सोमवार, 30 मार्च 2020

स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र ‘आनंद भवन’   

सैंकड़ों वर्ष तक भारत पर राज्य करने वाले अंग्रेज़ शासकों ने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा कि उन्होंने जिस भवन को अपना शासन सुदृढ़ करने के लिए बनाया है, वही कभी उनके पलायन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा!

स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की कर्मस्थली तथा सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों का साक्षी रहा इलाहाबाद स्थित ‘आनंद भवन’ है जो अंग्रेज़ों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन का प्रमुख केंद्र रहा।  नेहरू परिवार के इस पैत्रिक भवन का अलग ही इतिहास है।

सन्‌ १८७१ में देश के छोटे लाट सर जॉन स्ट्रेची ने लाट मेयो की अनुमति लेकर उसी वर्ष नवम्बर में २२ एकड़ आबंटित भूमि पर लगभग १९ हज़ार रुपये की लागत से ‘स्वराज भवन’ का निर्माण करवाया था।  उस समय के अंग्रेज़ गवर्नर ने वायसराय की कौंसिल के सदस्य रहे सर सैयद अहमद खां के प्रति सम्मान दर्शाते हुए उनके पुत्र एवं इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सैयद महमूद के नाम पर इस कोठी का नाम ‘महमूद मंज़िल’ रखा।

सैयद महमूद अपने पद से इस्तफ़ा देकर जब निज़ाम, हैदराबाद के यहां चले गए तो मुरादाबाद के रायबहादुर राजा परमानन्द पाठक ने इस भवन को खरीद लिया और इसका नाम ‘पाठक निवास’ हो गया।  उन्होंने १८९९ में पं. मोतीलाल नेहरू के हाथ इसे बेच दिया जिन्होंने इसका नाम ‘आनंद भवन’ रखा।  सन्‌ १९२६ई. में जवाहरलाल नेहरू ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि भवन का मालिकाना हक मिलने पर वह इसे राष्ट्र को समर्पित कर देंगे।  पुत्र की इच्छा का आभास होने पर बैरिस्टर मोतिलाल नेहरू ने ६अप्रेल१९३०ई. को ‘आनन्द भवन’ को राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया।  उसी समय से इसका नाम ‘स्वराज भवन’ हो गया।  ‘स्वराज भवन’ १९४६ तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का मुख्यालय भी रहा।  ‘स्वराज भवन’ को राष्ट्र के नाम समर्पित करने के निर्णय के बाद पं. मोतीलाल नेहरू ने इस पुरानी कोठी की बगल में ही एक नया भवन बनवाया और इसका नाम ‘आनंद भवन’ रखा।

लम्बे आंदोलन के बाद देश आज़ाद हुआ और अंग्रेज़ों को भारत छोड़ कर जाना पड़ा।  जिस भवन को अंग्रेज़ों ने अपना शासन मज़बूत करने के लिए बनवाया था आखिरकार उसी ने उन्हें खदेड़ने में अग्रणी भूमिका निभाई। इलाहाबाद आनेवाले पर्यटक भी अब इस ऐतिहासिक धरोहर को देखे बिना नहीं रह सकते।

8/17/18