सीता हो या जनता, सड़क हो या पुल सब वनवास में
राजीव मित्तल
सीतामढ़ी-शिवहर। अगर आप नेता या अभिनेता नहीं हैं तो इसका मतलब आप उड़नखटोले पर नहीं हैं, तब आपके लिये सीतामढ़ी और शिवहर के हालात समझना बहुत आसान है और जब हालात से चार-पांच घंटे में रुबरु हो लेें तो मन में एक ही सवाल कौंधेगा कि अब तक होते रहे कैसे भी चुनाव क्या सीतामढ़ी और शिवहर की जनता के साथ मजाक नहीं हैं? आज की तारीख में उड़नखटोले पर बैठ किसी खेत को हेलिपैड बना कर यहां उतरने वाला कोई भी नेता वोट किस मुंह से मांग रहा है, इस पर अचरज होता है। अचरज तो अभी और भी हैं-मसलन जिस देवी के नाम पर इस इलाके का नाम सीतामढ़ी पड़ा, वह सीता जी पुन्हारा धाम में राजा जनक को एक खेत से नवजात शिशु के रूप में मिली थीं, लेकिन भाई लोगों की श्रद्धा ने यहीं दम नहीं साधा, सीता जी को शहर के भीतर एक पोखर से भी जन्मवा दिया। सीता जी के जन्म के ये दोनों स्थल उतनी ही शर्मनाक हालत में हैं, जितना खुद सीतामढ़ी। पर शर्म न तो रामभक्तों को है न उन जन प्रतिनिधियों को जो पिछले 53 साल में चौदहवीं बार फिर गला फाड़-फाड़ कर वोट मांग रहे हैं और उससे भी ज्यादा शर्मनाक है उनकी सभाओं में जुटती लोगों की भीड़ का, जिसने हर हालत में जीये जाने की कसम खा ली है। सीतामढ़ी वो जिला है, जिसका गेयर 30 साल से फंसा पड़ा है। पुराने लोग बताते हैं कि 1977 तक शहर और जिले का सारा कामकाज सामान्य स्थिति में चल रहा था। उसके बाद से चाहे जिस पार्टी का विधायक रहा हो या सांसद सब बस चुनाव में ही दिखायी देते हैं। 1994 में रघुनाथ झा ने लालू प्रसाद का साथ निभाने की एवज में अपने चुनाव क्षेμा शिवहर को जिला बनवा तो लिया, पर हाल वही किया जैसे कुंती ने कर्ण को जन्म देते ही नदी में बहा दिया था।दो किलोमीटर के इलाके को अगर जिला मुख्यालय कहा जा सकता है तो बिहार में कुछ भी असंभव नहीं। एक जिला मुख्यालय लायक सारी औपचारिकताओं से सजा दिया गया है लेकिन अब जरा ध्यान दें- कोर्ट के कमरे हैं, लेकिन कोई अदालत नहीं, जेल है पर कैदी नहीं, जेल में कैदी इसलिये नहीं कि उसके ऊपर से 11 हजार वोल्ट का तार जा रहा है, जिसको शिफ्ट करने के लिये बिजली विभाग तीन लाख रुपये मांगता है जो पीडब्लूडी विभाग दे नहीं पा रहा, और भी कई सारे भवन खड़े हुए हैं, पर जहां रात को शर्तिया अड्डेबाजी होती होगी, क्योंकि दिन में ही उनमें चिमगादड़ उड़ते हैं क्योंकि किसी कमरे में दरवाजा नहीं। सन् 32 और सन् 42 के सातशहीदों के नाम वाला एक संगमरमरी बोर्ड कुछ इस तरह खड़ा है, जैसे पूछ रहा हो कि शहीद होने की क्या जरूरत थी। शिवहर हर साल जून से दिसम्बर तक सिर्फ मुजफ्फरपुर जाने वाले एक रास्ते को छोड़ कर नाव पर आ जाता है और फिर एक समय वह भी आता है जब नाव भी तौबा बोल जाती है। बागमती इस पूरे क्षेμा के लिये ंिहदी फिल्मों की सौतेली मां के समान है, जिसके चलते इन दोनों जिलों के जर्रे-जर्रे पर पुल-पुलिया झोंक दी गयी हैं। इनकी संख्या अगर हम 777 मान लें तो इनमें 776 अंग्रेजों के समय की हैं और तब से अब तक 775 की लोहे की रेंिलग बेच कर खायी जा चुकी है और जाते समय अगर वह पुल या पुलिया नदी या नाले में नहीं है तो दो घंटे बाद लौटते समय किस्मत को दोष देने की जरूरत नहीं। इलाके में डायवर्सन की भरमार है क्योंकि अंग्रेजों की सौगात कब तक साथ देती। सीतामढ़ी को शिवहर से जोड़ने वाला बागमती पर बना पुल इतिहास बन गया है।उस पुल के कुछ अवशेष पानी में से झांकते नजर आ जाते हैं। तब से नया पुल निविदाओं, जालसाज कम्पनियों, जनप्रतिनिधियों के वादों की गर्द में धंसा पड़ा है।इस टेल ऑफ टु सिटीज की कोई भी दास्तां नेशनल हाईवे का जिक्र किये बगैर पूरी नहीं हो सकती। वैसे तो पूरे बिहार में ही नेशनल हाईवे पगडंडी बना पड़ा है। इन्हें बनवाने में जिन ठेकेदारों का हाथ रहा होगा, उन्होंने कई बातों का ख्याल रखा-जैसे कहां-कहां उसे कीचड़ में लोटपोट करना है, कहां-कहां उसके चीथड़े उतरवाने हैं, कहां-कहां उसे नदी-नाले में नहाते दिखाना है, कहां-कहां उसे गड्ढे में डालना है, आधी चौड़ाई की कमाई उन्होंने दान खाते में डाल दी, फुटपाथ इसलिये नहीं बनवाया कि नेता लोग नहीं चाहते थे कि इन सड़कों पर कोई अपने पांव से चले और दो-दो हजार फुट सड़क इसलिये नहीं है कि चालकवाहन चलाते-चलाते कहीं सो न जाए। लेकिन वोट मांगने वालों की कमी नहीं, उस रीगा में भी, जहां का थाना प्रथम विश्वयुद्ध की बैरेकों की याद दिलाता है। जहां नक्सली परचा भेज कर पुलिसियों की नींद हराम किये रहते हैं कि हम रात का खाना तुम्हारे साथ खाएंगे और जो सीतामढ़ी से केवल सात किलोमीटर दूर है। लेकिन आज यहां सब उमड़ पड़े हैं क्योंकि सीतामढ़ी और शिवहर जिले विधानसभा में नौ और संसद में दो की बढ़ोतरी करते हैं, जो सरकार गिराने और बनाने में हाथ बंटाते हैं, जिनका बाजार भाव दो-चार करोड़ तो होगा ही।
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