मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

एमएसटी यानी प्रियंका चोपड़ा नाइट का पास

राजीव मित्तल
एमएसटी धारक होना यानी परिवार की चिक-चिक और दफ्तर के तनावपूर्ण माहौल से निकल राहत पाने का दैवीय वरदान। अगर आपकी एमएसटी सौ किलोमीटर के दायरे में आती है तो फिर क्या कहने। यानी डेढ़ घंटे का लाजवाब सफर। आमतौर पर एमएसटीधारियों की बड़ी संख्या सरकारी नौकरी करने वालों की होती है, यानी जिन्हें साल में करीब 200 दिन घर में गुजारने हैं और 165 दिन दस से पांच की नौकरी के लिये एक शहर से दूसरे शहर का सफर करना है। ऐसे लोग लिंक सिटी जैसी ट्रेनों के ज्यादा मुफीद बैठते हैं, जो इन्हें समय पर ले जाती हैं और समय पर छोड़ देती हैं। उस ट्रेन के हर डिब्बे में आम यात्रियों के अलावा एक मजमा ऐसा भी होता है, जो एक-दूसरे को ओए-oeye से सम्बोधित करता है। इन सभी के पास अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार ब्रीफकेस या रैक्सीन के बैग या कपड़े के थैले होते हैं, जिनमें आफिस से संबंधित कागजात-डायरी के अलावा टिफनबॉक्स, एक जासूसी उपन्यास और पानी की बोतल होती है। इन्हीं में किसी एक के पास डग्गामार किस्म की ताश की गड्डी होती है। उस ताशधारी का रुतबा अंधों में काने वाला होता है। पूरे डिब्बे में ताश फेंटते चार-पांच गुटों का दिख जाना आम बात है। लेकिन एमएसटीधारियों की सवारी वो ट्रेनें भी होती हैं, जिनकी चहलकदमी दूर-दराज तक होती है। जिनमें जनरल कम, स्लीपर के डिब्बे ज्यादा होते हैं और जो एसी की विभिन्न बोगियों से भी सुसज्जित रहती हैं। एमएसटीधारियों की बड़ी संख्या स्लीपर को ही अपने मायके या ससुराल का माल समझती है। चूंकि उनकी यात्रा का टाइम अमूमन सुबह आठ बजे के बाद और रात को 10 बजे से पहले का होता है इसलिये एमएसटीधारकों की स्लीपर की बैठकी आरक्षित यात्रियों को खिजलाती तो है, पर कंट्रोल से बाहर नहीं होने देती। साईं इतना दीजिये जिसमें कुटुंब समाय वाले देश में इतना तो चलता ही है चाहे कभी रेल मंत्रालय के सर्वेसर्वा रहे नीतीश कुमार ने स्लीपर में एमएसटी को न धंसने देने के कितने ही कानून बना डाले हों।
यह तो हुआ एमएसटी का चारित्रिक चित्रण। सृष्टि का यह भुनगा सा प्राणी भी कभी एमएसटी के मल्टी किस्म के टेस्ट ले चुका है। मीटर गेज से लेकर ब्रॉड गेज तक की इस एमएसटी के दो छोर हुआ करते थे। एक तरफ लखनऊ तो दूसरी तरफ कानपुर। लखनऊ में चित्रकूट एक्सप्रेस घरवाली से ज्यादा अपनी लगती थी, तो रात दो बजे कानपुर स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस हरजाई माशूका सी। पता नहीं कहाँ-कहाँ मुंह मारती आती थी कमबख्त। चित्रकूट छूटती हमेशा शाम 4.20 पर ही थी। दो-चार बार ही ऐसा हुआ होगा कि वो चार-पांच किलोमीटर चल कर लौटी हो क्योंकि अक्सर गार्ड चढ़ना भूल जाता था या उसका हलब्बी ट्रंक प्लेटफार्म पर छूट जाता था। जहां तक साबरमती का सवाल है, उसका टाइम ऑफिस से फोन कर पूछना पड़ता था, क्योंकि अगर राइट टाइम हुई तो स्टेशन पहुंचने तक छूट जाएगी और रात तीन बजे अगली ट्रेन होती थी वैशाली, जो एमएसटी वालों की सूरत तक देखना पसंद नहीं करती थी। सो, साबरमती को खड़ा रखने के लिये कहना पड़ता था कि ट्रेन में बम है। लेकिन वो समय पर महीने में छह दिन भी नहीं आती थी इसलिये अपने को उसी से दिल लगाना पड़ा। चूँकि अपनी नौकरी सरकारी नहीं थी इसलिये हम खांटी एमएसटीधारक कभी नहीं कहलाये। मिलावटी इसलिये थे कि जिस तारीख को जाते थे उससे अगली तारीख को लौटते थे। इसलिये ताश खेलते, ब्रीफकेस को पीट कर गाना गाते, शेर ओ शायरी करते या अपने मोहक दिनों की गाथा सुनाते गुटों के बीच अपन मदारी के खेल में दर्शकनुमा थे। कानपुर में साबरमती का हरजाईपन प्लेटफार्म से दोस्ती करने को मजबूर कर गया। इसलिये चाहे टीटी हो या कुली या चायवाला या पान मसाले वाला या फिर एच व्हीलर्स वाला, सब -हिंदोस्तां हमारा- जैसे थे। खास कर किताब विक्रेता। न जाने कितनी रातें उसे कम्बल उढ़ा नींद में गाफिल कर उसकी किताबें और मैगजीन बेचते और बांचते गुजारीं। अखबारों के अलावा साबरमती में बैठ कर ही पता चलता था वो भी आंखों देखा कि लातूर का भूकम्प कितना कमीना था या मुम्बई में हुए बम धमाके कितने जानलेवा थे। क्योंकि यहां-वहां कमर सीधी करने की जगह देने वाले स्लीपर के डिब्बों में यात्रियों का सैलाब उमड़ा बड़ा होता था, या वे बिल्कुल खाली होते थे। सबसे बड़ी बात कि कई बार लम्बी इंतजारी के बाद ट्रेन में ऐसी कसी हुई नींद आती थी कि बचपन में क्या लोरी सुन कर आती होगी। इसके चलते कई बार जब किसी स्टेशन पर नींद खुली तो वो लखनऊ से दो-चार कदम आगे ही होता था। एक यात्रा गार्ड के डिब्बे में भी की, तभी पता चला कि वो कैसी -बला- है। साथ में यार-दोस्त हों तो क्या कहने, फिर हम भी खांटी ओए ओए हो जाते थे।

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