सोमवार, 30 मार्च 2020

गांधी, गीता और गोलवलकर...
संघ साम्प्रदायिक संस्था है : गांधी

जहाँ एक ओर गीता अहिंसा की बात करती है, वहीं दूसरी तरफ़ हिंसा को भी परिस्थितिवश ज़रूरी मानती है। लेकिन गांधी जी ने गीता से केवल अहिंसा का सिद्धान्त लेकर बाक़ी सब कुछ नकारने की चेष्टा की है।”  

यहां गांधी जी के सचिव प्यारेलाल की पुस्तक पूर्णाहुति चतुर्थ खण्ड से एक छोटा सा प्रसंग दिया जा रहा है, जिसमें सितम्बर 1947 में आरएसएस अधिनायक गोलवलकर से गांधी जी की मुलाकात, विभाजन के बाद हुए दंगों में गांधी और फिर उनकी हत्या (संघियों के शब्दों में ‘गांधी वध’ ) में संघ की भूमिका का विस्तार से वर्णन है..

गोलवलकर से गांधी जी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे – ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है...उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है.’ 

गांधी जी ने उत्तर दिया – ‘ परंतु यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फ़ासिस्टों ने भी यही किया था.’ गांधी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तानाशाही दृष्टीकोण रखनेवाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया...

अपने एक सम्मेलन में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता ने उन्हें ‘हिन्दू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया.. 

उत्तर में गांधीजी बोले – ‘ मुझे हिन्दू होने का गर्व अवश्य है.परंतु मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी है . हिन्दू धर्म की विशिष्टता, जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है ...यदि हिन्दू यह मानते हों कि भारत में अ-हिन्दुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हे घटिया दरजे से संतोष करना होगा… तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू धर्म श्रीहीन हो जाएगा . .. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि  अगर आपके खिलाफ लगाया जानेवाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है, तो उसका परिणाम बुरा होगा.’ 

 इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधीजी से पूछा गया – ‘क्या हिन्दू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता ? यदि नहीं देता तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है ?’

 गांधीजी ने कहा -‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है . मारने का प्रश्न खडा होने के पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है ? दूसरे शब्दों में, हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जांए ..

एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने अथवा फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है ? रही बात दूसरे प्रश्न की, तो यह  मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भली भांति कर सकती है.. अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद  दोनों एक साथ बन जायें तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जांएगे.. उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए, कानून को अपने हाथों में ले कर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए..

...अफलातून देसाई..



7/20/18