बुधवार, 8 दिसंबर 2010

बोल-बोल मछली कितना-कितना पानी

राजीव मित्तल
बॉब, चुनाव लड़ने के लिये जेब में कितना पैसा होना जरूरी है? बेवकूफ, अगर जेब में पैसा लेकर चुनाव लड़ने की सोच रही हो तो टेम्पो चालक संघ की अध्यक्ष भी नहीं बन सकतीं। क्यों, कुछ उम्मीदवार तो ऐसे हैं जिन्होंने यहां-वहां से मांग कर जमानत का पैसा जमा किया और केरल को देखो, वहां भी ज्यादा खर्चा नहीं आता। चैनली, ये सब अपवाद हैं और अपवाद पैमाना नहीं होते और अगर होते तो एक राज्य की 40 सीटों पर उम्मीदवारों की जेब से 400 करोड़ और सरकार के पल्ले से 75 करोड़ न निकलते। अभी 500 से ऊपर की सीटों का हिसाब बाकी है, विचारोगी तो डिहाईड्रेशन हो जायेगा। तो चुनावों में इतना पैसा फूंकने की जरूरत क्यों है बॉब? असल में यह देश कभी सोने की चिड़िया था क्योंकि तब राजतंμा था और आज लोकतंμा में यह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बन गया है। इस अंडे की पीली जर्दी में पैसा, सफेद जर्दी में ताकत और खोल से जहूरा टपकता है। ये तीनों चीजें एक साथ किसी धंधे में नहीं मिल सकतीं। व्यापारी बनो तो सिर्फ पैसा, माफिया बनो तो दो चीजें ताकत और पैसा और खालिस इज्जत पानी है तो एपीजे अबुल कलाम बन जाओ। लेकिन तीनों पाना है तो नेता बनो, इन तीनों के साथ गोल्ड स्टार लगा है तो सत्ताधारी नेता और डायमंड स्टार है तो मंμाी। अब इससे ऊपर तो अमेरिका का राष्ट्रपति ही हो सकता है। लेकिन वहां भी एक कायदा है कि भूतपूर्व हो जाने के बाद पैदल हो जाना जो यहां की मिट्टी में संभव नहीं है। तभी तो जितने गुजरे हुए हैं उन सबको भी पालना पड़ रहा है इस देश की जनता को। यहां तक कि उस अनाथ नन्हीं सी जान मुन्नी तक को यह पता नहीं कि दूसरों के घरों में बर्तन मांज कर जो वह कमाती है उसका एक हिस्सा किन नामुरादों पर खर्च होता है। ये सब आधुनिक भारत के शाह हैं, जिनसे ब्रुनेई का शाह भी रश्क करे। तभी तो करोड़ों कमाने वाले फिल्म स्टार और अरबों कमाने वाले दारू के धंधेबाज, सटोरिये, जालिये और माफिये तक इस थ्री इन वन की ओर ंिखचे चले आ रहे हैं। सब धंधेबाज हैं ही। करोड़ों फूंकते हैं जनता का प्रतिनिधि बनने के लिये, पर जनता को चूना लगाने के लिये जो प्रोटेक्शन चाहिये और जनता को हड़काने के लिये जो ताकत चाहिये वह सब स्टाम्प पेपर पे अंगूठा लगाये बगैर मिल जाता है। जो पैसा लगा, उसकी ब्याज के साथ वसूली के लिये पांच साल बहुत हैं। कैसी बात कर रहे हो बॅाब, कई बेचारों के पास टेलीफोन का बिल, मकान का किराया, बिजली का बिल चुकाने तक को पैसे नहीं हैं। और कई तो ऐसे हैं, जिनका दुनिया में कहीं ठिकाना नहीं, शायद बाल-बच्चे भी नहीं तभी तो उन्हें सरकारी आवासोंमें अनाथों की तरह मुंह छुपा के रहना पड़ रहा है। जोगी जी कितना परेशान रहे। कुर्सी छिनते ही एक ठो आशियां के लिये दर-दर मारे-मारे घूमे। मैने खुद अपनी आंखों से कई भूतपूर्वों को बाग-बगीचों में पानी छोड़ते देखा है। मूर्खा, वह तो लंच में करीम के यहां से मंगायी बिरयानी-ए-जाफरान और केसर पड़ी कुल्फी डकार कर पाचन क्रिया दुरुस्त रखने का तरीका है ताकि रात को किसी पांच सितारा होटल में ठंडी बियर के साथ बकरे की रान और मुर्गे की टांग नोची जा सके। जहां तक सरकारी आवास में रहने की मजबूरी है तो चैनली, पूरा कुनबा पूरी बेशर्मी के साथ उसी में ठुंसा रहता है। अपने इलाके के दो-चार को और घुसेड़ लेते हैं। और वे बिल? उनका पेमेंट किसी धन्ना सेठ से कराया दिया जाता है। अरे हां, मुझे याद आया कि एक सांसद कह रहे थे- पμाकारिनी जी, जहां जाना हुआ करे हमें बता दिया कीजिये। हवाई याμाा मुफ्त, ट्रेन में एसी कोच फ्री। अरे चैनली, तभी तो देवता भी भारत में जनम लेने को तरसते हैं।

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