राजीव मित्तल
चिड़िया और रेलगाड़ी का इंजन अक्सर एक ही सी अठखेलियां करते हैं। चिड़िया दाल का दाना देख कर किसी के आंगन में पेड़ से उतरती है और रेलगाड़ी का इंजन किसी स्टेशन को देख कर वहां रुकता है। बीच में कहीं सिग्नल न मिलने पर ठहर जाना तो तफरीह में गिना जाएगा न! लेकिन यहां मुद्दा यह है कि चिड़िया को उड़ने के लिये किसी पटरी की जरूरत नहीं पड़ती। पंख फैलाए और हवा में। लेकिन रेलगाड़ी के इंजन के साथ एक दिक्कत है कि जब तक अगल-बगल बिछी लोहे की दो पटरियां न हों, बेजान सा खड़ा रहता है बेचारा। सड़क पर भी नहीं दौड़ सकता। उत्तर बिहार में हर जगह चिड़िया उड़ भी रही हैं और आंगन में उतर कर दाल का दाना भी चुग रही हैं लेकिन इंजन बेचारा क्या करे, उसकी छाती पर तो रेल मंμाालय का मय नेताओं और अफसरान के एक ऐसा गट्ठर सवार है कि बेचारे की सांस तक बंद पड़ी है। वैसे हाल इतने बुरे भी नहीं है। हर बार कोई न कोई रेलमंμाी उसकी नब्ज अपने हाथ में लेता है और कहता है-चलेगा, जरूर चलेगा। अभी कोमा में है, 2007 तक या उससे पहले भी या उसके बाद किसी भी साल इसकी सांस चलने लगेगी। उसकी सांस चलने की आस लगाए एक के आगे न जाने कितने शून्यों के जोड़ वाली जनता अपने शहर, या अपने गांव के उस भवन या टप्पर को निहार रही है, जिसे आधुनिक भाषा में रेलवे स्टेशन कहा जाता है। सब पर कोई न कोई तख्ती लटकी है, जिस पर सुनहरे शब्दों में लिखा है-श्री..जी के कर कमलों से 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में या 21 सदी के पूवार्ध (2005 से पहले) में इसका शिलान्यास हुआ। उत्साहित जन शिलान्यास होते ही स्वंयरोजगार को प्रोत्साहन देते हुए चाय की गुमटी तक डाल कर बैठ गये कि बस अब पटरी बिछीं और अब हुआ इलाका रौनकदार। रौनक का तो पता नहीं लेकिन जिस पत्थर पर उस महान इंसान का नाम सुनहरे अक्षरों में कुरेदा गया था, उस पर जरूर समय की मार पड़ चुकी होती है। उदाहरण के लिये शहीद जुब्बा सहनी स्टेशन न जाने कितने स्टेशनों की तरह बना पड़ा है पर वहां रेलगाड़ी तो क्या, बैलगाड़ी भी खड़ी नहीं होती। इसके पीछे उस शख्स की भी ज्यादा गल्ती नहीं, जिसने चांदी के खोंचे से शिलान्यास वाली जगह पर गुलाबजल मिले सीमेंट से आधारशिला रखी थी और गल्ती उन महानुभावों की भी नहीं, जो पटरी बिछाने वाले ठेकेदारों से रंगदारी वसूलते हैं और ठेकेदार पटरी बिछाने के लिये खोदी गयी मिट्टी ट्रकों में भरवा कर कोई श्मशानघाट या कब्रिस्तान बनवा देते हैं। मिट्टी तो खराब नहीं हुई न! भई, जैसे ठेकेदारी वैसे ही रंगदारी-दोनों ही इस धरती पर नाम रौशन करने आए हैं तो काम अधूरा तो छोड़ने वाले हैं नहीं। फिर उनका भी तो परिवार है और उन सबका पेट पालना उनका कर्तव्य है। शिलान्यास कोई उनसे पूछ कर तो हुआ नहीं था और हो गया तो जिसने किया चिंता उसे होनी चाहिये। इसलिये चाहे मुजफ्फरपुर से सीतामढ़ी के बीच की लोहे की पटरियां हों, जो परियोजना के तहत केवल 54 किलोमीटर लम्बी होनी चाहिये। अब नारा लगाइये-एक साल में एक किलोमीटर। तो साहब, कितने साल में पूरी हुई यह परियोजना! उसका आधा, उसका भी आधा-अब इतना समय तो एक परियोजना को देना ही पड़ेगा न! ऐसी परियोजनाएं जब तक दो-चार चुनाव और इतने ही मंμाी न देख लें उनका मन नहीं भरता। उत्तर बिहार में इसके अलावा और भी कई परि-परि योजनाएं हैं जिन पर काम चल रहा है। उन्हें मंμाालय भी देख रहा है, अफसर भी, ठेकेदार भी, नेता भी, विधायक भी और रंगदार भी। जब इतने लोग देखने वाले हों तो कभी न कभी तो रेलगाड़ी का इंजन पटरी पर दौड़ेगा ही। बस, हर स्टेशन को पेशेंस के साथ इंतजार करते रहना चाहिये चूं-चूं करती आयी चिड़िया का। यही पेशेंस ही तो इस देश का प्राचीन गौरव है-काक भुशुंण्डि ने गरुड की तान के साथ ठेका लगाया।
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