भारत में फासीवाद
प्रेमकुमार मणि
हाल के वर्षों में हिन्दू कट्टरतावादी ताकतों की हरकतों से भय की लकीरों की तरह यह आवाज़ कई बार उठी है कि भारत में फासीवादी संकट गहरा रहा है . कुछ समय पहले कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी ने इससे इंकार किया था .वह गलत भी नहीं थे . पारिभाषिक रूप से फासीवाद वह है ,जो इटली में बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध (1920 -45 ) में मुसोलिनी के नेतृत्व में स्थापित हुआ . इसके पुख्ता कारण थे . इटली की सामाजिक -आर्थिक और राजनीतिक स्थितियां ऐसी हो गई थीं कि मुसोलिनी की बातें सुनी गईं .1922 में उसके संघटन के रंगरूटों ने संसद को घेर लिया और जबरन सत्ता हासिल कर ली . उनके समर्थक फासे(fasce ) यानि लोहे के डंडों (आयरन रॉड) से लैस थे . एक तरह से इसे डंडावादी राजनीति कह सकते हैं . जर्मनी में थोड़े अंतर के साथ हिटलर का नाज़ीवाद उभरा .यह भी वही था . ठीक यही समय था जब भारत में 1925 में आरएसएस का जन्म हुआ . ऐसी तमाम राजनीति के पीछे एक सामाजिक भय होता है . येचुरी जैसे कम्युनिस्ट यह नहीं समझते कि भारत में इस तरह की प्रवृतियां ठीक इटली या नाज़ी अंदाज़ में ही नहीं उभरेंगी . ईरान में खोमैनी के नेतृत्व में या पाकिस्तान में इस्लामिक राष्ट्र के रूप में ये प्रवृतियां उभरीं . बांग्लादेश में उसके उभार का एक भिन्न अंदाज़ है . अनेक यूरोपीय देशों में ये प्रवृतियां भिन्न -भिन्न रूपों में दबे रूप में काम कर रही हैं .
लेकिन हर जगह इन प्रवृतियों द्वारा जो कार्रवाइयां हुई उनमे कुछ समानताये दिखती हैं . मसलन हर जगह इन लोगों ने तरक्कीपसंद ,आज़ादख़याल और मानवतावादी लोगों को नेस्तनाबूत करने की कोशिश की . इटली और जर्मनी में कम्युनिस्टों का खात्मा किया .ईरान ,पाकिस्तान ,बांग्लादेश हर जगह कम्युनिस्ट तबाह कर दिए गए . भारत में भी आरएसएस ने गाँधी, नेहरू और कम्युनिस्टों को निशाना बनाया . नरेंद्र मोदी भले ही कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हों . उनका लक्ष्य केवल नेहरू की विरासत को ध्वस्त करने का रहा है . कोंग्रेसी तो पटेल भी थे ,जिसकी ऊँची मूर्ति बनाने में ये लगे हैं या बना चुके हैं .
एक और वहम या गलत -फ़हम है . वह है इन ताकतों द्वारा राष्ट्र और धर्म का अपने तरीके से उपयोग . राष्ट्र और धर्म को ये एक साथ जोड़ देना चाहते हैं . कोई भी धर्म या मजहब उस देश समाज की स्थितियों ,ज़रूरतों और उससे जनित मनोविज्ञान की उपज होता है ,लेकिन जब यह राष्ट्र की सीमाएं लांघ कर अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता है ,तब उसके लिए मानवीय होना आवश्यक हो जाता है . बौद्ध अधिक मानवीय हुए तब अंतर्राष्ट्रीय भी हो गए . सावरकर ने इसे ही बौद्धों की कमजोरी मानी . इस्लाम अरब से बाहर निकला तब अरबी स्थानीयता से थोड़ा ही सही मुक्त हुआ और अधिक मानवीय हुआ . उसमे नए विचारों की कोपलें फूटी . मसलन ईरान और भारत में सूफीवाद का प्रकटीकरण हुआ और भारत में तो इस्लाम मस्जिदों और कुरान से निकलकर मज़ारों और संगीत के अनेक रूपों में उभरा . पारम्परिक इस्लाम संगीत से परहेज करता है .लेकिन सूफीवाद की जान कव्वाली (संगीत ) में बसती है .यह इस्लाम का आतंरिक विद्रोह था जो कुरान और मस्जिदों के घेरे -घरानों को तोड़ता था . भारत में इस्लाम अस्सी फीसद इन मजारों से केंद्रित रहा . हाँ ,हाल के दिनों में प्रयासपूर्वक उसका कट्टर रूप उभारा जा रहा है . यह राजनीतिक कवायद है, जिसमे सरकारों की भी भूमिका है .जिन्ना ने जिस इस्लाम का राजनीतिक इस्तेमाल किया वह कुरान वाला शास्त्रीय पारम्परिक इस्लाम था ,क्योंकि इसी के साथ मुल्लाओं-पुरोहितों की एक फ़ौज उनके लिए राजनीतिक कसीदे बुन सकती थी . कट्टरता केलिए एक ग्रन्थ और शास्त्र जरुरी होता है . इसीलिए वैष्णव और सूफी संतों ने शास्त्रों से विद्रोह किया और धर्म को दिल की धड़कन का हिस्सा बनाया .
हिन्दू समाज में भी यही हुआ . उन्नीसवीं सदी के आखिर तक हिन्दू धर्म पीठों में वेदों की गिनी- चुनी प्रतियां थीं . मैक्समूलर ने कृष्ण द्वैपायन के बाद वेदों का एक बार फिर सम्पादन किया . संस्कार भी . ईस्ट इंडिया कम्पनी के सहयोग से वह प्रकाशित हुआ . काशी के पंडितों ने मैक्समूलर- सम्पादित वेद से अपने प्रतियों का मिलान किया और उसे संवारा . (हम तो केवल गाल बजाना जानते हैं ,काम तो कुछ दूसरे लोग करते हैं . ) इसका अर्थ यह हुआ की भारत में जो हिंदुत्व था ,वह वेद केंद्रित कम ही था . यह हिन्दुओं के एक बहुत ही छोटे हिस्से का हिंदुत्व था . पोंगा -हिंदुत्व , जिसके प्रवक्ता दकियानूस पण्डे-पुरोहित होते थे . कबीर ने इन्ही पांडे जनों को ललकारा था . लेकिन वास्तविक हिंदुत्व अलग रहा . यही वस्तुतः सांस्कृतिक हिंदुत्व था और है . हज़ारों संतों ने जाने कितनी सदियों में इस हिंदुत्व को संवारा -संस्कारित किया . यही हिंदुत्व भारत के किसानों ,दस्तकारों और मजदूरों का था और है . कबीर ,रैदास ,नानक ,दादू ,नाभा जाने कितने संत थे जिन्होंने वेद -पुराणों को दरकिनार कर एक मानवीय हिंदुत्व का पाठ विकसित किया था . यह हिंदुत्व का भागवत पंथ था , जो दूसरों की पीड़ा का ख्याल करता था - "वैष्णव जन तो तेने कहिये जेने पीर पराई जानी रे " इस हिंदुत्व ने आधुनिक ज़माने में फुले और गाँधी को विकसित किया .
लेकिन इस हिंदुत्व से फासीवादी राजनीति नहीं हो सकती थी . कारण था यह भागवत अथवा वैष्णव हिंदुत्व ; नफरत का भाव सृजित करने में अक्षम था . कबीर और रैदास के राम किसी खास काल या देश में किसी की कोख से जन्मे नहीं थे . वे निर्गुण राम थे ,जो सांसों में बसे थे ,धड़कनों में शामिल थे . "ना मैं मंदिर ,ना मैं मस्जिद ,ना काबे कैलाश में " .मंदिर -मस्जिद में अटने-सिमटने वाले ये राम नहीं थे . मीरा के गुरु रैदास थे . मीरा के कृष्ण उन्मुक्त थे . अपने कृष्ण को उन्होंने अपने प्रेम से ख़रीदा था -"मैंने लियो है गोविंदा मोल , कोई कहै महंगो ,कोई कहे सस्तो ,लियो है बजाके ढोल ." इस कृष्ण को अपने पैर के घुंघरुओं से उन्होंने बाँध लिया था और नाच उठी थीं . स्त्री मुक्ति का यह अबतक का सर्वश्रेष्ठ पाठ है . यह हमारा हिंदुत्व है . इसी हिंदुत्व ने हज़ारों साल से इस भारत देश को संवारा . जाने कितने सांस्कृतिक और सैन्य हमलों को इसके बूते हमारे किसान -मजदूरों -दस्तकारों ने झेला और डिगे नहीं . अपनी सांस्कृतिक अस्मिता अक्षुण्ण रखी .
लेकिन इस हिंदुत्व से कोई राजनीति नहीं हो सकती थी . खून खराबा तो और नहीं . इसके लिए हिंसा के भाव चाहिए . यह हिंदुत्व तो प्रेम का पाठ पढ़ाता है . इसके लिए जरुरी था इसे ख़ारिज किया जाय . सावरकर ने यह काम किया . अपनी पोथी "हिंदुत्व " में उन ने एक नए हिंदुत्व को प्रतिपादित किया . पारम्परिक इस्लाम की कटटरता उन्हें प्रभावित करती थी . उनका अवचेतन कट्टर इस्लामिक तंतुओं से बुना था . उन्होंने राजनीति का हिन्दुकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण का नारा दिया . यह हिन्दू फासीवाद की शुरुआत थी . इससे प्रभावित होकर ही 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस की स्थापना हुई .
( क्रमशः)
7/21/18