राजीव मित्तल
वो कारवां लौट आया है। गए थे तो चेहरे पे तनाव था, तनाव की लाली थी, उम्मीदों की खुमारी थी, आशंकाओं का पीलापन था, लेकिन अब वो केवल जर्द हैं। धनराज रोये, हमारी भी आंखें नम हुईं। पहली ही छलांग में अंजू का सिर चकरा गया, हम अब तक सिर थामे बैठे हैं, कर्णम महेश्वरी के कमर का दर्द हमारी कमर को दोहरा कर गया, बीनू को मिल्खा सिंह से एक लाख लाख रुपये मिल जाएंगे, पर हमारी खिलंदड़ी दरिद्रता में सुर्इं की नोक जितना भी फर्क नहीं आएगा। कुछ और भी हुआ, जिसके लिये हमारे सिर धृतराष्ट्र के दरबार में पांडवों की तरह झुके हुए हैं। बहरहाल, भारतीय खेलों को कुछ इस तरह क्यों न आंका जाए-मसलन होंकी को ही ले लीजिये-कभी हमारे पास होंकी का देवता होता था, अब तो न मकीं है न मकां है,न ज़मीं है न ज़मां है, दिल-ए-बे-नवा ने मेरे वहां छावनी है छाई । ओलम्पिक के बाकी खेलों में हजार साल बी.सी. से लेकर 2004 ए.डी. तक हमारा हाल न मकाम-ए-गुफ्तगू है न महल्ले जुस्तजू है, न वहां हवास पहुंचे रग रग को है रसाई ।बस, एक कड़वी गोली निगलने का वक्त आ ही गया है अब। कि हम तीन ओलम्पिकों और तीन ही विभिन्न खेलों के विश्व कपों में हाजिरी लगा कर मजाक बनना बंद करें। अपने यहां ग्रामीण ओलम्पिक, तहसील ओलम्पिक, नगर ओलम्पिक, महानगर ओलम्पिक और जन्म भूमियों के चक्कर में थोड़े दिन न पड़ कोई भी सात देवी-देवता लीला कप की मासिक शृंखला शुरू करें। इस तरह हम अगले तीन ओलम्पिकों को लेकर आंख पर पट्टी बांध लें, कानों में रुईं ठूस लें और देश व्यापी मुनादी एसएमएस के जरिये अभी से शुरू करा दें- 2020 में हम होंगे कामयाब हमारा लक्ष्य होगा बहामास।लेकिन एक सच्चाई मुंह फाड़े सामने आ खड़ी हुई है। हमारी और अचूक सफलता के बीच सबसे बड़ी दीवार है बहामास की जनसंख्या, जिसके चलते हम उस तक अगले एक हजार साल भी नहीं पहुंच सकते। हमें उसतक पहुंचने के लिये दरकार होगी 135 स्वर्ण पदकों की। तो या तो इतने कप या युवा आबादी में सीधे-सीधे करोड़ों की कटौती। इसलिये बहामास का तो ख्याल हम दिल से निकाल ही दें और लौट-फिर कर फिर चीन पर ही ध्यान दें क्योंकि इस पूरी दुनिया में इकलौता वही है, जो अगले 45 साल आबादी में हमसे आगे रहेगा, रही बात कपों की तो हमें 16 साल एंटी ओलम्पिक सिद्धांत पर चलना ही होगा, जैसे कभी चीन चला था। उसे उसी के हथियार से काटने का एकमात्र तरीका यही बचा है।
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