राजीव मित्तल
वहां एक फुटबॅाल प्रतियोगिता शुरू होने जा रही थी लेकिन एक नामुराद दिन ने उस खेल के मैदान को गड्ढों में बदल के रख दिया। वैसे तो खेल के मैदानों का खोदा जाना हमारे देश में कोई नयी बात नहीं है। जब शिक्षा ही पैर पोंछने का टाट बनी हुई हो तो खेल तो वैसे ही घर से बुहार कर निकाली गयी धूल-धक्कड़ है। जिस मैदान पर दो टीमों के बीच फुटबॅाल उछलती, लहराती, खिलाड़ियों का जोश उमड़ता, दर्शकों का शोर उभरता, उसे एक आदेश से खूंटे पे टांग दिया गया कि आज नहीं। आज वहां बांस-बल्ली गाड़े जाएंगे, पंडाल लगेगा और इन सब कामों के लिये मैदान की खोदन क्रिया बेहद जरूरी है इसलिये जब खेलना हो तो दो-चार रुपया देकर मजदूर बुलवाना और गड्ढे भरवा लेना। तब तक खेलने के उत्साह को हमारी जिंदाबाद के नारे में तब्दील कर दो। बहरहाल, प्रतियोगिता स्थगित हो गयी उस एकदिनी आयोजन की खातिर। प्रशासन और मैच के आयोजकों ने हाथ जोड़ कर मैदान का उद्धार करने के लिये मुंडी ऊपर से नीचे कर दी क्योंकि मामला था ही इतना महत्वपूर्ण। एक केंद्रीय मंμाी के राजनैतिक दल को भविष्य में कुलांचे भरने, राज्य को, देश को नयी दिशा देने, उसे और इसे विकास के रास्ते पर फटफटिया की तरह दौड़ाने और अगले विधानसभा चुनावों में धोखेबाजों को सबक सिखाने के लिये बहुत कुछ करना है भई! इस काम के लिये एक बड़ा सा खेल का मैदान, उसमें लगा पंडाल, उसमें जमा हुई भीड़, उसे ढंग से देखने और खुद को और ज्यादा ढंग से दिखाने के लिये पांच फुट ऊंचा मंच जरूरी है कि नहीं! प्रतियोगिता में शामिल 10 टीमों के खिलाड़ी मायूस हैं तो हों, नून शो का टिकट नहीं मिला तो इवनिंग शो ही सही। मैदान कोई भागा थोड़े ही न जा रहा है। वो तो राम ने भली करी कि प्रतियोगिता शुरू होनी थी, हुई तो नहीं न, वरना मैच को रोक बांस-बल्ली गाड़ दिये जाते। है न विकास का अनमोल तरीका!
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