सोमवार, 30 मार्च 2020

भारत में फासीवाद (2 )
 प्रेमकुमार मणि 

 कोई भी चीज अस्तित्व में आती है ,तब उसके पार्श्व में कुछ कारण होते हैं . संघ के गठन के पीछे भी कुछ कारण थे .पहला कारण था इस समय तक राजनीति में सामाजिक  स्वार्थों और उनकी टकराहटों का उदय . यानि राजनीति में वर्चस्व की तलाश . दरअसल यह सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली हिन्दू -मुस्लिम तबकों की राजनीति में वर्चस्व हासिल करने की छटपटाहट थी . इसी प्रयास में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की स्थापना हुई . यह हिन्दू द्विजों और मुस्लिम अशरफों के सबसे दकियानूसी तबकों की  राजनीतिक अंगड़ाई थी  

        ह्यूम के प्रयासों से उन्नीसवीं सदी के आखिर (1885 ) में इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन हो गया था . सुधारवादी आंदोलनों से जुड़े लोगों ने सामाजिक दायरे से कुछ ऊपर आ कर आर्थिक -राजनीतिक स्थितियों पर भी विचार करना शुरू किया . जैसे ही कांग्रेस का स्वरूप उभरने लगा समाज के निहित स्वार्थ वालों ने इस पर कब्ज़ा ज़माने की बात सोची . इसका एक भीषण रूप 1895 के पुणे कांग्रेस में दिखा ,जब बाल गंगाधर तिलक ने अचानक पंडाल फूँक डालने की धमकी दी . डॉ आंबेडकर ने  अपनी प्रसिद्ध किताब " what congress  and  Gandhi  have done to the untouchables " की शुरुआत इसी प्रसंग से की है . परिपाटी थी कि कांग्रेस की सभा ख़त्म होने के बाद उसी मंच पर  सोशल कॉन्फ्रेंस की सभा होती थी . इस कॉन्फ्रेंस  के करता -धर्ता सुप्रसिद्ध समाज सुधारक महादेव गोविन्द रानाडे थे . इस में समाज के कमजोर तबकों यथा दलितों और पिछड़े वर्गों के विकास के उपायों पर विमर्श होता था . 1895 के पुणे कांग्रेस के स्वागत मंत्री तिलक थे .उन्होंने हंगामा कर दिया कि यदि सोशल कॉन्फ्रेंस की बैठक इस मंच से होगी तब मैं पंडाल फूँक दूंगा . लोग डर गए और यह सभा नहीं हुई . आंबेडकर तो  इसे ही कांग्रेस से दलितों के अलगाव की शुरुआत मानते हैं . तिलक महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों के हितों और वर्चस्व की कामना का प्रतिनिधित्व करते थे . वह कांग्रेस को अपने कब्जे में ताकत के बल लेना चाहते थे . 1906 में कांग्रेस की भरी सभा में उनने अध्यक्ष पर जूता चला दिया और नतीजतन कांग्रेस दो फाड़ हो गयी . तिलक की विद्वता पर कोई प्रश्न नहीं है ,लेकिन यह बात सही है कि भारतीय राजनीति में मार -पीट जैसी अशिष्टता की शुरुआत उन्होंने ही की . दूसरे छोर पर गोपाल कृष्ण गोखले थे . पुराने ख्याल के इतिहासकार तिलक को गरमदली (रेडिकल ) और गोखले को नरमदली (मॉडरेट ) कहते हैं . मॉडरेट सामाजिक रूप से अधिक प्रगतिशील थे और रेडिकल सामाजिक दकियानूसी ताकतें थीं जो जातपात और सामाजिक ऊंचनीच का समर्थन करती थीं ,लेकिन ब्रिटिश विरोध पर वे अधिक जुझारू थे .  जवाहरलाल नेहरू जब पढ़ते थे तब तिलक के प्रशंसक थे . अंग्रेज विरोधी उनकी अक्खड़ता जवाहरलाल को आकर्षित करती थी .  उनके पिता ने उन्हें समझाया कि जो सामाजिक रूप से दकियानूसी होगा ,उसकी राजनीतिक प्रगतिशीलता के कोई अर्थ नहीं हैं . गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तब उन्होंने गोखले कैंप से खुद को जोड़ा ,उन्हें गुरु रूप में स्वीकार किया ; तिलक से  दूरी बनाई . उत्तर भारत में तिलक का बोलबाला था ,लेकिन इलाहबाद में मोतीलाल नेहरू गोखले की पताका थामे हुए थे . स्वाभाविक था गाँधी नेहरू परिवार से भी आरंभिक दौर में ही जुड़ गए . 

1920 के 1 अगस्त को तिलक की मृत्यु हो गयी . मृत्यु के कुछ पूर्व  गाँधी उनसे मिले थे . तिलक ने विकसित राजनीतिक स्थितियों में गाँधी को समर्थन और आशीर्वाद दिया . लेकिन तिलक के अवसान के बाद उनके शिष्यों ने अपने गुरु के आदेश की ही अवहेलना की .  गाँधी जैसे एक गैरब्राह्मण का नेतृत्व स्वीकार करना उनके लिए कठिन था . ये पांडिचेरी महर्षि अरविंदो को बुलाने गए .उन्होंने राजनीति में आने से इंकार कर दिया . इसी  बीच सावरकर एक नए विचारक के रूप में उभर आये थे . उनकी प्रेरणा से आरएसएस का गठन 1925 ईस्वी में विजयादशमी के रोज नागपुर में हुआ . संस्थापक थे - डॉ ए बी एस मुंजे , डॉ एल बी परांजये , डॉ के बी हेडगेवार , डॉ थोलकर और बाबाराव सावरकर . मुंजे और हेडगेवार तो कांग्रेस से भी प्रमुखता से जुड़े थे ,शेष हिन्दू महासभा में सक्रिय थे . हिन्दू महासभा में भी दो धाराएं बन गयी थीं ,जिसकी चर्चा बाद में होगी .  

   वह समय राष्ट्रीय आंदोलन का था . गाँधी के नेतृत्व में ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी महासंग्राम चल रहा था .इसमें कई न्यूनताएँ भी थीं और अंतर्विरोधों की तो भरमार थी ,लेकिन इन तमाम अंतर्विरोधों के बीच से एक भारतीय राष्ट्र को विकसित करने की कोशिश हो रही थी . कांग्रेस और गाँधी ने कई दफा खुद को बदला . 1932 में आंबेडकर ने जब दलितों का प्रश्न उठाया ,तब गाँधी सहित अनेक नेता भौंचक रह गए . पुणे समझौते पर विस्तार  से बात इसलिए नहीं रखूँगा कि इससे विषयांतर होने का खतरा है . किन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि इस प्रसंग ने माथे  के बल खड़े राष्ट्रीय आंदोलन को पैरों के बल ला खड़ा किया . 1934 में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तब मज़दूर-किसानों के प्रसंग भी राष्ट्रीय आंदोलन के हिस्सा बने . स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में ज़मीदार विरोधी किसान आंदोलन का विकास भी इसी दौर में हुआ . ये तमाम आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन को परिष्कृत कर रहे थे . कांग्रेस के अंदर दक्षिणपंथी और छद्म सांप्रदायिक  ताकतें मज़बूत स्थिति  में थीं ,जहाँ समाजवादी और कई दफा जवाहरलाल नेहरू उससे भिड़ रहे थे ,मुकाबला कर रहे थे . लेकिन हिन्दू -मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति जो खतरनाक मोड़ ले रही थी ,उस पर राष्ट्रीय संघर्ष के उत्साह में लोगों ने समुचित ध्यान नहीं दिया . इसके दुष्परिणाम  हमें  आज़ादी मिलते -मिलते मिल गए  . आज़ादी का दिन ,जो हमारे राष्ट्रीय उत्कर्ष का दिन होना चाहिए था ,राष्ट्रीय पतन का दिन हो गया . जिस राष्ट्र को कवियों ,दार्शनिकों और जनता ने हज़ारों साल में गढा- बनाया था ,वह बिखर गया ; दो टुकड़ों में बँट गया . कोहराम और खून से लथपथ भग्न आज़ादी हासिल हुई . आज़ादी मिलने के छह महीने भी नहीं बीते थे कि इसी साम्प्रदायिकता ने उस महान व्यक्ति को गोलियों से ख़त्म कर दिया ,जिसे लम्बे जंग के दौरान अंग्रेज हुकूमत भी मारने की हिम्मत न कर सकी थी .  
 (क्रमशः )

7/21/18