बुधवार, 8 दिसंबर 2010

आपदा और विपदा एक साथ!

राजीव मित्तल
चैनली, भारतीय लोकतंμा के दुखद क्षण करीब आते जा रहे हैं। 1757 में पलासी में राबर्ट क्लाइव की फौज से नवाब सिराजुद्दौला की हार के बाद शायद सबसे ज्यादा दिल को दुखाने वाला क्षण। ऐसी बोली क्यों निकाल रहे हो बॅाब? वाजपेयी जी के घुटने तो ठीक हैं। सोनिया भी सिर पे पल्लू डाल कर चलती हैं। उनका बेटा राजनीति में उतर ही गया है और बहन जितना भीड़खींचू साबित हुआ है। चंद्रशेखर एक मैं और एक वो वाली परम्परा का निर्वाह बखूबी कर रहे हैं। दोबारा चुनाव कराने का फैसला कर छपरा में ईवीएम की सिसकियों को गम्भीरता से लिया है चुनाव आयोग ने। बाकी सब भी उसी तरह से है। हां, गैस का सिलेंडर जरूर महंगा होने वाला है, पर उससे तुम्हें क्या, रोना तो अब रमा देवी की रसोई को और शिव प्रसाद की जेब को है, और कोई बात मन में हो तो घोंटो नहीं, बाहर निकालो। अरी अहमक, यह सब क्या बके जा रही है, मैं बात कर रहा हूं पांच जुलाई की, जब हर राज्य का मंμिामडल जुबिन मेहता के भारी भरकम आर्केस्ट्रा की जगह सूरदास का तानपूरा बन कर रह जायेगा, संगत देने को बजेगी बस ढपली। और नयी संसद में अब दलालों व बिचौलियों की दुकानों का शटर हमेशा के लिये गिर जायेगा क्योंकि अब सबके कान के पीछे का हिस्सा आग में तपायी मुहर से दगा मिलेगा उसकी पार्टी के नाम के साथ ताकि अगर वो दल बदले तो कान कटवा के दूसरी चौखट पर पांव धरे यानी कनकटवा। हे राम आपदा और विपदा एक साथ! बॅाब, तुम्हारे समय में कनकटवा होते थे क्या? μोता में विभीषण ने ऐसा किया था तो आज भी बेचारा एक निगेटिव किस्म के मुहावरे में फंसा हुआ है और महाभारत में दुर्योधन के एक भाई ने पाला बदला था तो उसका कोई नामलेवा नहीं। छोड़ो तुम आगे की बात करो-कहां दिखेंगे अब लाल बत्ती वाली गाड़ियों के रेवड़, न जाने कितने बंगले और लॉन उजड़ी मांग की तरह उजाड़ पड़े होंगे। वो गाय-भैंसें, जो एयरकंडीशन माहौल में गोबर का निष्पादन करती थीं, अब सड़कों पर डंडे खाकर खुले में सबके सामने नित्यक्रिया करेंगी। जिनके गेटों पर कुत्तों से सावधान वाला छोटा सा बोर्ड टंगा रहता था, वहां अब हाथ से लिखा मिलेगा-यहां मूतना सख्त मना है। मंμिामंडल की बैठकें 16 गुणा 16 के कमरे में निपटा करेंगी। ब1ॅब, कहीं यह नाप जेल की कोठरी का तो नहीं, क्या अब सरकारें वहां से शासन किया करेंगी? नहीं, यह सौभाग्य अब तक नसीब नहीं हुआ है लोकतांμिाक भारत को। हां तो मैं यह कहरहा था कि सरकार की तो सारी रौनक ही चली जायेगी। जो बगिया पहले फूलों से लदी रहती थी, अब एक डाल पर बस एक फूल या दो कलियां। शर्म आती है ऐसा कानून बनाने वालों पर। और दूसरा रोना कौन सा रो रहे थे तुम? अरे वो तो इससे ज्यादा सीरियस है। जैसे पुजारी के बिना भगवान के दर्शन नहीं हो सकते वैसे ही दलालों और दलबदलुओं के बिना कुर्सी के दर्शन कैसे होंगे? अरे कहीं तो न्याय होना चाहिये न, परसेंटेज बांध देते, पर सिरे से ही सफाया कर दिया। अब जिसको दल बदलने की हुड़क उठे तो पहले तो अपनी पार्टी के सभी सांसदों या विधायकों को तलाशे, फिर सबको बांध-बूंध कर ले जाके एक कुँए में धकेल दे, उसके बाद चिल्लाता फिरे कि मैं अकेला-मैं अकेला। अगर यह हिम्मत नहीं दिखा सकता तो पहले तो दागा गया कान कटवाये और फिर चार-पांच करोड़ फूंक कर दोबारा चुनाव लड़े। धिक्कार है ऐसे अनडेमोक्रोटिक नियम को। तुम ही-ही क्यों कर रही हो चैनली? बॅाब, जानते हो सबसे ज्यादा मजे किसके रहेंगे इस नियम में, अपने चंद्रशेखर जी के या मिट्टी का तेल, खरबूजे के बीज या आम की गुठली जैसे चुनाव चिन्ह वाले निर्दलीयों के ।