रविवार, 9 जनवरी 2011

मेरठ की बिल्ली और उसकी बच्चियां






राजीव मित्तल
2008 की बरसात में मेरठ में कदम धरते ही दिल डूब गया। एक हफ्ते किसी तरह टिम्बक टू होटल में गुजार कर शास्त्रीनगर में घर लिया। वहां भी जबलपुर की याद सताती। आॅफिस में ज्यादा से ज्यादा समय गुजारने की कोशिश करता था तभी एक सुबह घर की मुंडेर पर आंखें झपकाती वो दिख गयी। बड़े हो गये तीन बच्चे साथ में बैठे उधम मचा रहे थे। सभी गोरे चिट्टे। नीचे सड़क से डंडा दिखाया जा रहा था। मकान मालिक से पता चला कि किसी के घर पाली जा रही वो बिल्ली अचानक घर से बाहर कर दी गयी। उसे तो अपना अपराध पता नहीं, पर एक शिशु के दुनिया में कदम धरने से यह निर्वासन झेलना पड़ रहा था। रसोई के साथ लगे लोहे के जाल से उसकी ताक-झांक शुरू हो गयी थी। छत वहीं से शुरू होती थी, जहां उसका ठिकाना था। एक सुबह चाय बनाने को दूध उबाल रहा था, कि म्याऊं-म्याऊं होने लगी। बिल्लो रानी की निगाह दूध पर थी। ठंडा कर प्याले में डाला और ऊपर रख आया। अब हर सुबह की दूध-चाय हम दोनों साथ-साथ पीते। वो छत पर मैं रसोई में। बच्चे बड़े हो गये थे तो मां को छोड़ कहीं भाग लिये। तब तक अपना बेटा भी जबलपुर से आ गया। एक दिन रसोई में आॅमलेट का आयोजन चल रहा था कि ऊपर से मीठी म्याऊं नहीं, ककर्श आवाज के दर्शन हुए। तमतमाते चेहरे से आंखें फाड़ कर हमें देखा जा रहा था। बिहार की रंगदारी यहां भी! हाथ बढ़ा कर अंडा डाला गया, तब आवाज धीमी हुई-ठीक है, थोड़ा और। बेटे ने ऊपर हाथ बढ़ाया तो देवी जी की चोंचलेबाजी शुरू हो गयी। अपनी गर्दन जंगले के अंदर डाल कर बेटे के हाथ पर रख दी कि जरा ढंग से सहलाओ। अगली सुबह वो कूद कर साथ बैठ गयी। अब वह खाने के सामान में अपना हिस्सा ऊपर से ही बोल कर अलग रखवा लेती। पहले हाथ बढ़ा कर प्यार करना पड़ता, अब गोद में बैठ कर लाड़ लड़ाती। सुबह आॅफिस की भागम-भाग में भी दस मिनट उसे देने जरूरी थे। बाकी समय उसका याराना बेटे के साथ चलता। बीच-बीच में लखनऊ या और कहीं जाना हुआ तो घर कुछ दिन बंद रहता। लौटने पर शिकायतों का अंबार-कहां गये थे नालायकों मुझे छोड़ कर। दो दिन से चूहे खा कर गुजारा कर रही हूं। मार भी खायी एक के घर में। आंखें झपका चोट दिखायी। वास्तव में आंख के नीचे गहरा घाव था। अब हम दो से तीन हो गये। अगले चार महीने रुटीन में। बीच-बीच में वो भी कई-कई दिन गायब रहती। सड़क पर या नाली के किनारे अपने दोस्त के साथ मटरगश्ती करती दिख जाती। खूब नैन मटक्को चलती उसकी। आवाज देने पर भाग खड़ी होती। गर्मियां शुरू हो चुकी थीं। अब उसके लिये पानी का भी ध्यान रखना पड़ता। अप्रैल के आखिर में उसकी दुबली-पतली काया हरी-भरी हो गयी। आंखें चुराने लगी। अलमारी वगैरह में दुबक कर बैठ जाती। समझ में आ गया कि प्रसूति के लिये जगह तलाश रही है। होने वाले बच्चों को बिल्ले से बचाने की जुगत। हमने उसे कमरे से बाहर कर सीढ़ियों के बीच में खाली जगह दिखा दी कि जो करना यहीं करना, नीचे का दरवाजा बंद रहता है बिल्ले का कोई खतरा नहीं। कुछ ही दिन में मातृत्व का पूरा असर दिखने लगा। मई आधा गुजर गया। एक रात नौ बजे आॅफिस में बेटे का फोन आया कि घर आकर चार बच्चों की मां के दर्शन करो। सारा काम छोड़ घर भागा। बेटा नीचे ही मिल गया और सीढ़ियों के कोने में माता जी के दर्शन कराये। आखें खोल कर मुस्करायी और बच्चों को चाटने लगी। चारों थन से लगे हुए थे। बेटे ने बताया मादा हैं चारो। अब अपना परिवार महिला प्रधान हो गया। बेटे ने आंगन में उजाला कर एक के बाद एक चारों को ऊपर ला कर दिखाया। दोनों हथेलियों में चारों समा गयीं। बंद आंखें, हल्की-हल्की आवाज निकल रही, चेहरा गुलाबी, छोटी सी लाल-लाल जीभ। चारों को अपनी मां का गोरापन मिला था। जच्चाघर में लेटी मां उछल कर ऊपर आयी और बच्चों को मुंह में दबा कर ले गयी। अगले दस दिन जच्चा-बच्चा सेवा में निकल गये। कुछ समय के लिये मां चली जाती तो चारों की रखवाली करनी पड़ती। अब रेंग-रेंग कर सीढ़ियों से नीचे टपकने लगीं। मां गुहार मचाने लगती-अरे नदीदों, मेरी बच्चियों को बचाओ। भाग कर उन्हें बीन कर मां के पास रखना पड़ता। फिर आंखें खुलनी शुरू हो गयीं। सबके लिये दूध का इन्तजाम किया गया। चारों ने चलना भी शुरू कर दिया। अब पूरा परिवार आंगन मेंआ धमकने लगा। एक दिन माता जी को पता नहीं क्या सूझी कि एक-एक कर चारों को मुंह में दबा कर छत पर ले गयीं। और वहां से किसी दूसरे की छत पर। उसका यह राग-पट्टा समझ में नहीं आया। घर बिल्कुल सूना हो गया। कभी-कभार कोई नजर आ जाता तो उठा लाते। लेकिन कुछ देर बाद गायब। अब उनके बिना आदत डालनी पड़ी। एक सुबह जाली के दरवाजे पर खुड़-खुड़ हुई। बेटे ने कहा-सबसे छोटी पधारी है। उसने देखते ही चिंघाड़ मारी-दरवाजा खोलो, भूख लगी है। उसे अंदर किया तो बाकी तीन भी कहीं से टपक गयीं। इस बार चारों पलंग पर चढ़ धमाल करने लगीं। चारों कंट्रोल से बाहर। किसी तरह निकाला, तो जाली वाले दरवाजे पर तड़पड़ चढ़ कर पंजे फंसा लिये और एक सुर में चिल्लाना शुरू कर दिया। छोटी तो सप्तम सुर में थी। फौरन बाहर निकल खींच-खींच कर उतारा और खाने को बिस्कुट दिये। पेट भर गया तो सीढ़ी के रास्ते छत पर। चटाई पर योग आसन करना दूभर कर दिया। उनके महीन दातों को हाथ-पैर की उंगलियां बड़ी पसंद थी। एक दिन छोटी मुंह में चूहा ले आयी और दिखा-दिखा कर शिकार से खेलने लगी। किसी तरह पिंड छुड़ाया। छत का दरवाजा बंद कर दो तो उसके नीचे की जगह से अंदर आ जातीं। मां दरवाजा खुलवाती। दस दिन के लिये लखनऊ जाना हुआ। वहीं बताया गया कि मेरठ छोड़ना है। लौट कर वापस लखनऊ जाने की तैयारी शुरू हो गयी। बिल्ली और उसके बच्चे शक्ल दिखाने आते और कुछ खा-पी कर चले जाते। हम बाप-बेटे भी अब मोह कम करने में लग गये। आखिरी दिन जब सामान ट्रक पर लद रहा था, चारों आयीं और खाली पड़े सारे घर में चक्कर लगा कर चली गयीं। छोटी एक बार फिर आयी और टाटा कर यह जा -वह जा। चलने लगे तो माता जी दिखीं लेकिन कोई लिफ्ट नहीं मारी। बेटे ने एक दिन चारों के कई फोटो खींचे थे। उन्हीं को देख कर जी बहल जाता है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ दिन जानवर भी साथ रहे तो मोह सा हो जाता है
    आपका संस्मरण अच्छा लगा
    चित्र भी सुन्दर हैं
    आभार
    शुभ कामनाएं

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  2. डियर सर, पहली बार आपका ब्लॉग देखा... बहुत अच्छा लगा... लिखते रहिए!!

    आपका

    रामकृष्ण गौतम

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