कालाजार का सवर्णवाद--एक
ढाई फुट की उछाल मारता मच्छर लाखों का क़ातिल...
(यह कोई अख़बारी रिपोर्ताज़ नहीं है एक दारुण कथा है हमारे समाज की...इस कथा को मुज़फ़्फरपुर में बिभेष त्रिवेदी और नरेन्द्र नाथ की रिपोर्ट के आधार पर और फिर वहीं के चिकित्सक मित्र डॉ. निशिन्द्र किन्जल्क के साथ महीनों की बैठकी के बाद शब्दों में ढाल पाया...जबलपुर की 'पहल' को इतना भाया कि तुरंत प्रकाशित कर दिया..आज फेसबुक पर ..)
सामने है तीन साल पहले की एक रिपोर्ट मय तस्वीर के। तस्वीर में एक मां और उसका बेटा। दोनों को कालाजार। पति और बच्चों, नाते-रिश्तेदारों को इसी रोग ने मुर्दा बना कर किसी नदी या तालाब में फिंकवा दिया है या जमीन में दफन करा दिया है । तस्वीर में मां-बेटा दोनों की आंखोें के खोखल बता रहे हैं दुनिया से विदा लेने की तैयारी है। यह तस्वीर तब की है जब मधुबनी के बाबूबरही विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव में राष्ट्रीय और राज्य के नेताओं की रेलमपेल मची हुई थी। उनकी खबर लाने गये गये बिभेष त्रिवेदी को पता नहीं क्या सूझी कि दो किलोमीटर दूर एक मुसहर टोले में पहुंच गये और भेज दी उस मुसहर टोले में कालाजार की तबाही की खबर। एक तरह से यही है कालाजार से अपना पहला साक्षात्कार।
मुसहर यानी जिसका आहार मूस हो। बिहार में जब गेहूं-चावल की कटाई का सीजन आता है तो खेतों में चूहों की बाढ़ आ जाती है। ये चूहे सौ-सौ ग्राम वाले नहीं, बल्कि किलो-किलो से ज्यादा भारी होते हैं। फसल काटने को जो मजूर बुलाये जाते हैं, वे और उनके बाल-बच्चे काम के साथ-साथ अपने भोजन के लिये यही चूहे पकड़ते हैं। बिहार के किसी भी गांव में सबसे किनारे होता है मुसहरों का टोला। इन्हें दलित भी अपने आसपास देखना पसंद नहीं करते, छूने और खाने-पीने की बात ही छोड़िये।
तो, नेताओं की पहुंच से मात्र दो हजार मीटर दूर बसी मुसहरों की चार सौ परिवारों की सतघरा नाम की इस बस्ती में ढाई साल की अवधि में ढाई सौ से अधिक बच्चे, युवा, बूढे, मर्द और औरतें उस मच्छर का शिकार हो चुके हैं, जिसकी उड़ान ढाई से छह फुट की ऊंचाई तक ही होती है। बदबू मारते नाले या तालाब, कूड़े के ढेरों के आसपास बनी झोंपड़ी में जमीन पर सोया हुआ भूखा इनसान इन मच्छरों का सबसे सुलभ शिकार होता है। ऐसी किसी भी बस्ती में रिश्ते-नाते कतई बेमानी हैं। पैदा हुए बच्चे को मां का दूध नसीब होता भी होगा, इसका तो पता नहीं, पर यह तय है कि उसके मुंह में डाले गये भोजन का पहला कौर किसी सड़े-गले पशु या नदी-तालाब के किनारे के घोंघे या किसी चूहे के मांस का ही होता है और पहले ही दिन से यमदूत उसे निहारना शुरू कर देते हैं। इस तरह के हजारों टोले हैं उत्तर बिहार के करीब बीस जिलों में।
तो, बाबूबरही विधानसभा के उस उपचुनाव के मौके पर इस मुसहर टोले की तरफ न झांकने वाले एक से एक नामी-गिरामी नेता कस्बे में आए अपने पार्टी उम्मीदवार को जिताने के लिये। उन सज्जन ने भी चक्कर लगाया, जिन्हें कालाजार उन्मूलन के नाम पर इस देश का राष्ट्रपति पद्मश्री का तमगा थमा चुका है। अस्सी के दशक में जय प्रकाश नारायण के निजी चिकित्सक रहे डॉ. सीपी ठाकुर को कालाजार पर अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञता का रुतबा हासिल है। कालाजार रोगियों के लिये भगवान से कम हैसियत नहीं रही है। फिर वह सांसद बने, देश के स्वास्थ्य मंत्री भी बन गये। लेकिन तब तक उन्हें कालाजार से विरक्ति हो चुकी थी। हां, विश्व स्वास्थ्य संगठन से उन्हें कालाजार उन्मूलन के नाम पर डॉलरों की सौगात नियमित दी जाती रही।
और अब किसी कमाऊ दवा कम्पनी के मालिक (तय है कि कम्पनी उनके नाम पर नहीं होगी) होने के साथ-साथ एक सरकारी आयोग की गैर सरकारी रिपोर्ट के अनुसार कई नरसंहारों की जनक रणवीर सेना के पदाधिकारी भी हैं डॉ. सीपी ठाकुर। 1996-98 के दौरान हुए जहानाबाद के हैबसपुर और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहारों में सीबीआई ने उनके खिलाफ चार्जशीट तैयार की थी। कई दिन तक भूमिगत रहे, फिर सुन्दर सिंह भन्डारी के कार्यकाल में राज्यपाल भवन में काफी समय छुपे रहे। उस समय राज्यपाल का ओएसडी डॉक्टर साहब का ही कोई रिश्तेदार था, उसी की बदौलत मामला सुलटा। केन्द्र में सत्ता बदली तो स्वास्थ्य मंत्री बने, रिश्वत के एक मामले में हटाये गये, फिर दूसरा मंत्रालय थमा दिया गया आदि,आदि।
दुनिया में नब्बे फीसदी भारत में, भारत में नब्बे फीसदी बिहार में, बिहार में नब्बे फीसदी उत्तरी इलाके में और उत्तरी इलाके में नब्बे फीसदी मुसहर टोलों में कालाजार का प्रकोप है लेकिन खास बात यह कि चाहे चम्पारण हो, चाहे मिथिलांचल या फिर तिरहुत का इलाका, इनके गांव के किसी भी मुसहर टोले में कालाजार से मरने वालों की संख्या नब्बे फीसदी से ज्यादा ही होती है।
कालाजार नाम की बीमारी इस देश को आजादी के साथ साथ ही हासिल हुई। उससे करीब 45 साल पहले अंग्रेज सत्ता इसके दर्शन कर चुकी थी। 1904 में बरास्ता अफ्रीका या दक्षिण अमेरिका से भारत आयी इस महामारी ने असम के ब्रह्मपुत्र, बंगाल के हुगली और उत्तर बिहार में मुजफ्फरपुर के बूढ़ी गंडक से सटे इलाकों में कदम धरा था।
विदेशों में अब लोमड़ियों-भेड़ियों में बची और भारत में असम-बंगाल में पूरी तरह खत्म हो चुकी इस महामारी को उत्तर बिहार में गरीबी, जहालत और सरकारी तंत्र का जोकराना रवैया इस कदर भाया कि 2006 का साल भी उसके लिये सौ साल पहले जितना ही महफूज है।
बताया जाता है कि पिछली शताब्दी के शुरू में दो अंग्रेज जाड़ा लग कर आये बुखार की चपेट में आ गये और उनके शरीर पर काले-काले चकत्ते पड़ गये। तभी से नाम पड़ गया काला जार। 1937 तक यह महामारी पचास हजार इन्सानों की जान ले चुकी थी। उस समय बंगाल इस रोग का सबसे बड़ा गढ़ था। 1939 में डॉ. ब्रह्मचारी नाम के चिकित्सक ने यूरिया इस्थुरिबिन का ईजाद कर कालाजार से लड़ने की ठानी। इस दवा की छह सुईं देने से ही मरीज ठीक होने लगे।
दवा ने 1950 तक संजीवनी का काम किया। आजादी के बाद मलेरिया उन्मूलन के लिये सरकार की ओर से बड़े पैमाने पर डीडीटी छिड़काव अभियान शुरू हुआ। अभियान में कालाजार का खात्मा भी शामिल था। 1960 तक डीडीटी छिड़काव ने देश भर में मलेरिया और असम, बिहार और बंगाल में कालाजार को काफी हद तक काबू में कर लिया। लेकिन जब अंतिम चोट करने का वक्त आया तो बिहार का शासनतंत्र गाफ़िल हो गया। जबकि इस दौरान बंगाल और असम अपने-अपने क्षेत्रों को सील कर डीडीटी का छिड़काव करवाते रहे। बिहार में उस समय बरती गयी लापरवाही का ख़ामियाजा आज भी पूरा उत्तरी इलाका भुगत रहा है।
9/21/18