रविवार, 26 दिसंबर 2010

बबूल बोया है तो आम की चाहत क्यों

राजीव मित्तल
श्रीराम ने जब शबरी के दांतों से कटे झूठे बेर खाये होंगे, तो उनका ध्यान शबरी की जात की तरफ दूर-दूर तक नहीं रहा होगा। इस ‘माइथोलॉजिकल हादसे’ को लेकर आज के पुरोधा यही सफाई देंगे कि वे तो भगवान थे, उनको जात-पांत से क्या मतलब। लेकिन भई, हम तो दो हजार साल से यही मानते आ रहे हैं और अगले दो हजार साल तक मानते रहेंगे कि ब्राहमण ब्रह्मा के मुख, भुजाओं से क्षμिाय, वैश्य पेट से और दलित उनके पैरों की देन है। ब्रह्मा जी द्वारा विशेष से रूप से प्रदत्त अपनी इस जातिगत श्रेष्ठता को ध्यान में रखते हुए ही हमने 20 साल पहले पारू के जगदीश धर्मू गांव में परलोक सिधार गये किसी पासवान का श्राद्ध कर्म निपटाने में असमर्थता जताई थी। लेकिन अब उस गांव के दलितों का ‘मलेच्छों’ की प्रार्थना सभा में शामिल होना धर्म के विरुद्ध है।‘मैं श्रेष्ठ तू नीच’ का यह खेल पिछले दो हजार साल से इस देश में उतना ही लोकप्रिय है, जितना 22 साल पहले विश्वकप जीतने के बाद भारत भर पर सवार हुआ क्रिकेट का बल्ला और गेंद। बुद्ध और महावीर की पैदाइश के साथ ही जाति के इस खेल को धर्म का ऐसा बाना पहनाया गया कि करीब एक हजार साल पहले हिन्दू संस्कृति से ओतप्रोत कश्मीर में तिब्बत से भाग कर आये बौद्ध राजकुमार रिंचन को वहां के पंडितों ने हिन्दू धर्म में इसलिये नहीं घुसने दिया क्योंकि उनकी निगाह में बौद्ध भी ‘मलेच्छ’ से कम नहीं थे। तो अब इस बात पर स्यापा क्यों, कि एक तिहाई से ज्यादा कश्मीर आज नमाज पढ़ रहा है। यहां यह भी बताना रोचक होगा कि उसी तिब्बती बौद्ध राजकुमार रिंचन को थक हार कर इस्लाम धर्म अपनाना पड़ा। तब उसने अपनी खुन्नस खुल कर निकाली और हिन्दू पंडितों को दौड़ा-दौड़ा कर मुस्लिम बनाया। आज अगर पारू के जगदीशपुर धर्मू गांव का नीची जात वाला अपने को हिन्दू धर्म में बरसों से बेगाना महसूस कर यीशू के दरबार में, जहां किसी तरह की छुआछूत नहीं है, कोई छोटा-बड़ा नहीं है, कोई अछूत नहीं है, वहां सबके बराबर में अपने को खड़ा होने के काबिल पा रहा है तो कौन सा बुरा कर रहा है। यह किसी धर्म की आलोचना या किसी धर्म का गुणगान नहीं, और न ही धर्म परिवर्तन की वकालत करना है, बल्कि हजारों साल से इस देश को कुतर रही उस मानसिकता पर अफसोस जताना है, जिसने इनसान को इनसान नहीं, जानवर से भी बदतर बना दिया है। अपने को ईश्वर मुखी मानने की यही वो मानसिकता है, जिसने पिछड़ी जात वाले सम्राट चंदगुप्त मौर्य के वंशज राजा बृहद्रथ और सम्राट कनिष्क की हत्या करवायी क्योंकि दोनों बौद्ध थे। इसी मानसिकता के चलते 17वीं शताब्दी में शिवाजी का राज्यभिषेक इसलिये नहीं किया गया क्योंकि वह पिछड़ी जाति के थे। 18 वीं शताब्दी की शुरुआत में जब अंग्रेज इस देश को गुलाम बनाने की साजिश कर रहे थे, तो उन्हें सबसे ज्यादा खौफ अत्यन्त शक्तिशाली मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम से था। श्रेष्ठ जाति का होने के बावजूद बाजीराव का दिल एक मुस्लिम नर्तकी पर आ गया और वह उसे अपनी रखैल नहीं, इज्जत से घर की चौखट के अंदर बसाना चाहते थे। लेकिन महाराष्ट्र के पंडिताऊ समाज को अपने शासनाध्यक्ष का यह ‘अधर्म’ कतई मंजूर नहीं था। समाज के ठेकेदारों ने बाजीराव का जीना मुहाल कर भरी जवानी में उन्हें बीमार डाल मरने को मजबूर कर दिया और इस तरह अंग्रेजों की राह का कांटा इस देश की ‘जातिगत आस्था’ के हाथों अपने आप साफ हो गया। ऐसा न जाने कितने लोगों के साथ होता रहा है और होता रहेगा। लाखों कुरबान हो गये और लाखों दूसरे धर्म में चले गये-तो अब रोना-पीटना, कोसना और बौराना कैसा, सदियों से उन्हें अपने से दूर तो आप ही धकेलते आ रहे हैं।

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