शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिथा

राजीव मित्तल
भारतीय समाज एक ऐसा रंगमंच है जो अनादि काल से डिवाइन प्रॉक्सी से संचालित हो रहा है। इस छद्म खेल की शुरुआत हुई जंगली आर्यों के प्रवेश से, जो सभ्य होते जाने के साथ ही समाज को कंट्रोल करने के लिये ईश्वर नाम की एक अशीरीरी ताकत धरती पर उतारने की व्यवस्था में जुट गये। क्योंकि यह काल्पनिक अवधारणा थी, जिसका कोई रंग-रूप-आकार नहीं था, इसलिये अकेले ईश्वर से कोई भला नहीं होना था, तो एक भरे-पूरे डिवाइन समूह की कल्पना की गयी, जिसके कई किरदार उन्हें प्रकृति के अलग-अलग रूपों में बैठे-बिठाए मिल गये, और बाकी की छवि कैसी हो, इसके लिये उन्होंने अपनी रचनात्मक शक्ति का भरपूर इस्तेमाल किया। तभी से समाज में खास कर भारतीय समाज में जन्म से मृत्यु तक सांस लेने से ले कर सांस छोड़ने की क्रिया ईश्वर और उसके गणों के कंट्रोल में है। यही जमावड़ा मानव नाम के जीव का केआरए देख यह तय करता है कि चोला छोड़ने के बाद उस मानव की आत्मा को कुंभीपाक नरक भेजना है या रौरव नरक, या फिर उसे स्वर्ग के दर्शन कराए जाएं। अगर केआरए का ग्रेड ए प्लस हुआ तो उसके लिये मोक्ष नाम का एक स्पेशल ठिकाना है, जो सरकारी वृद्धाश्रम जैसा समझिये, जहां हमेशा भजन-कीर्तन होता रहता है, जहां मच्छर भी मारने को नहीं मिलते। ढेर सारी सहूलियतें, जो बिल्कुल फ्री। किसी विमान कम्पनी के पैकेज टूर वाले मजे। मानव के रोजमर्रा के क्रिया-कलाप पर नजर रखने के लिये तीन सुपर फोर्सेस (ब्रहमा-विष्णु-महेश) और हर दिन नये-नये रूप में प्रकट होने वाले देवी-देवताओं की भरी-पूरी टीम। ऐसी कोई टीम इस ब्राह्मांड में मौजूद है, इसके प्रचार-प्रसार के लिये समाज के भीतर से ही पुरोहित वर्ग ने जन्म लिया, जो समाज के बाकी तुच्छ प्राणियों का परलोक सुधारने में लग गया। तब-तक बिना किसी भेदभाव के विचर रहे आदम और हव्वा एक बगीचे में पेड़ से तोड़ सेब खा चुके थे, और जिसके खाते ही दोनों को नर-नारी के विभेद का ज्ञान हो चुका था और यह भी कि अब उनकी भूमिकाएं क्या-क्या हैं। बच्चे पैदा करने-कराने से लेकर नर के पथप्रदर्शक और नारी का उसकी अनुगामिनी बने रहने तक तो मामला कुल मिला कर ठीक ही रहा, लेकिन पुरोहित समाज को नारी के अंदर कुछ ऐसे वीषाणु नजर आए जो पूरी कायनात को जहन्नुम बनाने के लिये काफी थे। यहीं से शुरू हुआ नारी को मांस पिंड समझने और कुलटा और छिनाल जैसे अनेकानेक शब्दों से सुशोभित करने का खेल, जो आज भी जारी है। ज्ञानियों ने एक और छद्म खेल खेलते हुए गऊ को माता, गंगा को मैया और नारी को देवी का रूप दे कर आकाश गुंजा दिया, जिसमें नारी की स्थिति तो शुरू से आज तक देवी और कुलटा के बीच में फंसी हुई है, उसे कब कौन सा रूप देना है, इसका सर्वाधिकार पुरुष समाज ने अपने पास रखा है। और कलयुग के 21 वें दशक में गऊ माता हर शहर, हर गांव के चौक-चौराहों पर लतियायी जा रही है और गंगा मैया सड़ांध मारती नाला बन चुकी है।
कुछ साल पहले दीपा मेहता की फायर फिल्म प्रदर्शित हुई थी, जिसको लेकर देश भर में आंदोलन हुए, जहां-जहां यह फिल्म दिखायी जा रही थी, उन सिनेमाघरों पर राष्ट्र की संस्कृति के रखवाले टूट पड़े और जम कर तोड़-फोड़ मचायी। यह सारा क्रोध फिल्म में दिखाये जा रहे एक ऐसे सच को लेकर था, जो उन्हें हजम नहीं हो रहा था। वह सच था जिठानी-देवरानी के जिस्मानी रिश्ते। दोनों जब अपने-अपने पतियों की शक्लें देखने को तरस गयीं तो आपस में ही रम जाना उनकी मजबूरी थी।
भारतवर्ष नाम के इस राष्ट्र की सबसे बड़ी खासियत है सच से मुंह छुपाना और सच से मुंह छुपाने का सबसे आसान तरीका है अपने को किन्हीं वेदों, किन्हीं पुराणों, किन्हीं गीताओं और किन्हीं रामायणों को लिहाफ बना कर अपने ऊपर डाल न जाने कौन से पुण्यों का जाप करना ताकि शरीर से निकल कर आत्मा सीधे स्वर्ग का टिकट कटाए। और जब तक इहलोक में है, संतान पैदा करने से लेकर दुनिया के बाकी काम सुभीते से चलते रहें। इससे भी ऊपर है मोक्ष की अवधारणा, जो जीव नाम के पापी चोले से हमेशा के लिये मुक्ति दिलाने के तरीके बताती है। इसी मोक्ष को पाने के लिये करोड़ों साल पहले सतयुग नाम के किसी जमाने से तपस्या की परम्परा चली आ रही है। इन्हीं अवधारणाओं की अगली कड़ी में किन्हीं सावित्री, सीता, शकुन्तला, राधा, शचि जैसे चरित्र हैं, जिनका घनघोर पतिव्रता चरित्र चौखटे में फिट कर घर-घर लटका दिया गया है और घर-घर में औरत नाम के क्षूद्र प्राणी की मुंडी पकड़ कर उस चौखटे के सामने 24 घंटे में 24 बार लायी जाती है कि देखो तुम्हारा नाम कोई भी हो, लेकिन तुम्हें बनना इन जैसा ही है, अगर तुम दाएं-बाएं हुई तो कुलटा, पापी, नरक का कीड़ा कहलाओगी।अपने लेखन में अश्लीलता का पुट देने के लिये कई मुकदमे झेल चुके सआदत हसन मन्टो ने लिखा है-जिस युग से हम गुजर रहे हैं अगर आप इससे अपरिचित हैं तो मेरी कहानियां पढ़िये। अगर आप मेरी कहानियों को सहन नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह युग ही असहनीय है।....मैं उस संस्कृति और सभ्यता के कपड़े क्या उतारूंगा, जो खुद नंगी हैं। मैं इन्हें कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि यह मेरा नहीं दर्जियों का काम है। लोग मुझे स्याह कलम कहते हैं लेकिन मैं स्याह तख्ती पर काले चाक से नहीं लिखता। मैं सफेद चाक का इस्तेमाल इसलिये करता हूं ताकि स्याह तख्ती पर सब कुछ स्पष्ट उभर कर आए। मन्टो की पांच कहानियों काली सलवार, बू, ठंडा गोश्त, धुआं, खोल दो तथा ऊपर-नीचे और दरम्यान पर इसलिये मुकदमे चलाये गये क्योंकि उन्होंने औरत बन कर पैदा होने के पाप की दिल हिला देने वाली गाथा काली तख्ती पर सफेद स्याही से लिखी, जो धर्म और समाज द्वारा सदियों से तय किये जा रहे मापदंडों पर बड़ा अश्लील पायी गयी।मंटो की खोल दो कहानी देश के बंटवारे की विभीषिका से शायद सबसे क्रूर और नंगा साक्षात्कार है। अमृतसर से पाकिस्तान जा रही एक मुसलमान लड़की रास्ते में गायब हो जाती है। बाप पाकिस्तान पहुंच कर वहां रजाकारों के सामने अपनी बेटी को तलाशने के लिये गिड़गिड़ाता है। कुछ दिन बाद बाप एक खबर सुन कर अस्पताल पहुंचता है तो वहां उसकी बेटी बेहोश पड़ी है। तभी एक डॉक्टर कमरे में आता है और अंधेरा देख बाप को खिड़की खोलने को कहता है। यह सुनते ही बेटी के शरीर में हरकत होती है और उसके हाथ नाड़ा खोल सलवार नीचे खिसका देते हैं। बेटी के मिल जाने से बाप खुशी से पागल, पर डॉक्टर के पसीने छूट रहे।
पाकिस्तान में इसी कहानी को बेहद अश्लील मान मन्टो पर मुकदमा चलाया गया। मन्टो का गुनाह यही है कि उसने धंधेवाली या घर की चौखट के अंदर सीता-सावित्री वाली समाज की दोगली सोच की बखिया औरत के छत्तीस-चौंतीस-छत्तीस के माप को सामने रख कर उधेड़ी। यह मन्टो की मजबूरी थी क्योंकि वह धंधे करने वाली सुगंधी और फिल्म एक्ट्रेस नसीमबानो की पोटेंसी का अंतर समझ गया था।सबसे बड़ा सच तो यह है कि सभ्यता की शुरुआत से ही समाज पर पुरुषों का कब्जा बड़े शातिर ढंग से तैयार की गयी साजिश के तहत होता ही चला गया। और सावित्री पर अपनी जकड़ को और मजबूत बनाने के लिये पुरुष समाज ने अपने दो चौखटे तैयार किये। एक चौखटा कोठे से लेकर हरम तक छत्तीस-चौंतीस-छत्तीस का मजा लेने वाला और दूसरा चौखटा उस औरत के सामने सुर्खरू बना रहने वाला, जो उसके वंश को बढ़ाने में खामोशी से लगी हुई है और किसी देवी या देवता की फोटो के सामने पति की गोद में मरने के लिये सुबह-शाम दुआ मांग रही है। लेकिन पुरुष समाज के लिये अपने इस चौखटे को सुर्खरू बनाये रखना तभी तक संभव था, जबकि वह घर की औरत को कई तरह के खौफ दिखा कर, किसिम-किसिम की धार्मिक-सामाजिक अवधारणाएं गढ़ बलात उनमें फांस उसे यह मानने के लिये मजबूर करे कि पुरुष के बिना औरत मांस का एक पिंड माμा है, जिसे कोई भी नोच-खसोट सकता है।
इसी सुर्खरू समाज पर भारतीय दर्शन और संस्कृत के प्रकांड पंडित हरिमोहन झा ने उन्हीं वेदों, पुराणों, स्मृतियों और समय-समय पर रचे गये धार्मिक ग्रन्थों का हवाला दे कर जबरदस्त प्रहार किये हैं, जो भारतवर्ष की बेहद सहज पुरातन द्रविड़ सभ्यता को नष्ट करने वाले उच्च वर्णीय आर्यो ने अपने लाभ के लिये तैयार किये।
पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हरिमोहन झा ने कई साल पहले खट्टर काका नाम का चरित्र गढ़ उसके मुंह से कबीरदास की तरह उल्टी गंगा बहायी थी। मसलन वेदों में नारी शरीर का इस कदर घिनौना वर्णन है कि ब्रहमचारी को वेद की तरफ झांकना भी नहीं चाहिये। अब तक भारतीय समाज में मसीहाई कर रहे सती-सावित्री के उपाख्यान कन्याओं के हाथ में नहींपड़ने चाहिये। पुराण बहु-बेटियों के योग्य नहीं हैं। दुर्गा की कथा स्त्रैनों की रची हुई है। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को फुसला लिया। उन्हें
उपनिषदों में विषयानंद, वेद-वेदांत में वाममार्ग और सांख्य दर्शन में विपरीत रति की झांकियां मिलती हैं। वह अपने तर्क कौशल से पतिव्रत्य को व्यभिचार सिद्ध करते हैं और असती को सती। हरिमोहन झा अपनी बात को उन्हीं श्लोकों के जरिये सिद्ध भी करते चलते हैं, जो घर-घर में आंख मूंद कर सदियों से उच्चारित किये जा रहे हैं।
एक अबला को कैसे दुख देना चाहिये, सती-साध्वी पत्नी को कैसे घर से निकाल देना चाहिये, किसी स्त्री की नाक कैसे काटी जाती है, यह रामायण से भली-भांति पता चलता है। सीता का सारा जीवन दुखों में ही बीता। जंगलों में कहां-कहां नहीं भटकती फिरी पति के साथ। जब महलों का सुख भोगने का समय आया तो पति ने निकाल दिया। गर्भावस्था के आठवें महीने में घोर जंगल में धकेल दिया गया उसे। सीता को इस पृथ्वी पर न्याय की आशा नहीं रही, तो पाताल में समा गयी। जिस मिट्टी की कोख से निकली थी, फिर उसी में विलीन हो गयी। बाप ने मूर्खा दासी की बात पर बेटे को वनवास दिया, तो बेटे ने मूर्ख धोबी की बात पर स्त्री को वनों की खाक छनवा दी।
किसी बांग्ला मनीषी की लिखी रामायण के हवाले से बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन ने औरत के हक में लिखा है कि रावण को मार कर राम सीता से कहते हैं-मैंने युद्ध करके जो जय लाभ प्राप्त किया है, वह तुम्हारे लिये नहीं, अपने प्रसिद्ध वंश के कलंक को मिटाने के लिये। जाओ वैदेही, तुम मुक्त हो। जो करना था, वह मैंने किया। मुझे पति रूप में पा कर तुम जराग्रस्त न होओ। मेरे जैसा धर्मबुद्धि सम्पन्न व्यक्ति दूसरे के हाथ में गयी नारी को एक क्षण के लिये भी कैसे ग्रहण कर सकता है। तुम सच्चरित्र हो या दुश्चरि
त्र, तुम्हें आज मैं भोग नहीं सकता मैथिली। तुम उस घी की तरह हो, जिसे कुत्ते ने चाट लिया है।
तस्लीमा कहती हैं-मुझे तो यही लगता है कि स्वंय राम ने सीता के प्रति सबसे ज्यादा अन्याय किया है। इतना पाखंड तो रावण ने भी नहीं किया। राम ने कभी यह नहीं जानना चाहा कि रावण ने सीता से जोरजबरदस्ती की भी थी या नहीं, सिर्फ शक की बुनियाद पर राम ने सीता पर दोषारोपण कर दिया। केवल नारी के सतीतत्व को लेकर इतना शोरगुल है, सती शब्द का कोई पुल्लिंग विलोम क्यों नहीं है।
तस्लीमा--अपने सतीतत्व या पवित्रता का प्रमाण देने के लिये सीता को अग्नि परिक्षा देनी पड़ी थी। इतना ही नहीं, प्रजा का संदेह दूर करने के लिये राम ने सीता को फिर वनवास की ओर धकेल दिया। तीसरी बार की परीक्षा देने से सीता ने मरना बेहतर समझा और वह धरती में समा गयीं। अन्यथा जीवन भर जिल्लत झेलतीं। सीता को मुक्ति दी धरती ने। किसी पुरुष ने उन्हें आश्रय नहीं दिया। सम्मान नहीं दिया। इसलिये सीता ने किसी पुरुष या पुरुषशासित समाज से आश्रय नहीं मांगा। रामायण में नारी को मनुष्य की संज्ञा तो नहीं ही दी गयी बल्कि यह सीख और दे दी गयी कि समाज पुरुष के एकनिष्ठ होने का दावा नहीं करता और नारी को एकनिष्ठता, सतीत्व या पवित्रता का प्रमाण देने पर भी समाज में सम्मान नहीं मिलता। सीता का सतीत्व देख शतकों से क्या पुरुष क्या नारी-दोनों मुग्ध हैं। सीता के अग्नि में प्रवेश से दोनों ही तृप्त हैं। सीता के सत्कर्म गाथा बन गये। लेकिन कुल मिला कर नारी का चरम अपमान, निर्लज्ज दलन असंख्य बार रामायण में उच्चारित हुआ है।धर्मराज युधिष्ठिर के बारे में खट्टर काका कहते हैं कि उस इनसान को धर्मपुत्र नहीं अधर्मपुत्र कहो, जो अपने छोटे भाई अर्जुन की ब्याहता को गर्भवती करने में नहीं हिचका। गनीमत समझो कि पांचों पांडवों में पांचाली के पांच अंगों का बंटवारा नहीं किया गया, नहीं तो क्या गत बनती। फिर भी कम दुर्दशा नहीं हुई द्रोपदी की। जैसे वह नारी नहीं साझे का हुक्का हो, कि जिसने चाहा गुड़गुड़ा दिया। तभी तो कर्ण ने भरी सभा में कहा था कि पांचाली धर्मपत्नी नहीं, पांचों की रखैली है। और द्रोपदी का अपमान दुशासन ने तो बाद में किया, आहुति तो युधिष्ठिर ने ही डाली थी, जिन्होंने पत्नी की देह का विज्ञापन करते हुए उसे दांव पर चढ़ा दिया-मेरी पत्नी न नाटी है, न बहुत लम्बी है, न दुबली-पतली है, न बहुत मोटी है, उसके काले-काले घुंघराले बाल हैं। मैं उसी को पासे पर चढ़ा रहा हूं।
दांव हार जाने के बाद दुशासन ने द्रोपदी का चीरहरण शुरू किया। लेकिन पांडव चुपचाप सभा में सिर झुकाए बठे रहे। तभी तो द्रोपदी के मुंह से निकल पड़ा कि मेरे ये पति पति नहीं हैं। बाद में किसी बात पर उर्वशी ने अर्जुन को ताना मारा था कि तुम पुरुष नहीं, नपुंसक हो। स्त्रियों के बीच जा कर नाचो।
महाभारत युद्ध के कई कारण गिनाये जा सकते हैं, पर उसके मूल में है औरत को भोगने की उद्दाम लालसा।महाराजा शांतनु का मछुआरिन सत्यवती पर रीझना, सत्यवती का उनसे वचन लेना कि उससे जन्मी संतान ही हस्तिनापुर पर शासन करेगी, इस पर शांतनु पुत्र देवव्रत का आजीवन अविवाहित रहने की भीष्म प्रतिज्ञा करना, शांतनु के मरने के बाद सत्यवती के दोनों पुत्रों चित्रान्गद की युद्ध में और विचित्रवीर्य की घनघोर अय्याशी के चलते निस्संतान मौत। हालांकि वंश चलाने को उनके लिये भीष्म अंबिका-अंबालिका को जबरन उठा कर लाए थे और दोनों भाइयों से उस समय के समाज में निकृष्टतम कहा जाने वाला विवाह कराया था। काशी राजा की इन दोनों बेटियों के अलावा तीसरी और सबसे बड़ी बेटी अंबा ने भीष्म का रथ हस्तिनापुर पहुंचने से पहले ही आत्महत्या कर ली, क्योंकि वह उन्हीं पर रीझ गयी थी, जो भीष्म को अपनी प्रतिज्ञा के चलते स्वीकार नहीं था। विवाह के बाद ही दोनों भाई मर गए तो वंश बढ़ाने के लिये व्यास से उन पर बलात्कार करवाया गया। नतीजनतन एक के अंधा बेटा हुआ दूसरी का बेटा जन्मजात रोगी। रोगी पांडु की दोनों पत्नियों कुंती और माद्री के साथ भी यही हुआ। पांचों में से कोई पांडव पांडु का पुत्र नहीं था। पांडु ने ऐसा करने के लिये बाकायदा कुंती को यह कहते हुए आज्ञा दी कि पति के कहने पर जो सुपुत्र प्राप्ति के लिये पर-पुरुष से सिंचन नहीं करवाती, वह पाप की भागिनी होती है। खुद महर्षि व्यास सत्यवती और पराशर मुनि के अवैध संबंधों की उपज थे। इस तरह कुरुवंश के शांतनु कुल में कुलवधुओं को दूषित करने की परम्परा सी चल पड़ी थी।
तस्लीमा नसरीन--महाभारत के प्रथमांश और अन्तिमांश के बीच कम से कम आठ वर्षों का अंतराल है। इस लम्बे समय के अंतिम हिस्से के रचयिता भृगुवंशी ऋषिगण हैं, जो ब्राह्मण संयोजन के नाम से जाना जाता है। नारी के अवनमन का चित्र इस अंश में नग्न रूप में सामने आता है।महाभारत के इस भाग में साफ लिखा है कि नारी अशुभ है, सारे अमंगल का कारण है। कन्या दुखद है। भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा-नारी से बढ़ कर अशुभ कुछ भी नहीं। नारी के प्रति पुरुष के मन में कोई स्नेह या ममता रहना उचित नहीं। पिछले जन्म के पाप के कारण इस जन्म में नारी जन्म होता है। स्त्री सांप की तरह है, इसलिये पुरुष को कभी उसका विश्वास नहीं करना चाहिये। त्रिभुवन में ऐसी कोई नारी नहीं, जो स्वतंत्रता पाने योग्य हो। जो छह वस्तुएं एक क्षण की भी असावधानी से नष्ट हो जाती हैं, वे हें-गर्भ, सैन्य, कृषि, स्त्री , विद्या, एवं शूद्र के साथ संबंध। भीष्म आगे कहते हैं कि आदिकाल में पुरुष इतना धर्मपरायण था कि उसे देख कर देवताओं को ईष्र्या हुई, तब उन्होंने नारी की सृष्टि की-पुरुष को लुभा कर उसे उसे धर्मच्युत करने के लिये।
खट्टर काका-महर्षि याज्ञवल्क्य को ही लीजिये। वह कैसे आत्मज्ञानी थे, कि दो-दो पत्नियां रखते थे। आत्मा के लिए मैत्रेयी और शरीर के लिए कात्यायनी। इन्हीं याज्ञवल्क्य ने शास्त्रार्थ में गार्गी के प्रश्नों से घबरा कर धमकी दे डाली थी कि अब ज्यादा पूछोगी तो तुम्हारी गर्दन कट कर गिर पड़ेगी।राजा दुष्यंत ने कुमारी मुनिकन्या शकुंतला को दूषित कर दिया और फिर पहचानने से भी इनकार कर दिया। राजा ययाति को बूढ़ापे में भी भोग की लालसा बनी रही। कोई चारा न देख जवान बेटे से ही यौवन उधार मांग कर अपनी लालसा मिटायी। ऐसी उद्दाम कामवासना का गरिमामय दृष्टांत और किसी देश के इतिहास में मिलेगा!
महाभारतकाल में क्या तो राजा, क्या ऋषि-मुनि और क्या देवतागण-इन सबके लिये औरत की औकात जिंस से ज्यादा कुछ नहीं थी।दरअसल, रामायण-महाभारत की सारी घटनाओं पर नजर डालने के बाद एक ही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है, वह है-न स्त्री स्वतन्त्रंअहर्ति यानी स्वतंत्रता पर स्त्री का कोई अधिकार नहीं।
अब खट्टर काका की नजर पड़ती है आयुर्वेद पर। वह एक प्रकांड वैद्य से पूछते हैं कि पारा क्या है-जवाब में संस्कृत का एक श्लोक, जिसका अर्थ है-शिवजी की धातु पृथ्वी पर गिर गयी, वही पारा है। तो गंधक क्या है महाराज!
एक समय श्वेतद्वीप में क्रीड़ा करते-करते देवी जी स्खलित हो गयीं। तब क्षीर समुद्र में स्नान किया। उसमें कपड़े से धुल कर जो रज गिरा, वही गंधक है। खट्टर काका की नजर में आयुर्वेद में श्रृंगार रस की भरमार है-मसलन वैद्य लोलिम्बराज गर्मी का उपचार बताते हैं-सुगंधित पुष्पमाला और चंदन से शीतल शरीरवाली पीन पयोधरा और पुष्टनितम्बिनी युवतियों के आलिंगन दाह को दूर कर देते हैं।ज्वर का इलाज-चंदन-कपूर का लेप किये हुए रमणी मणिमेखलायुक्त जघन चक्र चलाती हुई सम्पूर्ण शरीर में वनलता की तरह लिपट जाए तो प्रबल ताप को भी शांत कर देती है।
सर्दी की दवा-मांसल जंघा और स्थूल नितंबवाली युवती अपने पीन स्तनों से गाढ़ालिंगन करे तो सर्दी दूर हो जाती है। यानी जाड़े की दवा भी युवती और गर्मी की दवा भी युवती। युवती का शरीर चाय की प्याली या शरबत का गिलास से ज्यादा कुछ नहीं!
एक वेदाचार्य ने ऐसी खीर बनायी कि वृद्ध भी खाय तो दश प्रमदाओं का मान-मर्दन कर सके। दूसरे आचार्य ने ऐसा चूर्ण बनाते हैं कि नपुंसक भी वह चूर्ण मधु के साथ चाट जाय तो कंदर्प बन कर सौ कामिनियों का दर्प चूर कर दे। एक आचार्य ने गारंटी दी कि यदि प्रथम पुष्प के समय नवयौवना नस्ययोगपूर्वक चावल का मांड़ भी ले तो उसका यौवन कभी ढलेगा नहीं। दूसरे आचार्य ने और भी जबरदस्त दावा किया कि श्रीपर्णी के स्वरस में सिद्ध तिल का तेल मर्दन करने से विगलित यौवनाओं के ढले हुए यौवन भी ऊपर उठ जाते हैं।
एक आचार्य का अनुसंधान है कि ब्राह्मणों की दातौन 12 अंगुल की, क्षत्रियों की नौ अंगुल की और स्त्रियों की चार अंगुल की होनी चाहिये। एक साहब ने तो स्त्रियों के स्नान पर ही रोक लगा दी-शतभिषा नक्षत्रों में अगर स्त्रियाँ स्नान कर लें तो सात जन्म विधवा हों। दूसरे फरमा गये-यदि स्त्री नवमी में स्नान करे तो पुत्र नाश हो, तृतीया में पति नाश हो, त्रयोदशी में अपना नाश हो।इस देश में बाल विवाह की परम्परा इसलिये पड़ी क्योंकि जहां कन्या 12 वर्ष की हो रजस्वला हुई तो पितरों को हर महीने रज पीना पड़ेगा। शास्त्रकारों को इस बात की बड़ी फिक्र थी कि कहीं कुमारी को रोमांकुर हो गया तो गजब हो जाएगा। सोमदेवता बिना भोग लगाए मानेंगे नहीं। कुच देख कर अग्नि देवता और पुष्प देख कर गंधर्व देवता पहुंच जाएंगे। इसलिये कन्या का विवाह कर छुट्टी पाओ। क्योंकि देवताओं को मनमानी करने से कोई रोकने वाला नहीं।
स्त्रियों को धमका कर रखने का एक बड़ा साधन इस देश में रहा है स्वर्ग और नरक की बेहद असरकारक अवधारणा और दोनों जगहों के लिये पुरुष की अनुशंसा जरूरी। एक जगह कहा भी गया है कि भारतवर्ष में, जी हां केवल भारतवर्ष में जो स्त्री पति की सेवा करेगी उस स्वामी के साथ स्वर्गलोक का पासपोर्ट मिल जाएगा। और अगर स्त्री कहीं पति को धोखा दे कर और किसी की सेवा में चली जाए तो उसे कुम्भीपाक नरक में अनंतकाल तक रातदिन नुकीले दांत वाले भंयकर सांप सरीखे जंतु डंसते रहेंगे। मजेदार बात यह है कि पर-स्त्रीगामी पति के लिये किसी भी शास्त्र में कहीं कोई विधान नहीं है। कुछ और बानगियां-----ऋतुस्नान के बाद जो स्त्री पति की सेवा में उपस्थित नहीं होती वह मरने पर नरक-गामिनी होती है, बारंबार विधवा होती है।-जो स्त्री पति से पहले ही भोजन कर ले वह नरक में जा कर घोर कष्ट भोगती है।-स्त्री ने अगर पति को भूल चुपचाप किसी खाद्य पदार्थ का सेवन कर लिया तो या तो वह शूकरी हो कर जन्म लेगी या गधी हो कर या विष्ठा की कीड़ी हो कर।- जो पति से जुबानदराजी करे वह गांव में कुत्ती या जंगल में गीदड़नी हो कर जन्म लेगी। ऋग्वेद में तो नारी शरीर की इस तरह मीमांसा की गयी है कि इस वेद के अंग्रेजी अनुवादक राल्फ टीएच ग्रिफिथ ने तो कुछ मन्त्रों का अनुवाद इसलिये नहीं किया कि वे बेहद वीभत्स थे। वह कहते भी हैं कि मैं इन-इन मन्त्रों को छोड़ कर आगे बढ़ रहा हूं क्योंकि मैं शालीन अंग्रेजी में इनका अनुवाद नहीं कर सकता।इसी उपमहाद्वीप में बांग्लादेश की तस्लीमा नसरीन को रात के अंधेरे में देश छोड़ कर इसलिये भागना पड़ा था क्योंकि वह औरत के लिये मर्दों से बराबरी का अधिकार मांग रही थीं। उन्होंने औरत की अस्मिता को लेकर कुरान पर कुछ सवाल खड़े किये तो मुल्ला-मौलवियों ने उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया।तस्लीमा की लिखी एक कविता के छपने पर ढाका विश्वविद्यालय के लड़कों ने कुछ वैसा ही तांडव किया था, जैसा शिवसेना या उस जैसी मानसिकता वाले संगठनों ने दीपा मेहता की वाटर फिल्म की शूटिंग के वक्त वाराणसी में किया था क्योंकि बदबू मार रहे गंगाजल को वाटर नाम देना उन्हें कतई मंजूर नहीं था। एक दिन तस्लीमा को मां-बहनों का सर्वनाश कर देने वाली उस कविता पर अपनी सफाई देने के लिये उन लड़कों की अदालत में पेश भी होना पड़ा था।कविता थी---हम लड़कियां खेल सकें जो खेलइसलिये उतरती थी शामउस खेल का नाम है गोल्लाछूटएक बार फिर मेरा मन होता है मैं भी खेलूंअभी भी कभी-कभी आकुल-व्याकुल होती हैंपांवों की उंगलियांधूल में धंस जाना चाहती हैं गुप्त एड़ियांमेरा मन होता हैदुनिया की तमाम लड़कियांलगा दें गोल्लाछूट दौड़ विभिन्न नामों वाली पूजनीय देवियों से भरे-पूरे भारत में दक्षिण फिल्मों की अभिनेत्री खुश्बू को इसलिये प्रताड़ना झेलनी पड़ी क्योंकि उसने विवाह से पहले सुरक्षित यौन संबंधों की बात कही। मकसद था एड्स से बचाव।देश के कोने-कोने में कन्याओं के भ्रूण कचरे में फैंके जा रहे हैं। अल्ट्रा साउंड के जरिये लड़की होने की पुष्टि होने पर गर्भपात करा देने की असंख्य घटनाओं से औरतों की आबादी निरंतर घटती जा रही है। किसी देवी के नाम पर पाखंड करने वालों की कोई कमी नहीं, पर धरती पर हंसती-खेलती किसी भी उम्र की लड़की तालिबानी निगाहों का कांटा बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में कन्या को गर्भ में ही खत्म कर देने का दौर जुनून की हद पार कर गया है। मोटा-मोटी अब वही कन्याएं सुरक्षित हैं, जो या तो बिल्कुल नाली का कीड़ा हों या जिनमें पेज थ्री की शोभा बनने का हौंसला हो। लेकिन उन्हें भी शहर-शहर में धधक रहे तंदूरों से बचने के साधन तलाशने की जरूरत है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें