अंजू...यार अपन को पत्रकारिता में इसलिए बहुत मज़ा आया कि लड़कियों ने अपन को बेहतरीन दोस्त माना.. दूसरे, उप संपादक के रूप में शुरुआत से अपना खूसटपन बरकरार रहा..और काम के मामले में कोई जेंडर वेंडर नहीं..टके सेर भाजी टके सेर खाजा.. और उस सोच में संपादक बनने तक कोई बदलाव नहीं आया..जब जबलपुर नई दुनिया से मेरठ हिंदुस्तान जाने लगा तो सब लड़कियों ने एक डायरी में मेरे साथ के अपने अनुभव लिखे तो वास्तव में अपने ऊपर गर्व हुआ..
BITV दिल्ली के तो कहने ही क्या..काम का अनुभव तो शानदार था ही..एक बराबरी का अहसास वहां और मजबूत हुआ..और यह भी जाना कि अंडरस्टैंडिंग अपने आप में कितना महत्वपूर्ण एहसास है..कि मैं काम को लेकर बदतमीज़ी की हद पार कर गया लेकिन अगली के चेहरे पे शिकन नहीं क्योंकि यह मालूम था कि बुलेटिन निकालने के तनाव में मेरा रौद्र कोई भी रूप धारण कर सकता है..और आधा घंटे बाद पूरा न्यूज़ रूम मेरे गानों से गूंज रहा होता..
तो जब शुरू से ही स्त्री -पुरुष वाला दो कौड़ी वाला अंतर किया ही नहीं तो काम करवाने में भी कोई भेदभाव नहीं किया..
अपना स्पष्ट कहना था कि अपन को रूप रंग से कोई लेना देना नहीं बेहतर काम और बेहतर दोस्ती..इससे न ज़्यादा न कम.. तो 12-14 जगह 30 साल इसी अंदाज में काम किया..
10/8/18