सोमवार, 30 मार्च 2020

प्रेमचंद का "कर्बला"

गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद देश कई बरस साम्प्रदायिक दंगों में झुलसता रहा..उसी दौरान
प्रेमचंद ने नाटक ‘कर्बला’ लिखा, जो हिन्दू-मुसलिम एकता की अद्भुत मिसाल बन सकता था लेकिन उसे छापने की हिम्मत उर्दू का कोई प्रकाशक नहीं दिखा पाया। यहां तक कि उनके बेहद करीबी दयानारायन निगम भी उसे दाबे बैठे रहे। 

मुंशी जी उन्हें 17 फरवरी 1924 में लिखते हैं-मैंने इधर पांच महीने में अपने नाविल रंगभूमि के साथ एक ड्रामा लिखा है जिसका नाम कर्बला है। इसमें कर्बला के वाक़यात पर तारीख़ी हैसियत को कायम रक्खे हुए एक ड्रामा लिखा गया है। मैंने खत तो हिंदी में रखा है लेकिन जुबान सरासर उर्दू में है। किस्सा निहायत दिलचस्प है, पर निहायत दर्दनाक। 

मैंने माधुरी में कर्बला पर एक मजमून लिखा था, जिसकी कद्र भी काफी हुई। कोई वजह नहीं कि उर्दू में ड्रामा मक़बूल न हो। तब बस खत तब्दील कर देना पड़ेगा। बाद को यह सिलसिला किताबी सूरत में निकल जाएगा। इसका यकीन रखिये कि मैंने एहतराम को कहीं नजरअंदाज नहीं होने दिया है। एक-एक लफ्ज़ पर इस बात का ख्याल रखा है कि मुसलमानों के मज़हबी एहसासात को सदमा न पहुंचे। मक़सद है पॉलिटिकल-आपसी इत्तहाद को आगे बढ़ाना, और कुछ नहीं। 

(कर्बला की लड़ाई में उनको अपनी मनचाही विषयवस्तु मिल गयी थी। हज़रत हुसैन कर्बला के मैदान में शहीद हुए थे। मुहर्रम उसी की याद और उसी का मातम है। अक्सर दंगे मुहर्रम के मौके पर ही हुआ करते थे और इसे एक व्यंग ही कहना चाहिये कि उसी मुहर्रम की विषयवस्तु में मुंशी जी को एकता का आधार मिल गया।)


नाटक की की भूमिका में मुंशीजी ने लिखा था-कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिन्दू-मुसलिम वैमनस्य का एक कारण यह भी है कि हम हिन्दुओं को मुसलिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं है। जहां किसी मुसलमान बादशाह का जिक्र आया कि हमारे सामने औरंगजेब की तस्वीर खिंच गयी।

नाटक लिखने के पीछे एक कारण यह भी है कि कर्बला की लड़ाई में कुछ हिन्दू भी हज़रत हुसैन के साथ लड़े थे। इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि कुछ हिन्दू हुसैन के साथ कर्बला में शहीद हुए थे। 

बहुत दुखी मन से मुंशी जी ने 22 जुलाई 1924 को दयानारायन निगम को लिखा----
बेहतर है कर्बला न निकालिये। मेरा कोई नुकसान नहीं है। न मैं मुफ्त का झंझट सर पे लेने को तैयार हूं। मैंने हज़रत हुसैन का हाल पढ़ा उनसे श्रद्धा हुई। उनकी बलिदान भावना ने मोहित कर दिया। उसका नतीजा यह ड्रामा था।

7/31/18