आये दिन बहार के...
वही रस्ता, वही मुसाफ़िर, वही कॉलेज, वही कमरे, वही ढाबा, वही चाय-समोसा, वही पान-सिगरेट का खोखा..साथ के पढ़ने वाले भी वही.. बस टीचरों के चेहरे बदल गए थे...और हाँ समय भी तो..दसवीं तक सुबह सात बजे से साढ़े बारह बजे तक..जाड़ा, गर्मी, बरसात..और अब 11 वीं में साढ़े दस बजे से चार बजे तक..
सवा दस तक रेडियो पर भूले-बिसरे गीतों या नॉन फिल्मी गानों का कार्यक्रम...
सुनो गज़र क्या गाये
साथी न कोई मंज़िल
मेरी नींदों में तुम मेरे ख़्वाबों में तुम
मेरा प्यार मुझे लौटा दो
आँचल से क्यों बांध लिया मुझ परदेसी का प्यार..तुमने मुझको सदा जलाया
आधा घंटे का यह प्रोग्राम अपनी तैयारी भी होती कि आज क्या गाना है कॉलेज में.. अपने क्लासरूम से निकल दो फर्लांग दूर साठवें रूम में बैठक जमती..जहां बिजली के दो तार मिलाने से चिंगारी निकलती और उस चिंगारी से अपनी पनामा सिगरेट सुलगती..
यह आलम बनने से पहले हिंदी की क्लास में सहगल के गानों ने अपनी ख्याति खुश्बू बन उड़ने लगी थी..एक दिन गणेशगंज के उस कुख्यात दादा ने अपना रास्ता रोक लिया, जो पिछले दो साल से शायद ही कभी क्लास में नजर आया हो..
आवाज़ में धमक..सहगल का कोई गाना सुनाओ...छह फुटा, स्मार्ट अजय पांडे..अपन का दम खुश्क.. पांच फुट दो इंच की टहनी घबराहट में लचक मारना भी भूल गयी थी..लेकिन गुरूर किसी श्रेष्ठि से कम नहीं..
नहीं सुनाऊंगा..क्या कर लोगे..
भाई ने आव देखा न ताव, हाथ घुमा दिया..टहनी ने झुकाव मारी.. अजय दादा का हाथ दीवार सर टकराया..
आखिरकार कुंदन लाल सहगल ने दोस्ती करा दी..
अब हम चार का गुट अगले डेढ़ साल तक कॉलेज में कम ही नज़र आया..दो साइकिल पर दो-दो लद या तो बड़ा इमामबाड़ा में पाए जाते या रेजीडेंसी के कब्रिस्तान में .. या उन सिनेमाघरों में, जहां सबसे आगे का टिकट आठ आने का हो और गानों पर ताल देने के लिए बैठने को लकड़ी वाले फट्टे हों..
इन "बुरे" हालात में भी जब 11 वीं पास कर ली तो ख़ुदा या ईश्वर के होने का विश्वास होने लगा..और हम चारों ने केंट एरिया में उन मज़ारों और वीरान शिवलिंगों के चक्कर लगाने शुरू कर दिए, जहां से पैसे उठाये जा सकते थे..
इस बीच में यह पता लग गया कि जेल रोड पर थोड़ा आगे बढ़ो तो अगल बगल बह रहीं दो नहरों में साफ जल लहराता मिलेगा..और उन नहरों के दोनों तरफ ताड़ के पेड़..उनमें ऊपर की तरफ लगी मटकी का स्वादिष्ट द्रव्य...नहर में छपर छपर करने के बाद मटकी उतारी जाती..और लौटती बेर में पैर मन मन भारी.. सिर घूम रहा ...
यह सब करम निपटाते हुए 11वां पास करने के बाद अगस्त में पिता और बहन रिक्शे में बैठा कर ले गए भातखंडे..उस संगीत विद्यालय के प्रिंसिपल कोई अवस्थी जी थे..
उन्होंने पूछा कैसे आना हुआ..
पिता बोले बेटे को गायकी में डालना है..
अवस्थी जी बोले..बहुत लेट कर दिए..अगले सेशन में ही हो पाएगा..
पिता बोले कि कुछ सुन लेते तो ..
अवस्थी जी तैयार हो गए..सुनाओ बेटा..
अपन ने आलाप लिया..और फिर फिर मुखड़ा..और फिर दोनों अंतरा..
...पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई..
खत्म हुआ..अवस्थी जी ने घंटी मारी और चपरासी से फॉर्म लाने को बोला..
अगले दिन शाम चार बजे ज़मीन पर बिछे गद्दे पर तानपूरा हाथ में लिए गुरु और गुरु के सामने स रे ग म की सामूहिक तान में एक आवाज़ अपनी भी...
8/27/18