राजीव मित्तल
मानसून इस बार भी सूना नहीं है न ही उसके कहर में कोई कमी है लेकिन फिर भी एक बड़ा फर्क है। एक वो बारिश थी, जिसमें बाढ़ थी, चारों तरफ उफान मारता पानी था, पानी में डूबते-उतराते शव थे, नावों में लदे पीड़ितों की चीत्कार थी, माओं की आंखों के सामने डूबते बच्चे थे, पेड़ों पर बगल की डाल पर फन काढ़े सांप थे, नीचे फुंफकार मारती बागमती या उस जैसी न जाने कितनी नदियां थीं, आसमान में उड़नखटोलों की गूंज थी और नीचे उनको ताकती बेबस आंखें, पर इन सबसे ऊपर थे गौतम गोस्वामी।
एक हाथ में सेलफोन, एक हाथ जेब में, मुंह से निकलती आदेशों की झड़ी और मिस्टर सुप्रीमो-लेडी सुप्रीमो के सामने होठों पर फूल सी मुस्कान। न रात देख रहे थे न दिन, बस दिल में ठाठे मारता जज्बा था कि अकेले दम इस बाढ़ से जूझना है, जिसमें करोड़ों जाने फंसी हैं। वह अफसर नहीं, बल्कि कोई खुदाई खिदमतगार लग रहे थे। सुबह छह बजे से ही उन ट्रकों पर लदा चूड़ा-गुड़ चखने पहुंच जाते थे, जो किसी राहत के लिये रवाना होने वाले होते थे। भले ही वे ट्रक किसी और ही जगह माल उतार दिया करते थे क्योंकि उनका लक्ष्य बाढ़ या बाढ़ पीड़ित नहीं होता था। इस बार फिर लहरों की आहटें हैं, पानी की झनकार है, डगमगाते तटबंध हैं, खतरे के निशान से हाथ भर की दूरी पर पुल-पुलिया हैं, बागमती की नेशनल हाईवे पर चहल-कदमी शुरू हो गयी है।
लेकिन न तो बाढ़ पीड़ितों की चीत्कार है, न उनकी चीत्कार सुनने को कान हैं, न उन्हें राहत देने का कोई उत्साह है क्योंकि न गोस्वामी हैं न उनके रहनुमा हैं। हैं, उनके शरीर तो हैं, पर बिना आत्मा के। अपने आकाओं पर दोष मढ़ते, सीने का दर्द झेलते, मूंछ-दाढ़ी बढ़ाते, आंखों से आंसू टपकाते, जेल की कोठरी में दिन काटते गोस्वामी की एक-एक हरकत भ्रष्टाचार की वह नंगई दिखा रही है, न्यायपालिका की वह बेबसी दर्शा रही है और इस देश के जनतंμा के मुखड़े पर वह कालिख पोत रही है, जहां पहले से सबकुछ नंगा है, बेबसी है और कालिख है। बस, अब और चोखा लग रहा है।
उस बारिश से इस बारिश तक बिहार में जो कुछ घटा, उसका अंश भर ही सामने आया बाढ़ घोटाला है, जो बताता है कि हमारे नेता, हमारे अफसर, हमारी सरकार, हमारे मंμिायों के कारनामे धृतराष्ट्र की उस राज सभा को भी मात कर चुके हैं, जिसमें दुशासन द्रोपदी की धोती खींच रहा था। लेकिन अब कैसा भी महाभारत नहीं होगा। तभी तो अमरमणि μिापाठी जेल में भी मुस्कुराते हैं, राजा भैया जेल में ही जश्न करते हैं, शहाबुद्दीन कैसे भी प्रशासन को हिकारत की नजर से देखते हैं और गले से खून निकलते हिरण को सामने डाल बेखौफ फोटो खिंचवाते हैं, पप्पू यादव को तिहाड़ जेल की रोटी में देसी घी कम चुपड़ा लगता है-तो इसे ही कहा जाता है सिस्टम को लतियाना, निडर हो कर, बेशर्मी के साथ क्योंकि इन सबके या इन जैसों के आका भी इन जैसा ही काम सारी शर्म-हया त्याग कर बरसों से करते आ रहे हैं।
बचे अब बाढ़ पीड़ित, जिन्हें अब स्टेज पर एंट्री लेनी है, तो उनसे यही अनुरोध है कि भैये, इस बार गोस्वामी के बगैर काम चलाओ, बदलेगा कुछ नहीं। कोई और तुम्हारी मैयत उठाने को तैयार बैठा है-तो गोस्वामी नहीं कोई और सही।
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