोह, गदर या फिर आजादी की पहली लड़ाई-इनमें से कोई भी नाम मार्च 1857 से अगले साल सितम्बर के महीने तक चले घटनाक्रम को दिया जा सकता है। कुल मिला कर नतीजा यही निकला कि ईस्ट इंडिया कम्पनी भारतीय परिदृष्य से लापता हो गयी और अगले नब्बे साल का भारत को गुलाम बनाये रखने का पट्टा इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया और उनके वंशजों को बैठे बिठाए मिल गया।

इस उपमहाद्वीप को डेढ़ सौ साल के अंदर ही पूरी तरह गुलाम बना देने वाली ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के कारकूनों ने मुगल बादशाह अकबर के शासन के अंतिम वर्षों में पुर्तगालियों और डचों की देखादेखी हमीं क्यों पीछे रहें वाली भावना के साथ भारत में कदम रखा था। 1612 में जहांगीर के दरबार में कोर्निश बजाते-बजाते सर टॉमस रो को सूरत में फैक्टरी डालने की मंजूरी मिल गयी। पटसन और मसाले बेचते-बेचते यह कम्पनी कुछ सालों में ही बारूद और बंदूक-तमंचों की तिजारत करने लगी। लेकिन औरंगजेब के समय तक उसकी इतनी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह भारत के राजनीतिक अखाड़े में कूदती। काफी समय तक अंग्रेज मद्रास तक ही सीमित रहे।

लेकिन औरंगजेब का इंतकाल (1707) होते ही भारत की केन्द्रीय सत्ता बेहद कमजोर हो गयी, जिसका फायदा उठाने को ईस्ट इंडिया कम्पनी तैयार ही बैठी थी। मकसद था ज्यादा से ज्यादा कच्चा माल उलीचना लेकिन जब देखा कि इस देश को गुलामी की जंजीरों से जकड़ने के सारे हालात पेड़ों पर पके आम की तरह लटक रहे हैं (और माली का कोई अता-पता नहीं) तो उसने चोला बदला। जहां दो राजाओं को लड़ते देखती, कम्पनी बिल्ली की भूमिका में आ जाती। दक्षिण में अपने अरमानों को परवान चढ़ा कर औरंगजेब के जाने के पचास साल बाद ही (1757) वह पलासी के आम के बगीचे में उतर पड़ी और करीब 25 गुना सैन्य क्षमता वाले बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को देशी गद्दारों के बल पर मात दे अपनी साजिशों को अंतिम रूप देने में जुट गयी।

उस लड़ाई में अगर नवाब का मीर बख्शी और रिश्ते में चाचा मीर जाफर का एक भी सैनिक गोली दाग देता तो कम्पनी को मद्रास भागने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था या बंगाल के मारवाड़ी साहूकार सेठ अमीचंद और जगत सेठ ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक बड़े अफसर रॉबर्ट क्लाइव के लिये अपनी तिजौरी का मुंह न खोल देते तो उसके पास अपने सेना के घोड़ों को घास तक खिलाने के पैसे नहीं थे। लेकिन सब कुछ पहले से तय था और नवाब की 50 हजार पैदल और 20 हजार घुड़सवार सेना कम्पनी के उन तीन हजार सैनिकों के सामने दुम दबा कर खड़ी रही, जिसके दो हजार जवान भारतीय थे। इतना ही नहीं, पचास बड़ी तोपों का बारूद खुले में इस तरह पड़ा था कि बारिश की पहली बौछार में ही भीग कर लुगदी बन गया। इस लड़ाई को भारत के ही नहीं, दुनिया भर के इतिहास के सबसे शर्मनाक युद्धों में शामिल किया जा सकता है। भारतवर्ष के भाग्य को बदल देने वाले इस युद्ध में दोनों तरफ के कुल जमा 523 सैनिक खेत रहे थे।

अगले सौ साल कम्पनी की मक्कारी, धूर्तता, नोच-खसोट और कन्याकुमारी से कश्मीर व कटक से अटक तक फैले छह सौ ज्यादा भारतीय रजवाड़ों के निकम्मेपन और अय्याशी से लबालब हैं। इन सौ वर्षों में ही इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति के सफल दौर से गुजरा क्योंकि उसकी नौसेना बेहद सशक्त थी और भारत से जहाजों में भर-भर कर आ रहा था कच्चा माल। इस दौरान अंग्रेजों ने जो थोड़ा-बहुत प्रतिरोध झेला, वह दक्षिण भारत में ही झेला, उत्तर भारत के राजा तो तब तक आपस में भी लड़ना भूल चुके थे।

जहां तक राष्ट्र या राष्ट्रीयता का सवाल है, हम भारतीयों का इन दोनों में किसी से भी कैसा भी सम्बंध ईसा के छह सौ साल पहले से ही कभी नहीं रहा था। हां, एक ‘मुलुक’ जरूर होता था और होती थी माथे पर लगाने को उस मुलुक की माटी। मुलुक का क्षेत्रफल चालीस बीघे से लेकर चार कोस तक का होता था। जय हो गांधी बाबा की, जिन्होंने 20 वीं शताब्दी के 21 वें साल में भारतवासियों की आंखें खोलीं कि झांसी देश नहीं है। यहां अंग्रेजों को भी साधुवाद देना पड़ेगा कि अपने स्वार्थ में ही सही, कोने-कोने पर निगाह रखने को प्रशासनिक व्यवस्था कायम करने के लिये उन्होंने एक महादेश को राष्ट्र का जामा पहनाया।

यह सोच कि 1857 का ‘संग्राम’ भारत को अंग्रेजों की गुलामी से निजात दिलाने के लिए हुआ था, तो यह बात ‘आर्यावर्त’ नाम के किसी पौराणिक देश, जिसमें पुष्पक विमान उड़ा करते थे, मिसाइल छोड़ी जाती थीं, कोई राजा 10-10 हजार पुत्रों का बाप हुआ करता था, कोई ऋषि पूरे समुद्र का जल पी जाया करता था, जैसी महिमाओं का सामूहिक गान करने वालों और ईश्वर नाम की किसी अज्ञात और अशरीरी ताकत से हमेशा डरे रहने वालों और पत्थर के प्रति आस्था पालने वालों के लिए काफी मुफीद बैठती है। उस पर केतन मेहता ने आमिर खान को मंगल पांडे बना कर 1857 के भोथरे रोमांच को और रंगीन व चमक-दमक वाला बना दिया।

लंदन में इन दिनों एक व्यक्ति गुपचुप एक ऐसे सिद्धांत पर काम कर रहा है, जिसके नाम से ही हर कोई दूर भागता है और भागना चाहता है, वह है वास्तविक्ता का सिद्धांत। यानी जो है उसे बिना आवरण, बिना आडम्बर के बेलौस, जस का तस स्वीकार करना। अब अगर हम इस सिद्धांत के जरिये द्वापर काल से शुरू कर सन् 1857 के मंगल पांडे और इन पांच-छह हजार सालों के दौरान इस देव भूमि पर जन्मीं ‘राष्ट्रभक्त’ विभूतियों के क्रियाकलाप पर नजर डालें, तो सामने जो आएगा उसे स्वीकार करने के लिए दिल पर पत्थर रखने की जरूरत पड़ सकती है।

1857 में हुए प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (सावरकर ने अपनी किताब का यही नाम दिया है) के कई लड़ाकों के नाम इतिहास में दर्ज हो चुके हैं, जो आज भी बड़ी शिद्दत से याद किये जाते हैं। मंगल पांडे के अलावा इनमें प्रमुख हैं अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर, नाना साहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, तांत्या टोपे, बेगम हजरत महल, जनरल बख्त खान आदि आदि। और कम्पनी की कई ब्रिगेड में शामिल लाल-नीली धारियों वाली वर्दी डाटे दो लाख छब्बीस हजार देशी फौज के रहते ऐसा नहीं था कि कुछ हजार अंग्रेज नब्बे साल पहले ही यह देश छोड़ कर न चले जाते।

लेकिन जब लड़ाई झांसी नाम के ‘मुलुक’ के लिए होगी, कुछ हजार पाउंड की सालाना पेंशन के लिए होगी, कारतूसों में गाय या सूअर की चर्बी के लिए होगी और दिल्ली के अस्सी साल के बादशाह की कमर में कहीं से तलाश कर जबरन बांधी गयी तलवार से होगी, दिल्ली की लड़ाई हारने के बाद जिसे पठान जनरल बख्त खां के साथ लालकिले से बच कर निकलना नहीं वरन् अंगरेजों के हाथ पड़ना मंजूर था, आरा के जमींदार कुंवर सिंह की गोते खा रही जमींदारी के लिए और जंगलों में छुप कर रहने की मजबूरी से होगी, उस अवध की सत्ता के लिए होगी, जिसका नवाब बदइंतजामी के चलते कलकत्ता के मटियाबुर्ज में नजरबंद हो, दिल्ली से अंग्रेजों को भगाने के बाद देशी फौज का खाना बनाने के लिये जल रहे अलाव ऊंची-नीची जातियों में बंटे हों, तो इसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कह कर हम केवल खुशफहमी ही पाल सकते हैं, बल्कि इस खुशफहमी में हम जिये भी जा रहे हैं।

सावरकर के मुताबिक अगर मंगल पांडे ने कारतूस को मुद्दा बना कर शहीद होने की जल्दबाजी न की होती और मेरठ में तै तिथि से बीस दिन पहले बग़ावत शुरू न हो जाती तो यह लड़ाई बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से लड़ी जानी थी और विजय पक्की थी। उन्होंने इसमें आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानंद का भी महत्वपूर्ण योगदान दर्शाया है, कि उन्होंने कमल के फूल और रोटी के जरिये देश भर के राजाओं का अंग्रेजों के खिलाफ इस लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया था। चलिये मान लिया, लेकिन यह उससे भी बड़ा सच है कि इस ‘आजादी की लड़ाई’ में देश के बहुत छोटे से हिस्से ने भाग लिया था। उत्तर में हिमालय, पश्चिम में अफगानिस्तान, पूरब में बर्मा और दक्षिण में श्रीलंका वाले तब के भारत में लखनऊ से दिल्ली और लखनऊ से आरा और मध्य भारत का बहुत छोटा हिस्सा ही इस ‘गुबार’ में शामिल थे।

कुल मिला कर इस ‘क्रांति’ को थोड़ा-बहुत लखनऊ और दिल्ली के बीच की पांच सौ किलोमीटर की पट्टी में बसे मुसलमानों ने ही ढोया था क्योंकि इस देश की केन्द्रीय सत्ता अंग्रेजों ने उन्हीं से छीनी थी। कड़वा सच यह भी है कि अंग्रेजों के पैर इस देश में जमाने में मदद करने वाले हिंदू बहुत बड़ी संख्या में थे और वह इसलिए क्योंकि मुसलमानों की आठ सौ साल की गुलामी उन्हें अखर रही थी। खुद नहीं हटा पाए तो अंगरेज ही सही, जिसका उन्हें भरपूर पारितोषिक भी मिला।

उस समय की दो महान लड़ाकू जातियों राजस्थान के राजपूत और पंजाब के जाट सिख शासकों ने तो अपनी जनता की इच्छा का गला घोंट कर इस कथित स्वतंत्रता संग्राम की गन्ध और गर्द तक अपने इलाके में नहीं घुसने दी...... क्योंकि शहंशाह अकबर अपने जीते जी राजपूत राजाओं को आगरा के मुगल दरबार में हर वक्त कमर झुकाये रहने की आदत लगा गया था, या शाही खानदान की औरतों के महलों की रखवाली करने का काम सौंप गया था (चौकीदारी का यह काम जयपुर के राणा संवाई जयसिंह, बुन्देला लोक गीतों के नायक वीर छत्रसाल और राठौरों के महाराजा जसवंत सिंह ने शाहजहां और औरंगजेब के जमाने में बखूबी किया)। अंग्रेजों और हिन्दू-सिख राजाओं का यह हनीमून सन् 1947 के बाद तक बगैर बाधा के चलता रहा।

राजपूत राजाओं ने तो वैसे भी अंग्रेजों के खिलाफ कभी तलवार उठायी ही नहीं। सच तो यह है कि उनकी तलवार का रहा-सहा पानी अकबर के समय ही सूख चुका था। बचे सिख, तो महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद पंजाब को हथियाने के कम्पनी के अभियानों में देशी सैनिकों के खुल कर हिस्सा लेने से उनके दिलों में ‘पूरबियों’ से बदला लेने की सोच ज्यादा प्रबल थी। और औरंगजेब को थर्रा देने वाले मराठा, पेशवा बाजीराव प्रथम के मरते ही किसका साथ दें-किसका नहीं के कन्फ्यूजन में आपस में ही लड़-भिड़ कर तबाह हो गए, जबकि 18वीं सदी के अंतिम 20 सालों में अगर हैदरअली या टीपू सुल्तान को केवल मरहठों की मदद मिल जाती तो अंग्रेज कब का भारत छोड़ कर भाग गये होते। या 1857 में केवल ग्वालियर के सिंधिया ने ही आंखें तरेर दी होतीं तो अंग्रेजों की खैर नहीं थी।

यहां से आगे बढ़ने से पहले हम ईसा के जन्म से करीब डेढ़ शताब्दी पहले फलस्तीन में लड़े गये एक ऐसे युद्ध पर नजर जरूर डालें, जिससे भारत की उस समय की और उसके हजार साल बाद तक की वे स्थितियां स्पष्ट हो जाएंगी, जो बड़ी आसानी से किसी देश को गुलाम बनाती हैं। फलस्तीन में किस तरह 30 साल तक यहूदी किसानों ने अपने बच्चों और औरतों को साथ रख छुरे और भालों के बल पर गांव-गांव, घने जंगलों, रेगिस्तानों, बर्फीले पर्वतों, समुद्र के किनारे कभी एकजुट हो, तो कभी तितर-बितर हो कर लड़ाई लड़ी थी। दुश्मन था उनके देश पर कब्जा जमाने वाला शक्तिशाली यूनानी साम्राज्य, जिसके साथ मिल कर फलस्तीन को उजाड़ने में लगे हुए थे सीरिया के राजा और उसके सैनिक। यहूदी किसान 30 साल लड़ सके और सफल हो सके तो इसलिए कि उनका समाज ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं और आगे-पीछे एक समान था, जिसमें आस्था तो थी, लेकिन कैसा भी अंध-विश्वास नहीं था, न कोई ब्राहमण था न कोई दलित। पुरोहित पूजनीय था, लेकिन उसके साथ, यहां तक कि उसकी थाली में कैसा भी कर्म करने वाला व्यक्ति बैठ कर खा सकता था, वह किसी के भी झूठे गिलास से पानी के या शराब के दो घूंट भर सकता था। उनका सबसे बड़ा पुरोहित भी बैठ कर या दान में मिले धन से जीवन यापन नहीं करता था। वह खेत जोतता था और हाड़ तोड़ मेहनत करता था। समाज में सब को सब कुछ कहने का हक दिया हुआ था। घर, परिवार और समाज में औरतों को बराबर के अधिकार थे। लड़ाई में शामिल हर व्यक्ति सेनानायक था और हर व्यक्ति सैनिक। हर किसी को तर्क-वितर्क करने का पूरा अधिकार था।

आइये, अब हम काफी पीछे लौट कर कृष्ण के द्वापर युग का हल्का सा जायजा लें, जिससे पता चलता है कि पांच हजार साल पहले भी इस देश के राजा एक-दूसरे की ईंट से ईंट बजाने के लिये क्या कुछ नहीं कर गुजरते थे और तब का चला यह सिलसिला आगे के हजारों साल बदस्तूर जारी रहा। कृष्ण के हाथों कंस के मारे जाने और मथुरा की गद्दी पर कैद कर रखे गये उसके पिता उग्रसेन के बैठने से मगध का प्रतापी सम्राट जरासंध बुरी तरह बौखला गया क्योंकि कंस उसके महासंघ का प्रमुख स्तम्भ था। कृष्ण को नेस्तनाबूद करने के लिये जरासंध को अपना साथ देने वाले राजाओं की भीड़ कम लगी और उसने मध्य एशियायी कबीले के आततायी कालयवन को न्योता भेज, मथुरा पर आक्रमण कर दिया। कृष्ण ने आनन-फानन में सारे मथुरावासियों को हजारों मील दूर द्वारका भिजवाया। और फिर कैसे उन्होंने जरासंध की साजिश को विफल किया, और कैसे कालयवन को मारा-यह एक लम्बी गाथा है।


उसके बाद काल का पहिया हजारों साल बाद आ कर रुकता है जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़ियां करती हैं बसेरा - वो भारत देश है मेरा..... पर। यह उस बम्बइया फिल्म का गान है, जिसमें पोरस ने सिकन्दर से लोहा लिया था। इसी फिल्म में युद्ध जीतने के बाद सिकन्दर बने दारासिंह ने पंजाबी लहजे में पूछा-बताओ तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए तो जंजीरों में बंधे पृथ्वीराज कपूर का पेशावरी लहजे में कड़कड़ाता जवाब था-जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। ईसा से 326 साल पहले के भारत की पश्चिमी सीमा पर झेलम नदी के इस किनारे, जहां राजा पुरुषोत्तम (पोरस) की जागीरदारी थी, ईरान को जीतने के बाद सिकन्दर ने इसी रास्ते भारत में घुसना चाहा, जिसका पोरस ने प्रतिरोध किया। लेकिन अकेले दम। उसकी मदद को इस देश का एक भी राजा आगे नहीं आया। पहले तो सहोदर आम्भि ने ही विश्वासघात किया, जिसका नाम सिकन्दर को न्योतने में लिया जाता है। फिर चूंकि सिकन्दर ने दूर-दराज सीमा प्रांत के राजा पर हमला किया था, इसलिये मगध सम्राट महापद्मनंद या देश के अन्य महान राजाओं की जेब से क्या जा रहा था या उन पर कौन सी आफत आनी थी, इस सोच के साथ सब मस्ती की नींद सोते रहे। झेलम नदी के किनारे सिकन्दर का सामना करने को रह गया अकेला पोरस। सिकन्दर का सामना करने के लिये पोरस के पास फौज-फाटा कम नहीं था, दो सौ जंगी हाथी भी थे। भीषण बरसात की रात में जब पोरस को कतई उम्मीद नहीं थी, सिकन्दर के घोड़ों ने उफनाती झेलम में कदम रखे और निश्चिंत हो चली पोरस की फौज पर आक्रमण कर दिया। सबसे पहले हाथियों को ही निशाना बनाया और पगलाए हाथियों ने अपनी ही सेना को रौंदना शुरू कर दिया। यह युद्ध जीत कर सिकन्दर दो सौ मील दूर बह रही गंगा को पार कर पूरे भारत की धूल अपने घोड़े के खुर से उड़ाने की फिराक में था, लेकिन उसके सेनानायकों और सैनिकों ने वापस लौटने को बगावत कर दी और सिकन्दर पंजाब से ही लौट लिया। अगर तब भारत उसके चंगुल में फंस जाता तो हो सकता है कि आज भारत के बड़े हिस्से में यूनानी भाषा भी बोली जा रही होती। औलादें तो कई घूम रहीं हैं।

(यहाँ पर हाथी नाम के उस विशालकाय जीव का जिक्र भी कर लिया जाए, जो यजमान का इहलोक सुधारने और परलोक को स्वर्गमय बनाने वालों की आध्यामिक इच्छा के चलते हिन्दुस्तानी राजाओं की सेना का लम्बे समय तक महत्वपूर्ण अंग रहा। कलयुगी राजाओं के दिमाग में यही भरा गया कि हाथी देवताओं के राजा इंद्र के वाहक ऐरावत का अवतार है, और राजा का स्थान इंद्र जितना ही ऊंचा है। घोड़ा तो मलेच्छों की सवारी है। इस कारण आगे हुए कई बाहरी आक्रमणों के सामने भारत को मुंह की इसलिये खानी पड़ी क्योंकि हाथी के हौदे पर सोने के छत्र के साये में अपना झंडा फहराये बैठा राजा दुश्मन का तीर खा जाता, झंडा झुक जाता और राजा को ओंधा पड़ा देख जीत के कगार पर खड़ी उसकी सेना मैदान छोड़ देती।)


फिर स्थापित हुआ मौर्य साम्राज्य, जिसके प्रताप से कुछ सैंकड़ा साल बाहरी आक्रमणों से बचा रहा भारत। वैसे देश के अंदर आपस में ही भीषण खून-खराबा होता रहा और जब सम्राट अशोक ने कलिंग विजय के दौरान एक बार में ही लाखों गर्दनें कटवा दीं, और फिर वह अहिंसक बन बौद्ध धर्म की शरण में चला गया। उसके बाद शुरू हुआ ब्राहमण समाज और बौद्धों के बीच हजार साल तक चलने वाला संघर्ष क्योंकि दोनों की जीभ को सत्ता से फायदा उठाने का स्वाद लग चुका था। इस संघर्ष में जिस तरह कदम-कदम पर देश के साथ विश्वासघात किया गया, उसके चलते ही भारत अगले एक हजार साल तक के लिये गुलाम बना।

मौर्य वंश के अंतिम दिनों में बाहर से शक और कुषाण आए, जो यहीं के हो कर रह गये। फिर गुप्त साम्राज्य का स्वर्ण युग आया, जो एक सौ साल चला। तभी मध्य एशिया के हूणों के ताबड़तोड़ हमलों ने गुप्त साम्राज्य को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। यहीं से प्रारम्भ होती हैं ब्राह्मणवादी व्यवस्था की साजिशें।

ब्राहमण समाज सम्राट अशोक के समय में शुरू हुए बौद्धों के बढ़ाव से बुरी तरह बौखलाया हुआ था। क्योंकि इसके चलते उसकी जीविका के साधनों पर खतरा मंडराने लगा था। ईश्वर प्रदत्त जाति-वर्ण व्यवस्था, देवी-देवताओं का भय और नरक-स्वर्ग की अवधारणा गढ़ ब्राहमणों ने एक ऐसी व्यवस्था की बुनियाद बुद्ध के जन्म से काफी पहले ही डाल दी थी, जिसमें अगले हजारों साल तक पूरे हिन्दू समाज को अपने शिकंजे में जकड़े रखने का जबरदस्त माद्दा था, पर जिसमें राष्ट्र कहीं नहीं था। बौद्धों का समूल नाश ही ब्राहमणों का एकमात्र उद्देश्य था और इसके लिये इस दौरान जितनी विदेशी जातियों ने भारत पर हमला किया, उन्हें किसी न किसी रूप में ब्राहमणों का आशीर्वाद मिला। बदले में आगे चलकर बौद्धों ने भी यही किया। बौद्धों को मटियामेट करने में पूरी मदद न पहुंचाने के लिये ब्राहमण गुप्त राजाओं से निराश हो चुके थे, सो हूण सेनानायकों मिहिरकुल और फिर तोमरमाण की संतानों से मिल वे बौद्धों को खत्म करने की जुगाड़ में लग गये। इससे पहले मौर्य राजा बृहद्रथ और कुषाण वंश के महाप्रतापी सम्राट कनिष्क को तो खुद उनके ब्राहमण मंत्री ही गला दबा कर परलोक भेज चुके थे, क्योंकि वे दोनों बौद्ध थे। ब्राहमणों ने जंगली हूणों का कायाकल्प किया और उन्हें राजपूत शब्द से सुशोभित किया।

उसके बाद बौद्ध अनुयायी सम्राट हर्षवर्धन के समय को छोड़ अगले दो सौ साल ब्राहमणों का समय हूणों को अपने मनमुआफिक बनाते बीता। सातवीं शताब्दी के मध्य में जब मोहम्मद साहब अरब धरती पर इस्लाम का प्रचार कर रहे थे, उत्तर भारत का एक बड़ा हिस्सा राजपूत राजाओं के आगोश में आ चुका था और बौद्धधर्म विहारों में सिमटता जा रहा था। बौद्ध भिक्षुओं की हत्या का दौर तो महात्मा बुद्ध के रहते ही शुरू हो चुका था, राजपूतों के पैर जमाने के साथ ही उन पर कहर बरपना शुरू हो गया। इसका बदला बौद्धों ने इस्लाम का प्रचार कर रहे अरब आक्रमणकारियों का साथ दे कर लिया। हालांकि हजारों बौद्ध फिर से हिन्दू धर्म में आने को तैयार थे, लेकिन उस दरवाजे पर ब्राहमणों ने ताले जड़ दिये थे। इस्लाम की शुरुआत में ही इस रार का खामियाजा उठाना पड़ा सिंध के राजा दाहिर को। जब खलीफा के आदेश पर उसके भतीजे मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया तो उसे बौद्धों का साथ मिला। दाहिर मारा गया और सिंध अरबों के हाथों में चला गया, जिससे अफगानिस्तान से लेकर पंजाब तक का हिस्सा विदेशियों के बेरोकटोक घुसने का रास्ता बन गया। कभी यही इलाका बौद्ध धर्म का गढ़ था। ब्राहमणों से दुश्मनाई के चलते बौद्धों ने आक्रमणकारियों का कोई प्रतिकार न कर उनका स्वागत ही किया।चूंकि ब्राहमणों के लिये बौद्ध मलेच्छ थे, हिन्दु धर्म में उनकी वापसी असंभव थी, जिसका खामियाजा करीब एक हजार साल पहले कश्मीर को भुगतना पड़ा।
पार्ट एक ख़त्म


पार्ट दो शुरू
आठवीं शताब्दी में सिंध को हथियाने के बाद अरबों के आक्रमण कश्मीर पर शुरू हुए। लेकिन 713 में सम्राट चंद्रपीड ने, 724 में सम्राट ललितादित्य ने अरबों को मात दी। सन् 754 में भी अरब आक्रमण विफल रहा। करीब दो सौ साल बाद महमूद गजनवी ने भी कश्मीर पर दो बार आक्रमण किया लेकिन दोनों बार हारा। फिर उसने कश्मीर के नाम से तौबा ही कर ली। उसी कश्मीर में जब तुर्क आये तो उनके लिये माहौल मनमुआफिक था। 12 वीं शताब्दी में राजा सहदेव के समय कश्मीर में सूफियों का प्रवेश हो चुका था। मुल्ला-मौलवी भी कदम धर चुके थे, इस्लाम धर्म की हल्की सी बयार बहने लगी थी, तभी वहां तिब्बत से भागा एक राजकुमार रिंचन आ पहुंचा। राजा सहदेव ने उसे शरण दी। वह हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था, लेकिन कश्मीरी पंडितों ने साफ मना कर दिया। मजबूर हो कर रिंचन इस्लाम धर्म में चला गया और फिर कश्मीर का सांस्कृतिक और भौतिक कायाकल्प करने में उसने तुर्कों का पूरा साथ दिया।

यहां यह बताना इसलिये जरूरी लगा, क्योंकि 17 वीं शताब्दी में अंग्रेजों के आने तक राजपूत-ब्राहमण गठजोड़ भारत नाम के तथाकथित राष्ट्र की तथाकथित राष्ट्रीयता को जबरदस्त नुकसान पहुंचा चुका था।छठी और सातवीं सदी में जो जबरदस्त बदलाव आये, उसके फलस्वरूप इस देश की मजबूत केन्द्रीय सत्ता गुप्त वंश के अंतिम दौर में ही गर्त में चली गयी, और जो भारत कुछ बड़े साम्राज्यों में सिमटा हुआ था, खंड-खंड हो कर कई छोटे-बड़े राजाओं में बदल गया।..........................................................


यही वह दौर है जब राजपूत जाति परवान चढ़ी। राजपूत राजाओं के छोटे-बड़े कई सारे ‘देश’ राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, पंजाब और मध्य भारत में स्थापित हो चुके थे। इनमें चौहान, प्रतिहार, सोलंकी, पवार, राठौड़, सिसोदिया, परमार, चेदि, चंदेल आदि महत्वपूर्ण वंश शामिल हैं। सब खूब ताकतवर थे, किसी की सेना एक लाख से कम नहीं थी। लेकिन सबकी तलवारें एक-दूसरे पर ही चमकती थीं। इन सब राजाओं के धर्मगुरु-पुरोहित-मंत्री ब्राहमण ही थे, जिसके चलते हर ‘देश’ जबरदस्त कर्मकांड और अंधभक्ति और अंध-विश्वासों का शिकार हो चुका था। राजा किसी देवता का अवतार था, तो मंत्री किसी पौराणिक महर्षि का। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय वैष्णवों और शैव्यों में ‘शिव बड़ा कि विष्णु’ को लेकर घमासान चल रहा था। राजपूत राजा भी इन दो सम्प्रदायों में बंटे हुए थे। दोनों के बीच दुश्मनी इस हद तक पहुंच गयी थी कि सरे आम कढ़ाहों में खौलते तेल में एक-दूसरे के अनुयायी भूने जा रहे थे। हजार साल पहले राजपूत काल में जब पहला विदेशी आक्रमण (महमूद गजनवी का) हुआ, तब सारे देश का करीब-करीब यही हाल था।


इस दौरान धुर दक्षिण के चोल, चालुक्य और पांड्य, मध्य भारत की ओर खिसकने पर राष्ट्रकूट, होयसल, यादव और काकतिया वंश कई मायनों में राजपूतों से ज्यादा बलशाली, वैभवशाली और ज्यादा बड़े इलाकों के अधिपति थे। चोल और पांड्यों ने तो समुद्र पर निकल आज के इंडोनेशिया, थाईलैंड और कम्बोडिया तक चढ़ाईयां कीं। और चालुक्य वंश के पुलकेशिन ने हर्षवर्धन जैसे प्रतापी राजा के घोड़े विंध्य को पार नहीं करने दिये थे। विशाल महल और मंदिर बनवाने की तो जैसे होड़ सी मची हुई थी इन वंशों में। लेकिन ज्यादातर युद्ध आपसे में ही लड़े गये, तलवारें किसी बाहरी दुश्मन को नहीं, इन्हीं वंशों के बीच खनकती रहीं और एक-दूसरे को कमजोर करती रहीं। एक के बाद एक वंश सम्राट से राजा और राजा से जागीरदार की हैसियत में खिसकते गये, जो बचा-खुचा था, 13 वीं शताब्दी में दिल्ली की खिलजी सल्तनत ने पूरी तरह तहस-नहस कर दिया। यही हाल बंगाल के पाल, सेन और बर्मन राजवंशों का हुआ। इनमें से किसी को दसवीं सदी से पश्चिमी सीमा प्रांत पर शुरू हुए तुर्कों के हमलों, या देश के ह्दय स्थल में लड़ी गयी लड़ाइयों से कभी कोई मतलब नहीं रहा। न कभी किसी ने सेना भेजी, न कोई लड़ने आया। राजपूतों राजाओं के दिमाग में भी कभी नहीं आया होगा कि विंध्याचल पार का इलाका भी इसी देश में आता है।

पहली शताब्दी में महमूद गजनवी के आक्रमणों की शुरुआत के बाद अगले साढ़े आठ सौ साल तक हुए कई युद्धों में वीरता और ताकत के मामले देशी सेनाएं दुश्मन पर भारी पड़ीं, लेकिन नतीजे में हार ही पल्ले पड़ी। कारण भी देख लिये जाएं। सन् 1001 में अफगान महमूद गजनवी को रोकने के लिये भारत के प्रथम प्रवेश द्वार हिन्दुकुश के राजपूत राजा जयपाल ने खासी तैयारी की थी। पिछले साढ़े तीन सौ साल से आपस में ही मर-कट रहे राजपूतों में जयपाल पहला राजा था (सिंध का राजा दाहिर राजपूत नहीं था), जिसका मुकाबला विदेशी फौज से था। उसकी सेना में तीन सौ हाथी भी थे। लेकिन यही हाथी उसकी हार का कारण बने और जयपाल के मुकाबले आधी फौज लेकर आये गजनवी ने अपने घुड़सवारों की गतिशीलता के चलते मैदान मार लिया।

1008 में गजनवी फिर उसी रास्त से भारत में घुसा। इस बार उसका रास्ता रोके था जयपाल का बेटा आनन्दपाल। पिछली बार के मुकाबले और ज्यादा विशाल सेना के साथ। पहली ही मुठभेड़ में गजनवी को मुंह की खानी पड़ गयी। आनन्दपाल की फौज की मार से घबरा कर गजनवी अपने घोड़े का मुंह काबुल की ओर मोड़ने को ही था कि जिस हाथी पर आनन्दपाल सवार था, तीर लग जाने से वह जंग के मैदान से भाग खड़ा हुआ। अपने राजा को भागता देख उसकी सेना में आतंक छा गया। फिर ऐसी भगदड़ मची कि गजनवी की ऊपर अटक गयी सांस नीचे आयी और अब उसके सामने पूरा हिन्दुस्तान था और हिन्दुस्तान में था सोमनाथ मंदिर, जिसकी लूट से उसने पूरे अफगानिस्तान की दरिद्रता दूर कर दी और भारत पर बार-बार आक्रमण करने को खासी बड़ी सेना बना ली।

अब पानीपत के उन तीन युद्धों पर भी एक नजर डालें, जो भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसलिये नहीं कि इन तीनों युद्धों में से किसी एक में भी भारत जीता हो, बल्कि ये तीन युद्ध बताते हैं कि आरपार की लड़ाई में भारतीय राजाओं की मति किस तरह मारी जाती थी। भारत की तरफ से भारी-भरकम सेनाओं के सहारे लड़े गये इन युद्धों में कई देशी राजा बरसों बाद एकसाथ हुए, लेकिन तीनों युद्धों में राष्ट्र का नामोनिशान नहीं था। तीनों पराजयों ने इस देश का भविष्य सींखचे में धकेल दिया।


पानीपत के प्रथम युद्ध में एक तरफ था जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर, जिसने समरकंद और मध्य एशियायी इलाकों में लड़े गये ज्यादातर युद्धों में मात खाने का रिकार्ड बनाया था। आखिरकार उसे कोई ठौर तलाशने के लिये ईरान के शाह से मिन्नत करनी पड़ी। लेकिन उसकी पटरी वहां भी नहीं बैठी और उसे भाग कर काबुल आना पड़ा। काबुल भी उसके मुआफिक नहीं आया। लेकिन वहां से जाता तो कहां जाता! तभी उसे भारत पर हमला करने के लिये कई देशी ताकतों ने आमंत्रित किया उनमें पंजाब के सूबेदार दौलत खां लोदी और दिल्ली के प्रतिष्ठित सरदार हिन्दू बेग के अलावा मेवाड़ के राणा सांगा भी थे। ये सब किसी न किसी वजह से सुल्तान इब्राहीम लोदी से खार खाये बैठे थे। इन सभी को उम्मीद थी कि बाबर की मदद से इब्राहीम लोदी को बेदखल कर सत्ता की बंदरबांट कर लेंगे। लेकिन दर-दर की ठोकरें खाते-खाते अघा गये बाबर का इरादा भारत को ही अपना ठिकाना बनाने का था।

शुरू के छिटपुट हमलों के बाद 1526 के अप्रैल माह में बाबर अपनी 12 हजार सेना के साथ पानीपत के मैदान में आ डटा लेकिन जब उसने लोदी की फौज का आकार-प्रकार देखा तो उसकी रुह फना हो गयी। उसको केवल उन तोपों का सहारा था, जो भारत में पहली बार गोले दागने जा रही थीं। कुछ ही घंटे चले इस युद्ध में लोदी की एक लाख सैनिकों की फौज बाबर की तोपों की मार से पूरी तरह बिखर गयी और सुल्तान के साथ मैदान से भागने लगी, जबकि बाबर जीत के प्रति अंत तक आश्वस्त नहीं था। इब्राहीम लोदी मारा गया और आगरा और दिल्ली पर कब्जा कर भारत में बाबर का रुक जाना राणा सांगा को रास नहीं आया। उसने सभी राजपूत राजाओं को गोलबंद कर चंगेज खान और तिमूर के वंशज को सीकर के पास कन्हवा में ललकारा। एक ही साल बाद बाबर के सामने फिर एक लाख घुड़सवारों और पांच सौ हाथियों की फौज थी। इतना ही नहीं, पहली बार कई सारे राजपूत राजा एक झंडे तले उसका मुकबला करने के लिये जमा हुए थे। बाबर के लिये इस बार करो या मरो का मामला था। उसने अपने सिपहसालारों को खुदा का वास्ता दिया, शराब छोड़ने की कसम खाई और खोल दिये अपनी तोपों के मुंह। इधर, राणा सांगा ने एक साल पहले हुए इब्राहीम लोदी के हश्र से कोई सबक नहीं सीखा था। वही तलवार, वही भाले और वही हाथी। तोपों की मार से बाबर ने अपनी एक चौथाई से भी कम फौज से एक लाख से ज्यादा के जमावड़े को जमीन सुंघा दी। और अब तुर्क-मंगोल मिश्रित रक्त वाला मुगल वंश भारत में धंस चुका था। घाघरा के किनारे 1529 के तीसरे युद्ध में उसने अफगानों को अगले 10 साल के लिये पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया।


पानीपत के युद्धक्षेत्र में दूसरा भारतीय खेत रहा राजा विक्रमादित्य उर्फ राव हेमू, जिसकी हार ने भारत में मुगल साम्राज्य को पूरी तरह स्थापित कर दिया। हेमू यह युद्ध जीतने के कगार पर था, लेकिन हाथी के हौदे ने सब मटियामेट कर दिया। सन् 1556 के अंतिम दिनों में हुए इस युद्ध से पहले तक मुगल सत्ता केवल आगरा और दिल्ली तक ही सीमित थी। दो-तीन साल पहले ही देश के एक बड़े हिस्से पर पठान शेरशाह सूरी का शासन रहा था और उन दिनों मुगल राजवंश का दूसरा बादशाह हुमायूं भाग कर ईरान में पनाह लिये हुए था। वहां वह करीब 10 साल रहा। मुगलों के नसीब ने करवट ली, शेरशाह सूरी कालिंजर के युद्ध में खत्म हुआ और हुमायूं को फिर आगरा के सिंहासन पर बैठने का मौका मिला लेकिन उसका तुरंत ही इंतकाल हो गया। उसे कुछ करने का मौका ही नहीं मिला इसलिये देश का बड़ा हिस्सा अफगानियों के कब्जे में बना रहा।

शेरशाह सूरी के कमजोर वंशज आदिल खान का प्रधानमंत्री था राव हेमू। विदेशी मुगलों को देश से भगाने के लिये उसने जबरदस्त अभियान चलाया और अफगानों व कई सारे राजपूत राजाओं और उनकी फौज को अपने साथ कर लिया। पहले ही झटके में आगरा और दिल्ली दोनों के हाथ में आते ही वणिक राव हेमू ने विक्रमादित्य का जामा ओढ़ अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली।

इस दौरान हुमायूं का 12 साल का बेटा मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर अपने संरक्षक बैराम खां के साथ जलंधर में फंसा हुआ था। यह सुन कर कि राव हेमू के पास पचास हजार घुड़सवार, एक हजार हाथी, 51 तोपें और विशाल पैदल फौज है, घबराहट के मारे अकबर ने काबुल जाने का मन बना लिया, लेकिन बैराम खां अड़ गया और केवल बीस हजार घुड़सवारों के बल पर मुकाबला करने की ठान ली। रणक्षेत्र बना वही पानीपत, जहां तीस साल पहले अकबर के पितामह बाबर ने इब्राहीम लोदी को रौंदा था। हेमू दिल्ली से चला और अकबर जलंधर से। लेकिन इस बीच हेमू की अपनी ही बेवकूफी से सभी तोपें दुश्मन के हाथ लग गयीं। लेकिन तब भी हेमू का पलड़ा भारी था। युद्ध शुरू होते ही देशी फौज अकबर की सेना पर पिल पड़ी और एक समय ऐसा आ गया जब हेमू की जीत पक्की हो चली थी, लेकिन तभी हाथी के हौदे पर बैठ युद्ध का संचालन कर रहे हेमू की आंख में एक तीर जा घुसा और वह हौदे पर गिर पड़ा, उठने की कोशिश की, लेकिन तब तक राजपूत सेना में भगदड़ मच चुकी थी। हेमू पकड़ कर बैराम खां के सामने ले जाया गया और उसने एक वार से हेमू की गर्दन उड़ा दी।


पानीपत का तीसरा युद्ध अफगानों और मराठाओं के बीच लड़ा गया। अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली इस युद्ध से पहले एक बार मुगल सल्तनत की धज्जियां उड़ाते हुए दिल्ली को बुरी तरह लूट कर हजारों औरतों, बच्चों और पुरुषों को ऊंटों पर लाद कर काबुल के बाजारों में बेच चुका था। उसने फिर भारत पर चढ़ाई की, पर इस बार उसका रास्ता रोके खड़े थे एक लाख मराठा सैनिक। फ्रांसीसी तोपों और बंदूकों से लैस। निर्णायक फैसले के लिये फिर पानीपत को ही चुना गया। युद्धक्षेत्र में अब्दाली के पहुंचने से पहले ही वहां मराठा सेना खाई-खंदक खोदे तैयार बैठी थी। दोनों सेनाएं बजाये लड़ने के एक-दूसरे की घेराबंदी कर बैठ गयीं और हल्की-फुल्की झड़प के अलावा दो महीने तक देखा-देखी चलती रही। गड़बड़ी यहीं से शुरू हो गयी। अब्दाली ने स्थानीय कुमुक के लिये पीछे की खिड़की खुली रखी जबकि मराठाओं की रसद वगैरह की सप्लाई के सारे रास्ते बंद हो गये। 14 जनवरी 1761 को युद्ध शुरू हुआ, लेकिन नतीजा वही निकला। अब्दाली के घुड़सवारों ने मराठाओं को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। इस हार के साथ ही देश भर में करीब पचास साल से चला आ रहा मराठाओं का दबदबा पूरी तरह खत्म हो गया। यहां हार का कारण मराठा सिपहसालारों की आपसी रंजिश बनी। मराठा कमान के सेनापति सदाशिवराव भाऊ की अपने भतीजे विश्वास राव से नहीं बन रही थी, जो पेशवा बालाजी विश्वनाथ का बेटा था। सिंधिया से होलकर खार खाये बैठा था, तो गायकवाड़-भौंसले अपनी-अपनी चला रहे थे। सबसे बड़ी बात यह है कि मराठाओं को उत्तर भारत के किसी राजा से कोई मदद नहीं मिली। उन्होंने सालोंसाल जिस तरह मुगल बादशाह और उत्तर भारत के राजाओं से रंगदारी वसूली, उस कारण क्या सिख, क्या जाट, क्या रोहिल्ले और क्या राजपूत-सभी उनसे खार खाये बैठे थे। जबकि अब्दाली को जाटों और रोहिल्ले पठानों से वक्त-वक्त पर मदद मिलती रही।


इधर, 1757 में पलासी की लड़ाई जीत कर अंग्रेजों के हौसले बुलंद थे ही, मराठाओं की इस हार ने उनका इरादा भारत को पूरी तरह हथियाने का बना दिया। तीन साल बाद ही अंग्रेजों ने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के नवाब मीर कासिम की तिकड़ी को बक्सर युद्ध में हरा कर ऐसी संधि को मजबूर किया कि उसके हाथ भारत के एक बड़े हिस्से की दीवानी लग गयी यानी भरपूर पैसा और रुतबा अब दोनों उसकी मुट्ठी में थे। इस लड़ाई के बाद ही अंग्रेजों ने भारत के एक से एक बलशालियों की मिट्टी पलीद करनी शुरू की। पहले पेशवा को निशाना बनाया, फिर सिंधिया को, होल्कर को, और सबसे अंत में महाराजा रंजीत सिंह के मरने के बाद सिखों को। मुगल बादशाहत तो पहले से ही बेदम थी। निजाम को शुरू में ही अंग्रेजों ने अपना पिट्ठू बना लिया था। इस दौरान अंग्रेजों का इरादा मैसूर के हैदरअली और उसका बेटा टीपू सुल्तान ही भांप सके, लेकिन उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी युद्ध में किसी भी देशी ताकत का सहयोग नहीं मिला।

अभी थोड़ा और। फिर पीछे लौट कर जरा उस नायक की तस्वीर का भी नजारा ले लें, जिस पर हर भारतीय को बड़ा गर्व है और जो कभी भी बॉलीवुड की शान बन सकता है।

भारत पर कई हमले बोल कर और सोमनाथ के मंदिर को पूरी तरह लूट कर महमद गजनवी 1030 में मर खप गया। उसके बाद अगले डेढ़ सौ साल तक भारत विदेशी आक्रमणों से बचा रहा। लेकिन देशी राजाओं की आपसी मार-काट जारी रही और उन्होंने अगले विदेशी आक्रमण से निपटने की कोई भी नीति नहीं बनायी, जबकि भारत का प्रवेश द्वार पंजाब उनके हाथ से गजनवी के समय ही निकल चुका था। बारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में अजमेर का राजा पृथ्वीराज चौहान उत्तर भारत की बड़ी ताकत बन चुका था और उसका राज दिल्ली तक फैला था। उसने ही पांडवों और तोमर राजाओं के बाद तीसरी बार दिल्ली बसायी थी, जो किला रायपिथौरा के इर्द-गिर्द पसरी हुई है।

भारतीय इतिहास का देदीप्यमान सितारा पृथ्वीराज चौहान दिल्ली पर राज करने वाला आखिरी हिन्दू राजा था। उसके बाद अगले साढ़े सात सौ साल तक दिल्ली तुर्कों, अफगानों, मुगलों और अंग्रेजों के आधिपत्य में रही। जिस समय चौहान सेना गुजरात की ईंट से ईंट बजा रही थी और आल्हा-ऊदल जैसे नामी वीरों वाले महोबा को रौंद रही थी, उस समय अफगानिस्तान में मोहम्मद गौरी तेजी से पांव पसार रहा था और अब उसके निशाने पर था भारत। उसने गजनवी के वंशजों को खत्म कर सत्ता हासिल की थी। 1185 में जब उसने आखिरी गजनवियों से लाहौर, मुल्तान और सियालकोट छीने, तभी राजपूत राजाओं को चेत जाना चाहिये था। लेकिन चेतने की परम्परा भारत में कभी रही ही नहीं। इस बीच, जम्मू आदि के राजाओं के बुलावे पर गौरी पंजाब के इधर भी अपनी फौजी के साथ आता रहा, और लूटपाट कर वापस लौट जाता। 1191 में मोहम्मद गोरी एक बड़ी फौज लेकर भारत में घुस आया और थानेश्वर के करीब तराइन के युद्धक्षेत्र में उसका मुकाबला पृथ्वीराज चौहान ने बड़ी वीरता से किया। उसने न केवल गोरी को मात दी, बल्कि उसे पकड़ भी लिया। लेकिन अपने मंत्रियों के लाख समझाने के बावजूद उसने गोरी को छोड़ दिया। इस युद्ध में मेवाड़ के राणा रावल मथान सिंह समेत करीब डेढ़ सौ राजपूत राजाओं ने पृथ्वीराज के पक्ष में अपनी सेनाएं उतारी थीं।

अब आता है वह दौर, जिसके बारे में चौहान राजा के चारणकवि चंदबरदाई ने काव्यनामा ही लिख मारा है और अपने राजा की तुलना इंद्र से की है। पृथ्वीराज के समान एक और शक्तिशाली राजा जयचंद उस समय कन्नौज का अधिपति था, जिसकी एक खूबसूरत बेटी थी संयोगिता। इन दोनों राजाओं में शुरू से ही कभी नहीं पटी। दोनों किसी रिश्ते में भाई भी लगते थे। पृथ्वीराज और संयोगिता में चक्कर चल गया, इसकी जानकारी लगते ही जयचंद ने संयोगिता का स्वंयवर रचा डाला। जाहिर है उसमें पृथ्वीराज को नहीं बुलाया गया। पर आशिकी ने जोर मारा और चौहान राजा बगैर सेना के सौ के करीब बेहद विश्वस्त और तलवार के धनी सरदारों के साथ कन्नौज जा पहुंचा और स्वंयवर सभा से संयोगिता को उठा कर लौट लिया। जयचंद की सेना ने उसका पीछा किया। अपने राज तक पहुंचते-पहुंचते चौहान राजा के सभी सरदार जयचंद की सेना को रोकने के चक्कर में मारे गये, जिसका खामियाजा जल्द ही चौहान को उठाना पड़ा।इधर, अपनी हार से बौखलाये गोरी ने अगले ही साल फिर पृथ्वीराज चौहान को ललकारा और दोनों की सेनाएं तराइन में आ डटीं। इस बार भी सारे राजपूत राजा सामने थे। लेकिन चौहान की रणनीति की एक-एक जानकारी गौरी तक पहुंचा रहा था जयचंद। 1192 के इस युद्ध में राजपूतों की सारी वीरता धरी की धरी रह गयी और गौरी ने न केवल मैदान मारा बल्कि पृथ्वीराज चौहान और ज्यादातर सरदार और अन्य राजपूत राजाओं को मौत के घाट भी उतारा। यह हार भारत के लिये तबाहकुन साबित हुई और मोहम्मद गोरी ने बजाय लूटपाट करने केदिल्ली की गद्दी को अपने कब्जे में रखने का फैसला किया। वह तो लौट गया लेकिन पीछे अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को छोड़ गया। यहीं से शुरू हुई भारत को गुलाम बनाने वाले गुलाम वंश की शुरुआत।

पृथ्वीराज चौहान की इस हार का एक बड़ा कारण था देशी रवायतों के मुताबिक़ सारी सेना को एकबारगी युद्ध क्षेत्र में झोंक देना। जबकि गोरी ने सेना का एक बड़ा हिस्सा सुरक्षित रखा और जब शाम को गोरी ने मैदान में ताजादम सुरक्षित फोर्स को उतारा तो उससे लड़ने की ताकत राजपूतों में नहीं रह गयी थी।युद्ध के मैदान में फौज के चार-पांच हिस्से कर एक को रिजर्व में रखने की सोच किसी भी राजपूत राजा की कभी रही ही नहीं। और इस कारण भी करीब हजार साल के इतिहास में भारत का एक भी राजा किसी विदेशी ताकत को मात नहीं दे सका। सिर्फ एक नाम सामने आता है जिसने वीरता के साथ-साथ दिमाग का भी इस्तेमाल किया वह था मराठा शिवाजी, जिसने औरंगजेब जैसे प्रतापी बादशाह को नाको चने चबवा दिये। सुनने में यह बात चौंकाने वाली लगेगी, लेकिन यह आखिरी सच है कि सन् 1971 में बांग्लादेश युद्ध में भारतीय सेनाओं ने हजार साल बाद कोई विजय हासिल की थी।

और अंत में एक ऐसे युद्ध पर लिखी गयी पोथी की वो चंद पंक्तियां, जो बताती हैं कि केसरिया बाना पहन कर लड़ मरने से कुछ हासिल नहीं होता। युद्ध क्षेत्र में मर-मिट कर स्वर्ग जाने और पीछे महल में टसुए बहा रहीं सौ-पचास रानियों को आग में भस्म हो जाने की प्रेरणा देने के बजाये दुश्मन का कैसे भी खात्मा करने के ज़ज्बे के साथ इसी धरती पर हुआ था वह युद्ध-हावर्ड फास्ट की कलम से फलस्तीन में दो हजार साल से ज्यादा पहले तीस साल तक लड़े गये उस स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत का अंश-


‘आने दो उन्हें हमको ढूंढते हुए! भेजने दो हमारे खिलाफ अपनी फौजें! फौज बकरी की तरह पहाड़ों पर नहीं चढ़ सकतीं, हम चढ़ सकते हैं! हर चट्टान के पीछे और हर दरख्त की शाखों में एक तीर छिपा हो! हर चोटी पर बड़े-बड़े पत्थर जमा रहें! हम कभी सामने से उनका मुकाबला नहीं करेंगे, कभी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करेंगे-लेकिन हम बराबर उन पर वार करते रहेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे, यहां तक कि हमारे तीरों के डर से उनकी रात की नींद हराम हो जाएगी, फिर उनकी हिम्मत नहीं होगी कि किसी तंग दर्रे में घुस भी सकें, और फिर सारा जूडिया उनके लिये एक बड़ा सा जाल बन जाएगा! लाने दो उन्हें अपनी फौजें हमारी धरती पर-हम तो पहाड़ों पर होंगे! और फिर आने दो उन्हें पहाड़ों पर -हर चट्टान जाग उठेगी! फिरने दो उन्हें हमारी तलाश में, हम कुहरे की तरह फैल कर हवा में घुल जायेंगे! और वे अपनी फौज किसी दर्रे के बीच से निकालने कोशिश करेंगे तो हम उनके टुकड़े टुकड़े कर डालेंगे, जैसे सांप के लिए जाते हैं।

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