वहां चे ने अपना ट्रेनिंग कैम्प नानसाहूआजू नदी की घाटी में बनाया, जहां से करीब थे तीन शहर कोचाबामा, सान्ताक्रूज और सुक्रे, जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे। तीन-चार महीने की कड़ी ट्रेनिंग के बाद गुरिल्ला दस्तों ने बोलवियाई फौजी रिसालों पर हमले बोलने शुरू कर दिये। चे की निगाह में क्यूबा अभियान की शुरुआत की तुलना में बोलविया अभियान बेहतर ढंग से गति पकड़ रहा था। लेकिन आगे चल कर हालात बिगड़ते गये। कुल छह माह की गुरिल्ला कारर्वाई में चे के दस्ते ने तीस सैनिक मारे और अपना एक आदमी खोया। इस बीच ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिससे दुनिया भर को पता चल गया कि चे बोलविया में हैं। अमेरिका तुरन्त हरकत में आया और बोलवियाई फौज की सैकेण्ड रेंजर बटालियन को सीआईए की देखरेख में ट्रेनिंग दिलाने के बहाने बोलविया से समझौता किया। 1967 के अप्रैल में राष्टÑपति जानसन के सलाहकार वाल्ट रोस्तोव ने उन्हें असलियत बताई कि चे नहीं मरा और वह बोलविया में है।
तब तक चे की मुश्किलें शुरू हो चुकी थीं। उसके छापामार दस्ते के लोग या तो सैनिक झड़पों में घायल होते जा रहे थे या किसी न किसी बीमारी की चपेट में आ कर असहाय होते जा रहे थे। मौतों का सिलिसला भी शुरू हो गया था। लड़ने वालों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही थी और नयी भारती नाममात्र को थी। उनका स्थानीय जनता से जुड़ाव हो ही नहीं पा रहा था। एक नदी पार करते हुए वह उपकरण भी बह गया, जिसके दम पर चे का क्यूबा से सम्पर्क बना हुआ था। सितम्बर आते-आते अमेरिका से ट्रेनिंग पायी साढ़े छह सौ जवानों की बटालियन पूरी तरह सक्रिय हो चे और उनके दस्तों के खात्मे में जुट गई। चे की 11 महीने के बोलवियाई अभियान के दौरान लिखी गई डायरी पर आखिरी कलम सात अक्टूबर को चली। उस दिन तक चे का दस्ता सैनिक टुकड़ियों से पूरी तरह घिर चुका था और अन्तिम समय हर पल नजदीक आता जा रहा था। उसी दिन चे ने रेंजरों से बचते हुए ला हिगुएरा के गांव में एक बूढ़ी औरत से सैनिक टुकड़ी की बारे में पूछताछ की, पर कोई पुख्ता जानकारी उन्हें नहीं मिली।
चे ने उस औरत को चुप रहने के लिये के लिये कुछ पैसे भी दिये। आठ अक्टूबर को रेंजरों को सूचना मिल चुकी थी कि चे अपने दस्ते के साथ घाटी के किस हिस्से में छिपे हैं। उसी दिन अन्तिम भिडंत हुई और दोपहर डेढ़ बजे पैरों में कई गोलियां खा चुके चे रेंजरों के हाथ पड़ गये। यह था चे का अंत, जिसकी मौत ने उन्हें इस कदर लोकप्रिय बना दिया कि करीब 40 साल बाद जब उनके महाद्वीप के देशों से अमेरिकी दलालों को मार-मार कर भगाया जा रहा था, तो हर किसी की आंखों में चे बसे हुए थे। और आज तमाम दक्षिण अमेरिकी देशों में जो सरकार हैं, वे खुल कर अमेरिकी नीतियों का विरोध कर सत्ता में आयी हैं।
10/9/18