रविवार, 30 जनवरी 2011

बैहर में साइकिल


राजीव मित्तल
आमतौर पर साइकिल की सीट पर बैठने का नम्बर तो बहुत बाद में आता है। शुरुआत कैंची से ही होती है। बायीं टांग डंडे के नीचे से निकाल कर बाएं पैडल पर और दाहिना पैर सीधे दाहिने पैडल पर। पहले हिचकोले खाती है फिर दौड़ने लगती है साइकिल। आइये, चलें-------

2007 के बरसाती दिनों में ब्यूरो बनाने को लगातार दौरे। जबलपुर में नईदुनिया को लॉंच करने के दिन नजदीक आते जा रहे थे। डॉक्टर रॉय ने होमियोपैथी की दवा तक थमा दी ताकि तनाव से बचाव हो जाये। एक सुबह जीएम ने फिर प्रोग्राम बना डाला। कटनी होते हुए सिवनी, रात को बालाघाट। बूंदें गिर रही थीं। अंधेरे में लगा किसी गहन वन में पहुंच गये। सुबह नजारा देख मन अघा गया। पौ फटते ही पैदल, उसके बाद बाइक से शहर घूम डाला। दोपहर तक काम निपटाने के बाद लौटने का समय आया तो एकाएक मुंह से निकल पड़ा-बैहर होते हुए निकला जाए। साथ के लोग बौखला गये--आपको पता है इस इलाके का? बहुत खराब रास्ता है, लम्बा पड़ेगा। जंगली जानवरों से भी पाला पड़ सकता है..... नक्सली भी दूर नहीं। दिल ने तुरंत चिंघाड़ मारी--भाड़ में झोंको सबको...मैं तो जाऊंगा ही जाऊंगा। अड़ गया तो गाड़ी मुड़ गयी उस रास्ते पर।

शहर से बाहर निकलते ही वादियां शुरू हो गयीं। कई जगह गाड़ी रुकवा कर उतरा और घाटी में उड़ान भरने से अपने को रोका। बैहर करीब आता जा रहा था... दिल काबू से बाहर। बस अड्डे पर कार के रुकते ही दरवाजा खोल भागा अखबार और किताबों से लदी दुकान की तरफ। नेल्सन मेनुएल का पता पूछना था। सही आदमी निकला......अभी तो यहीं घूम रहे थे.. फोन लगाता हूं.. नाम बताइये अपना। फोन पर कुछ बोला और मुझे पकड़ा दिया। नाम बताया तो अगले को कुछ समझ में नहीं आया... कई तरह से याद दिलाया....आवाज आयी--मैं वहीं आ रहा हूं..... दो मिनट बाद वो सामने से आता नजर आया। कोई बड़ा बदलाव नहीं.......पता नहीं क्यों, मैं उजाड़ में गुम होता जा रहा था। उसने मुझे नहीं पहचाना। हाथ बढ़ा कर अपना इतिहास बताया तो चहक उठा--अरे तुम यहां कहां----कितने साल बाद मिल रहे हैं हम। ढाबे की तरफ चले....... चालीस कदमों में चालीस साल पीछे पहुंच चुका था............... लखनऊ स्टेशन के सामने भव्य बाल विद्यामंदिर स्कूल में।

ठीक इन्हीं दिनों में वह अपनी बहन के पास आया था। सीढ़ियों के दूसरी तरफ वाले कमरे में मां के साथ रहता था मैं। दोनों वहीं पढ़ाती थीं। फुटबॉल के खिलाड़ी का शरीर, मैं दमे का मरीज। स्वेटर बुनने की सिलाई जैसा। हर समय मसल्स चमकाता नेल्सन उम्र में पांच साल बड़ा। तफरीह मारने आया था। मैं स्कूल से 12 बजे आ जाता....खाना खाकर बाल संग्रहालय की लायब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद का साथ....यही दिनचर्या। लेकिन अब ....दो-चार दिन की शरमा-शरमी के बाद दोस्ताना हो गया और दुपहिरया मजे से कटने लगी। वो किसी लड़की के साथ चल रहे इश्क..बैहर से लेकर गोंदिया तक फैले जंगलों... बालाघाट और भोपाल में खेले गये फुटबाल मैचों....पता नहीं कहां-कहां की बातें बताता। मैं मजे लेकर सुनता।

एक दिन उसने कहीं से साइकिल का जुगाड़ किया और ऊपर उठा लाया। देखते ही मुद्दतों की हूक जोर पकड़ गयी........ बरसों से अपने को नींद में ही साइकिल चलाते देखता आ रहा था। स्टैंड पर खड़ी साइकिल पास आने को लुभाती....हाय करके रह जाता। सिखाता कौन..... एकाध ने कोशिश जरूर की होगी कभी। अकेले दम तो स्टैंड तक से उतारने की हिम्मत नहीं....एक दिन जुटाई तो साइकिल और मैं दोनों फर्श पर। नजरें चुराते हुए उसे अपना दुखड़ा कहा तो पूरा गलियारा उसकी अट्टाहस से गूंज उठा-अबे क्या लौंडियों की तरह शरमा रहा है, एक दिन में सिखा देता हूं। तुरंत मेरा हाथ पकड़ा और साइकिल को उठा कर नीचे ले गया....गद्दी पर बैठ , मैं हैंडिल संभालता हूं.......कैंची सिखाने में समय खराब होगा। उसने साइकिल थामी और मैं धड़क ते दिल से गद्दी पर बैठ गया। उसने आगे डंडे पर आसन जमा हैंडिल थाम लिया.....अब पैडल पर पांव मार। दम साध कर दबाव बनाया.... पहिये घूमे.. साइकिल खिसकी....तेज हुई और फिर बगैर लड़खड़ये भागने लगी.....मैं सातवें आसमान पर.... गेट के बाहर निकल ट्रैफिक का हिस्सा बनते ही पैदल चलने वालों को हिकारत की नजर से देखते हुए पांच साल पीछे दिल्ली- रायबरेली पहुंच गया.... जहां मुझे छोड़ बाकी सब लड़के किराये की साइकिल दौड़ाते थे । बस, आंसू नहीं निकलते थे....पर, दिल पे हाथ धरे देखता और अपने और दमे पर लानतें भेजता ...... इत्ते बड़े हो गये...साइकिल चलानी नहीं आती...धत्त.... बेटा, तुझसे से तो कोई लड़की पटने से रही। और अब पैडल मारते हुए.....कहां हो रजनी गुप्ता.....मंजू बैनर्जी--- कहां हो दीपाली चटर्जी.... पूनम अग्रवाल (दिखा-दिखा कर साइकिल चलातीं छाती पर मूंग दलने को)....आकर देखो....मैं साइकिल चला रहा हूं..... कैंची नहीं..... सीट पर बैठ कर । फिर तो आये दिन रेजीडेंसी..चिड़ियाघर..बड़ा इमामबाड़ा....केन्ट...।
मेरा महानतम सपना पूरा कर नेल्सन कुछ दिन बाद बैहर लौट गया। छह महीने बाद मैं हो गया साइकिल वाला। वह अगले साल आया। उसके बाद भी। फिर सिलसिला टूट गया। मां ने नौकरी छोड़ दी तो बालविद्यामंदिर भी कहीं गुम हो गया। मां नहीं रहीं। उसकी बहन रिटायर हो कर बैहर में......
बस का हॉर्न जोर से बजा तो चौंका..नेल्सन चाय का कप थमा रहा था। अचानक मुंह से निकल गया ..तुमने उसी से शादी की ना....हां, मेबिल से ही...तीन बेटियां है....दो की मैरिज हो गयी। याद है न... उन दिनों मेबिल ने तुम्हें खत भी लिखा था खंडवा से। अरे......... कैसे भूल सकता हूं कभी न दिखी मेबिल को। एक बार बंबई से लौटते समय मैं खंडवा स्टेशन पर काफी देर तक उसका इंतजार करता रहा था, लेकिन वो न आयी......ट्रेन चली तो शक्ल पर बारह की सुईं सजा कर सीट पर जा बैठा...... उसे मेरा खत नहीं मिला होगा शायद।

चल घर चल...मेबिल से मिल कर जाना। हां, चलते हैं... दीदी कैसी हैं..... बिस्तर पर हैं...उन्हें फालिज मार गया। अगले महीने मैं भी रिटायर हो रहा हूं। उसकी बहन का 40 साल पहले का सांवला सलोना आदिवासी चेहरा.. मेबिल का उसकी फोटो के साथ अटपटी हिंदी में लिखा गया खत...नेल्सन का मसल्स धारी शरीर। सब गोल-गोल घूमने लगे। एक झौंक में जीएम को पकड़ा और उन्हें नक्सली....खराब रास्ता....जंगल...भालू..अजगर.. के कई सारे डर दिखा कर तुरंत वहां से चल देने को हल्ला मचाने लगा। नेल्सन.......................मैने बरसों से साइकिल नहीं चलायी है। बस अड्डे स े निकल कार मंडला की तरफ मुड़ गयी। चल नहीं रही थी...मैं जैसे धकेल रहा था उसे।


रविवार, 9 जनवरी 2011

मेरठ की बिल्ली और उसकी बच्चियां






राजीव मित्तल
2008 की बरसात में मेरठ में कदम धरते ही दिल डूब गया। एक हफ्ते किसी तरह टिम्बक टू होटल में गुजार कर शास्त्रीनगर में घर लिया। वहां भी जबलपुर की याद सताती। आॅफिस में ज्यादा से ज्यादा समय गुजारने की कोशिश करता था तभी एक सुबह घर की मुंडेर पर आंखें झपकाती वो दिख गयी। बड़े हो गये तीन बच्चे साथ में बैठे उधम मचा रहे थे। सभी गोरे चिट्टे। नीचे सड़क से डंडा दिखाया जा रहा था। मकान मालिक से पता चला कि किसी के घर पाली जा रही वो बिल्ली अचानक घर से बाहर कर दी गयी। उसे तो अपना अपराध पता नहीं, पर एक शिशु के दुनिया में कदम धरने से यह निर्वासन झेलना पड़ रहा था। रसोई के साथ लगे लोहे के जाल से उसकी ताक-झांक शुरू हो गयी थी। छत वहीं से शुरू होती थी, जहां उसका ठिकाना था। एक सुबह चाय बनाने को दूध उबाल रहा था, कि म्याऊं-म्याऊं होने लगी। बिल्लो रानी की निगाह दूध पर थी। ठंडा कर प्याले में डाला और ऊपर रख आया। अब हर सुबह की दूध-चाय हम दोनों साथ-साथ पीते। वो छत पर मैं रसोई में। बच्चे बड़े हो गये थे तो मां को छोड़ कहीं भाग लिये। तब तक अपना बेटा भी जबलपुर से आ गया। एक दिन रसोई में आॅमलेट का आयोजन चल रहा था कि ऊपर से मीठी म्याऊं नहीं, ककर्श आवाज के दर्शन हुए। तमतमाते चेहरे से आंखें फाड़ कर हमें देखा जा रहा था। बिहार की रंगदारी यहां भी! हाथ बढ़ा कर अंडा डाला गया, तब आवाज धीमी हुई-ठीक है, थोड़ा और। बेटे ने ऊपर हाथ बढ़ाया तो देवी जी की चोंचलेबाजी शुरू हो गयी। अपनी गर्दन जंगले के अंदर डाल कर बेटे के हाथ पर रख दी कि जरा ढंग से सहलाओ। अगली सुबह वो कूद कर साथ बैठ गयी। अब वह खाने के सामान में अपना हिस्सा ऊपर से ही बोल कर अलग रखवा लेती। पहले हाथ बढ़ा कर प्यार करना पड़ता, अब गोद में बैठ कर लाड़ लड़ाती। सुबह आॅफिस की भागम-भाग में भी दस मिनट उसे देने जरूरी थे। बाकी समय उसका याराना बेटे के साथ चलता। बीच-बीच में लखनऊ या और कहीं जाना हुआ तो घर कुछ दिन बंद रहता। लौटने पर शिकायतों का अंबार-कहां गये थे नालायकों मुझे छोड़ कर। दो दिन से चूहे खा कर गुजारा कर रही हूं। मार भी खायी एक के घर में। आंखें झपका चोट दिखायी। वास्तव में आंख के नीचे गहरा घाव था। अब हम दो से तीन हो गये। अगले चार महीने रुटीन में। बीच-बीच में वो भी कई-कई दिन गायब रहती। सड़क पर या नाली के किनारे अपने दोस्त के साथ मटरगश्ती करती दिख जाती। खूब नैन मटक्को चलती उसकी। आवाज देने पर भाग खड़ी होती। गर्मियां शुरू हो चुकी थीं। अब उसके लिये पानी का भी ध्यान रखना पड़ता। अप्रैल के आखिर में उसकी दुबली-पतली काया हरी-भरी हो गयी। आंखें चुराने लगी। अलमारी वगैरह में दुबक कर बैठ जाती। समझ में आ गया कि प्रसूति के लिये जगह तलाश रही है। होने वाले बच्चों को बिल्ले से बचाने की जुगत। हमने उसे कमरे से बाहर कर सीढ़ियों के बीच में खाली जगह दिखा दी कि जो करना यहीं करना, नीचे का दरवाजा बंद रहता है बिल्ले का कोई खतरा नहीं। कुछ ही दिन में मातृत्व का पूरा असर दिखने लगा। मई आधा गुजर गया। एक रात नौ बजे आॅफिस में बेटे का फोन आया कि घर आकर चार बच्चों की मां के दर्शन करो। सारा काम छोड़ घर भागा। बेटा नीचे ही मिल गया और सीढ़ियों के कोने में माता जी के दर्शन कराये। आखें खोल कर मुस्करायी और बच्चों को चाटने लगी। चारों थन से लगे हुए थे। बेटे ने बताया मादा हैं चारो। अब अपना परिवार महिला प्रधान हो गया। बेटे ने आंगन में उजाला कर एक के बाद एक चारों को ऊपर ला कर दिखाया। दोनों हथेलियों में चारों समा गयीं। बंद आंखें, हल्की-हल्की आवाज निकल रही, चेहरा गुलाबी, छोटी सी लाल-लाल जीभ। चारों को अपनी मां का गोरापन मिला था। जच्चाघर में लेटी मां उछल कर ऊपर आयी और बच्चों को मुंह में दबा कर ले गयी। अगले दस दिन जच्चा-बच्चा सेवा में निकल गये। कुछ समय के लिये मां चली जाती तो चारों की रखवाली करनी पड़ती। अब रेंग-रेंग कर सीढ़ियों से नीचे टपकने लगीं। मां गुहार मचाने लगती-अरे नदीदों, मेरी बच्चियों को बचाओ। भाग कर उन्हें बीन कर मां के पास रखना पड़ता। फिर आंखें खुलनी शुरू हो गयीं। सबके लिये दूध का इन्तजाम किया गया। चारों ने चलना भी शुरू कर दिया। अब पूरा परिवार आंगन मेंआ धमकने लगा। एक दिन माता जी को पता नहीं क्या सूझी कि एक-एक कर चारों को मुंह में दबा कर छत पर ले गयीं। और वहां से किसी दूसरे की छत पर। उसका यह राग-पट्टा समझ में नहीं आया। घर बिल्कुल सूना हो गया। कभी-कभार कोई नजर आ जाता तो उठा लाते। लेकिन कुछ देर बाद गायब। अब उनके बिना आदत डालनी पड़ी। एक सुबह जाली के दरवाजे पर खुड़-खुड़ हुई। बेटे ने कहा-सबसे छोटी पधारी है। उसने देखते ही चिंघाड़ मारी-दरवाजा खोलो, भूख लगी है। उसे अंदर किया तो बाकी तीन भी कहीं से टपक गयीं। इस बार चारों पलंग पर चढ़ धमाल करने लगीं। चारों कंट्रोल से बाहर। किसी तरह निकाला, तो जाली वाले दरवाजे पर तड़पड़ चढ़ कर पंजे फंसा लिये और एक सुर में चिल्लाना शुरू कर दिया। छोटी तो सप्तम सुर में थी। फौरन बाहर निकल खींच-खींच कर उतारा और खाने को बिस्कुट दिये। पेट भर गया तो सीढ़ी के रास्ते छत पर। चटाई पर योग आसन करना दूभर कर दिया। उनके महीन दातों को हाथ-पैर की उंगलियां बड़ी पसंद थी। एक दिन छोटी मुंह में चूहा ले आयी और दिखा-दिखा कर शिकार से खेलने लगी। किसी तरह पिंड छुड़ाया। छत का दरवाजा बंद कर दो तो उसके नीचे की जगह से अंदर आ जातीं। मां दरवाजा खुलवाती। दस दिन के लिये लखनऊ जाना हुआ। वहीं बताया गया कि मेरठ छोड़ना है। लौट कर वापस लखनऊ जाने की तैयारी शुरू हो गयी। बिल्ली और उसके बच्चे शक्ल दिखाने आते और कुछ खा-पी कर चले जाते। हम बाप-बेटे भी अब मोह कम करने में लग गये। आखिरी दिन जब सामान ट्रक पर लद रहा था, चारों आयीं और खाली पड़े सारे घर में चक्कर लगा कर चली गयीं। छोटी एक बार फिर आयी और टाटा कर यह जा -वह जा। चलने लगे तो माता जी दिखीं लेकिन कोई लिफ्ट नहीं मारी। बेटे ने एक दिन चारों के कई फोटो खींचे थे। उन्हीं को देख कर जी बहल जाता है।