शनिवार, 28 मार्च 2020

डॉ रामधारी सिंह  दिनकर 10 जनवरी 1963  से 3 मई  1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति  थे । अपने कुलपति काल मे  ज़िला हिन्दी साहित्य सम्मेलन के  सचिव  डॉ विष्णु किशोर  झा ‘बेचन ‘ और  चित्रशाला  स्टुडियो के संचालक  तथा  साहित्यनुरागी  हरि लाल कुंज के निमंत्रण पर वे 25 अक्तूबर 1964 को चित्रशाला मे एकल काव्य पाठ करने  आए थे ।उस मौके पर  बंगला के प्रसिद्ध  साहित्यकार  डॉ  बलाइ  चन्द्र मुखर्जी ‘बनफूल ‘ अपनी पत्नी के साथ  उनकी कविताओ  को सुनने आए । मुझे भी हरि  भाई ने बुला लिया था । उस अवसर पर  दिनकर जी ने भारत पर चीनी आक्रमण के संदर्भ मे  लिखी अपनी महाकाव्यात्मक कविता ‘परशुराम की प्रतीक्षा ‘का सिंहनादी स्वर मे पाठ किया । वे चीनी आक्रमण के समय भारत सरकार की नीतियो से बहुत क्षुब्ध  थे । उन्होने कविता पाठ के क्रम मे बताया कि जब  जवाहर लाल नेहरू को मेरी इस  कविता पुस्तक ‘परशुराम की प्रतीक्षा ‘ मे उनकी नीतियो को लेकर की गयी आलोचना  का पता चला तब उन्होने मुझे बुलाया और डांटा  कि यह सब क्या बकवास  है ? मैंने उनसे कहा कि आपकी विदेश नीति बिलकुल असफल रही है  तो वे बहुत क्रोधित  हो गए  और गुस्से से मेज पर मुक्का मारते हुये मुझसे पूछा  कि तुम्ही बताओ  दिनकर मैं क्या करता।? वे परेशान होते रहे ।लेकिन मैं शुरू से नेहरुजी के साथ बराबरी  का बर्ताव  करता रहा हूँ ,इस लिए मैंने अपनी बात बिना झिझक  उनके सामने रख कर  चला आया । ‘ दिनकर जी ने कहा कि नेहरू जी जो चाहते थे ,वह नही कर पाते थे ।लोग उनको वैसा करने नहीं देते थे ।उनके चारो ओर  खुशामदियो की भीड़ रहती थी । दिनकर जी  अपनी कविता का पाठ करते करते कभी कभी बहुत उत्तेजना मे आ जाते और क्रोध  से उनकी आंखे लाल हो जाती । जब उन्होने  कहा कि आज के नेता – 
‘चोरो के हैं हितू ,ठगो के बल है 
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं
जो छल प्रपंच ,सबको प्रश्रय  देते हैं 
या चाटुकार  जन से सेवा लेते हैं 
यह पाप उन्ही का हमको मर गया 
भारत अपने ही घर मे हार गया । 
और इस तरह  दिनकर जी का एकल काव्य  पाठ  समाप्त हुआ जो   मेरे मन मे वह अमिट  छाप छोड़ गया ।
(पुनः प्रसारित )

10/8/18