रविवार, 26 दिसंबर 2010

एक आंदोलन की हसीन मौत

राजीव मित्तल
बिहार में काफी समय बाद रोष ताजा-ताजा कलई कराए बर्तन की तरह चमक रहा था कि एक मनचाही मुलाकात ने और आपसी मनमुटाव ने एक आंदोलन को अपना सिरा ही नहीं पकड़ने दिया। रोष था एक डॉक्टर की हत्या को लेकर। हत्या भी किसी गांव-गोट में नहीं ठीक मगध साम्राज्य की राजधानी पटना में। कत्ल हुआ डॉक्टर भी ऐसा-वैसा नहीं था। सरकारी था और जब उस पर गोलियां चलीं तो वह अपनी क्लीनिक में था। वैसे तो पिछले 10 सालों में न जाने कितने डाक्टर रंगदारों के हाथों मारे जा चुके हैं, कितने ही अपह्त हो बड़ी-बड़ी फिरौतियां दे कर छूटे हैं। ऐसे ही कई पुराने मामले और अभी-अभी छूटे समस्तीपुर के एक देहात से अगवा उस डॉक्टर का मामला भी इस रोष को भड़काने में मददगार साबित हुआ, जिसका अपहरण 15 दिन से गुमनामी में था। पर, सबसे बड़ी बात यह रही कि ऐसे रोष में भी कोई तोड़फोड़ नहीं हुई। पटरियों पर ट्रेनें परम्परागत अंदाज में दौड़ीं, गली-मोहल्लों और सड़कों पर त्यौहारों की धूम मची रही, दीपावली के बाद ईद, अखबारी भाषा में कहें तो काफी हर्षोल्लास से मनी और अब हर कोई छठ के रंग में डूबा हुआ है। पता चला है कि डाक्टर का कत्ल इसलिए हुआ क्योंकि रंगदारी की बेहतरीन किस्त न मिलने से रंगदार उससे नाराज थे। मौत कैसी भी हो मन को तकलीफ पहुंचाती है और फिर यह तो बेवक्त की मौत हुई। पर सवाल यहां दूसरा है वो यह कि क्या बिहार में किसी डॉक्टर का पहली बार कत्ल हुआ है? डॅाक्टर को पैसा बनाने की मशीन समझ सबसे आसान शिकार मानना बंद हो गया क्या? या डॉक्टर सारी मोह-माया त्याग समाजसेवी बन गए हैं? सवाल यह है साहेबान कि ऐसी न जाने कितनी खताओं के बाद अब ऐसा निर्मम बवाल क्यों, क्रूरता की हद तक आक्रोश क्यों, जिससे जान बचाने की खातिर अस्पताल में भर्ती हुए 70 मरीज चार कंधों पर बाहर आए। डॉक्टरों का भला चाहने वाले उनके संगठन और समितियों के दिमाग में अचानक बंदूक उठाने का विचार क्यों क्रोंधा? क्या कल तक उनके लिए बिहार किसी ऋषि का आश्रम जैसा था। नहीं, सच्चाई यह है कि कल तक जिनके कंधे थाम कारोबार दिन-दूनी रात चौगुनी चल रहा था, वो कंधे अब अपना हिस्सा मांग रहे हैं और न देने पर मौके पर ही हिसाब-किताब दुरुस्त किए दे रहे हैं। कई सालों से रंगदार मैदान में जमे हुए हैं। और ऐसा भी नहीं कि वे किसी और दुनिया के हैं। वे सब आप ही के बीच से उठ कर गए हैं। आप उनको पहचानते भी हैं। आपने उनके गलबहियां भी डालीं। वही ठीक है क्योंकि आप उनका न आज कुछ बिगाड़ सकते हैं न कल कुछ बिगाड़ पाएंगे। आपको एक ऐसा माहौल चाहिये जिसमें आप आराम से रुपयों के ढेर लगा सकें और वो माहौल न तो सरकार दिला सकती है, न पुलिस और न सेना। आपके मन-मुआफिक माहौल दे पाना तो भैया उन्हीं के हाथ में है, जिन्हें अब आप बंदूक दिखा कर डराना चाह रहे हैं। अब जब आप इस बात से संतुष्ट हैं कि उनके दीदार हो गए और सब ठीक हो जाएगा तो पांच मिनट के लिए कहीं बैठ कर अपने उस कृत्य पर भी विचार करें, जिसने 70 इंसानों को मुर्दे में तब्दील कर दिया। आपको अपना सनम मिला हो या न मिला हो, पर इस चक्कर में कई घरों के चूल्हे बुझ गए। अब आपको कई ऐसे चेहरे फिर कभी नहीं दिखेंगे, जो वक्त-बेवक्त आपको परेशान किया करते थे। पर उनके हाथ आपको दुआएं देने के लिए उठे रहते थे।

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