बुधवार, 8 दिसंबर 2010

ऐलान मत कीजिये, जनता के कान पक गये हैं

राजीव मित्तल
नयी निवेली सरकार ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी है। बयानों और ऐलानों का चौतरफा जोर है। वित्तमंμाी चिदम्बरम हों या विदेशमंμाी नटवरसिंह, सब अपने रंग में आते जा रहे हैं। शुरुआत में ही नटवर जी का हाल अटल जी जैसा हो चला है यानी बोलना कुछ चाहते हैं मुंह से निकलता कुछ और है। सोनिया और राहुल रायबरेली में मुलायम सरकार पर ऐसी टिप्पणी कर आये कि दोनों तरफ से तलवारें खिंच गयीं, और अटल जी ने भी यह कड़वी गोली निगल ही ली कि गुजरात के दंगे फीलुगड पर भारी पड़े । हालांकि उनके इस बयान पर तोगड़िया ने आंखें तरेर कर पूर्व प्रधानमंμाी के मनाली प्रवास में खटास डाल दी है। सांसद शहाबुद्दीन भी पीछे क्यों रहते, उन्होंने अपनी तुलना सिकंदर महान से कर दी। पर इन सब भारियों पर भारी पड़े रेलवे मंμाी लालू प्रसाद यादव, जिनका एक-एक ऐलान उनके कुछ कर गुजरने का आभास दे रहा है। सबसे शानदार काम तो उन्होंने रेलवे में प्लास्टिक कपों पर रोक लगा कर किया। प्लास्टिक कचरा एक दु ज्स्वप्न बन चला है और जिससे बचने को लेकर पिछले पांच साल से सरकारी आभियान छिड़ा हुआ था, पर अन्य सरकारी अभियानों की तरह इसका भी टायर पंक्चर कर गया था। लेकिन अब कुल्हड़ों में चाय पिलवा कर लालू ने पंक्चर हुए अभियान की गाड़ी फिर आगे बढ़ा दी है। अब वह एसी दर्जे के रेलयाμिायों के लिये उस खादी को ओढ़ना-बिछौना बनाने पर तुले हैं, जो किसी फैशन शो का मोहताज हो चली थी। जिससे बनी टोपी तक नेताओं के सिर से उतर गयी थी। एक और नायाब योजना बेरोजगार युवकों को हिल्ले से लगाने को रेलवे स्टेशनों पर एएच व्हीलर के नाम का बरसों से चला आ रहा बुकस्टालों का साम्राज्य खत्म करना है। और इससे भी नायाब वह योजना है, जिसने 12-13 साल पहले विदेशियों तक के कान खड़े कर दिये थे यानी देश भर में चरवाहा स्कूल शुरू करने की बात। हालांकि इसका ऐलान इस योजना के प्रणेता लालू प्रसाद ने खुद नहीं किया। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि यह कहने वाली उनकी करीबी मानव संसाधन राज्यमंμाी कांति सिंह हैं और जिसे जुबान फिसलना तो नहीं ही कहा जा सकता। ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाने के लिये केवल साधुवाद ही निकलता मुंह से अगर दुनिया के पहले पहल खुले चरवाहा स्कूल की हालत न देख ली होती, न जान ली होती। 1992 में मुजफ्फरपुर के तुर्की के छाजन गांव में सबसे पहले खुले उस स्कूल में हर साल करीब सौ बच्चों की भर्ती होनी थी, मुफ्त में उनकी खिलाई-पिलाई होनी थी, उनकी गाय-भैेंसे भी स्कूल के आसपास चरा करतीं। शायद उन्हें कुछ पैसा भी मिलता। लेकिन आज उसका या हर जिले के कई प्रखंडों में खुले उस जैसे अन्य चरवाहा स्कूलों का वही हाल है, जो बिहार के राजमार्गों का है। यानी इस चरवाहा स्कूल के सिर्फ उद्घाटन पट बचे हैं। कहीं-कहीं वह भी उखड़ कर सिल-बट्टे का काम देरहा है। पूरे बिहार में इन स्कूलों ने खुलते ही दम तोड़ना शुरू कर दिया था। कोई 10 दिन चला, कोई महीना भर। साल भर तो शायद ही कोई चला हो। अब चारा, चरवाहे, गाय-भैसें, स्कूल और उनमें पढ़ाने वाले सब एक-दूसरे से छिटक कर अपनी-अपनी जगह पहुंच गये हैं। अपराधी और बेखौफ हैं। बिजली और अंधेरे में चली गयी है। पर लालू प्रसाद मीडिया की निगाहों का केंद्र बने हुए हैं क्योंकि वह कुछ करना चाहते हैं। कभी-कभार वह एक निगाह अपने राज्य पर भी डाल लिया करें।

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