बाजारू मीडिया में अश्वत्थामा पत्रकार
बाजारू मीडिया हर उस व्यक्ति या वस्तु की उपेक्षा करता है, जिसका मुनाफे से कोई संबंध नहीं..कल्पेश याज्ञनिक जैसे पत्रकार किन परिस्थितियों में आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं, यह मीडिया के बाजारूपन में निहित है...समझ लीजिए आज मीडिया में वही सर्वाइव कर पा रहा है जो कृष्ण के हाथों अपने माथे की मणि निकलवा कर अश्वत्थामा बन चुका है..
तीस साल कागजी और कम्प्यूटरीय पत्रकारिता में गुजारने के बाद यही समझ में आया कि हिंदी पत्रकारिता और भारत का मध्यम वर्ग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों की नाल का सिरा जिस जगह से जुड़ा हुआ है वहां अज्ञानता, लिजलिजापन, घटियापन, उदासीनता, मूर्खता के सिवा कुछ नहीं। दोनों ही के अंदर बाहर न भीतर..न भौगोलिक, न सामाजिक और न साहित्यक कैसी भी जानकारी नहीं है।
अपने ही देश में उत्तरभारत वालों को दक्षिण के चार राज्यों, उनकी लिपि, उनकी भाषा, उनका सामाजिक परिवेश, उनका रहन-सहन, उनके रीति-रिवाज आदि की क्या जानकारी है? उनके लिये आज भी तेलुगू या कन्नड़ की कोई समझ नहीं..वह सिर्फ मद्रासी है। हां, रविवारीय स्तंभ किसी फीचर एजेंसी से खरीदे गए लेखों में केरल के तटों की सुंदरता, कांजीवरम साड़ी, कन्नड़ संगीत या फिल्मों के बारे में सतही और बेहुदा कंटेट ही देखने को मिलता है।
उत्तर पूर्व के सात राज्यों को हम कितना जानते हैं...बस हमारी पहुंच असम के चाय बागानों तक है या एक सींग वाले गेंडे तक..हमें आज भी यही बताया जाता है कि भारत में सबसे अधिक बारिश चेरापूंजी में होती है..जबकि असलियत यह है कि खदानों के चलते अंधाधुंध जंगल कटाई से चेरापूंजी में अब बहुत कम बारिश होती है और वहां पानी के सभी स्रोत सूख चुके हैं...
आधे से ज़्यादा उत्तर पूर्वी इलाका नशे की गिरफ्त में है...नागालैंड का बच्चा बच्चा नशीले पदार्थ खरीदने के लिए शाम गहराते ही गिरोह में लूटपाट करना शुरू कर देता है...किस तरह एक पीढ़ी बरबाद हो चुकी है..यह कितनों को पता है..लाखों भारतीय फौजियों के चलते गुवाहाटी से आगे बढ़ते ही पूरा इलाका बाकी देश के लिए उतना ही परदेसी है जितना कश्मीर...
दिल्ली में बैठ कर मंगोल चेहरे वालों को विदेशी मान कर उनके साथ हर तरह की अमानुषिक हरकत करने वाले हम भारतीयों को को मीडिया ने अपने ही देश के इतने महत्वपूर्ण हिस्से की कितनी जानकारी दी है...
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, इन दोनों में काम करने वाले पत्रकारों की भीड़ के लिए पत्रकारिता का मतलब केवल हनक है, पैसा है और रुतबा है।
हिंदी का सम्पादक प्रबंधन और मालिक की दया पर जीने वाला वो प्राणी है, जिसका सारा समय अपनी कुर्सी को बचाए रखने में बीतता है। करीब दस साल से तो रीढ़विहीन सम्पादक के चलते सारा सम्पादकीय विभाग प्रबंधन मालिक का नौकर बना हुआ है और मालिक अपने गलत-सलत धंधों को बचाए रखने के लिये अखबार का जमकर इस्तेमाल कर रहा है। बल्कि काली कमाई से अखबार खोले ही इसलिये जा रहे हैं ताकि एक सुरक्षित आड़ बन जाए...
नेताओं को रिझाने के लिये उनका प्रशस्तिगान, सरकारी विज्ञापनों के लिये कटोरा लेकर घूमना, यह अब गली-गली का धंधा बन गया है। क्योंकि अखबार ही एकमात्र ऐसा चिराग है जिसका अलादीन कोई और नहीं, खुद मालिक बन जाता है। चिराग घिस कर दौलत, हनक और रुतबा कमाने का काम सम्पादक के जरिये किया जाता है..
हमारा मीडिया आज तलक अपने पाठकों और दर्शकों को भली-भांति नहीं बता पाया कि इस दुनिया के कई देशों में भ्रष्टाचार एक बुराई है। किन देशों में ट्रेन के कूपे में कोई महिला भी पूरी तरह सुरक्षित हो कर सफर कर सकती है या सन 1934 में अंग्रेजी शासन काल में महिलाएं आज के मुकाबले लाख गुना सुरक्षित थीं। या कई देशों में शारीरिक श्रम कतई बुरा नहीं है। या प्यार करना समाज अवहेलना नहीं है। लेकिन यह सब लिखने का क्या फायदा, जब इलेक्ट्रोनिक माडिया का हर चैनल दिन भर बाबाओं, ज्योतिषियों के जरिये पूरे देश को अंधविश्वास में जकड़ रहा है और अखबारों की वेबसाइट पर बताया जा रहा है कि 29 फरवरी को किस आसन से संभोग करना चाहिये...
7/24/18