सोमवार, 6 दिसंबर 2010

अब तो मीत बन जाओ

राजीव मित्तल
हफ्ते-दस दिन में बिहार की सत्ता किसी न किसी को मिल ही जाएगी, न सही एक को, तो एक झुंड को मिल जाएगी। बहरहाल, जो भी सत्ता में आए, उसे यह सोच कर आना है कि बस, अब और नहीं। बरबाद करने की भी एक हद होती है और वह हद पार हो चुकी है। चुनाव के तीनों चरणों में बिहार हथियारों का जखीरा बना रहा। घर की बहु-बेटियों के गहने, खेत और मकान बेच कर हथियार खरीदे गये, क्योंकि सालों से इस राज्य में चुनाव का मतलब है दहशत और आतंक, जो कायम ही इसलिये किया जाता है ताकि दुनिया को पता चले कि बिहार में लाठी ही होती है, भैंस तो कब की मैदान से हट चुकी है।
बिहार आज अकाल वाली जमीन की तरह पपड़ाया हुआ है, जिसकी हर परत के नीचे से चाहे स्वास्थ्य सेवा हो, चाहे जैसा भी उद्योग हो, सड़क हो, पुल हो, स्कूल या कॉलेज हो, रेलवे लाइन हो, बांध हो, कचहरी हो, अदालत हो, बुनकर हों, भागलपुर का रेशम हो, हाजीपुर के केले हों, मुजफ्फरपुर की लीची हो, बुद्ध कालीन लिच्छवी हो, अशोक कालीन मगध हो, भिखारी ठाकुर का भोजपुर हो, राजा जनक का विदेह या उनकी बिटिया की जन्म स्थलियां हों, विद्यापति हों और बाबा नागार्जुन या मखाने का मिथिलांचल, रेणु का फारबिसगंज हो, गांधी का चम्पारण हो या राजेन्द्र बाबू का छपरा या अंगराज कर्ण का मुंगेर हो-हर तरफ से एक ऐसी शोक धुन सुनायी पड़ रही है, जो शरीर को कंपकंपा जाती है, बिल्कुल टाइटन फिल्म की वो धुन जो जहाज में पानी भरने पर शुरू हुई। जिस राज्य के माμा 93 विधानसभा क्षेμाों में मतदान कराने के लिये पांच सौ कम्पनी सुरक्षा बल की जरूरत पड़ती हो, उसके बावजूद मुख्यमंμाी के चुनाव क्षेμा में यादवों का कहर बरपा रहे, पारू और बरुराज में होमगार्ड खैनी मलते रहें और किसी का वोट कोई और डालता रहे तो यही लगता है कि मरीज को इंटेसिव केयर यूनिट में डाल उसके नाक और मुंह में नली ठूंसने की जरूरत आन पड़ी है और मरीज के शरीर का कौन से हिस्से में जीने की लालसा है उसे तलाशने की जरूरत है। हो सकता है इस बार फिर 15 साल से बिहार के सर्वेसर्वा बने रहे लालू प्रसाद ही एक बार फिर भाग्यविधाता बनें, हो सकता है 15 साल पहले धकिया कर हटायी गयी कांग्रेस के नसीब में फिर सत्तारोहण लिखा हो, हो सकता है इस बार केवल छूने भर को नहीं बल्कि पकड़ कर बैठने की लालसा पाले नीतीश कुमार सत्ता पर काबिज हों, जिनके गठबंधन की नौ महीने पहले केन्द्रीय सरकार में विदेशमंμाी से लेकर वित्तमंμाी, रक्षामंμाी, स्वास्थ्य मंμाी, सूचना प्रसारण मंμाी यानी कुल मिलाकर 13 मंμाी इसी धरा के थे, पर जो अपने पिता बिम्बसार को जेल में सड़ा मारने वाले अजातशμाु साबित हुए या फिर मसीहाई को बेताब रामविलास पासवान शासन की बागडोर संभालें-कम से कम अब बिहार को उसका कोई माई-बाप तो मिले, जिसका किसी स्कूल में नाम लिखवाते समय वल्दियत का पता चल सके।
उस स्कूल के बाहर दाखिले के इंतजार में पचास लाख बच्चे न खड़े हों, उस स्कूल में कोई प्रधानाचार्य भी हो, उस स्कूल में कोई पढ़ाने वाला भी हो, उस स्कूल के करीब लगे पेड़ों पर पक्षी चहचहाएं, न कि परीक्षा के समय मां-बाप चढ़ कर अपने बच्चे को नकल कराएं, उस स्कूल के पास खाने का सामान बिकता हो, तमंचा-बंदूक नहीं, किसी राष्ट्रीय पर्व पर उस स्कूल में तिरंगा उल्टा न लहराया जाता हो, उस स्कूल के हर बच्चे के घर में चूल्हा जलता हो, पर जिसमें पेट भरने के लिये केवल चूहा या घोंघा न पकता हो, घरों में लालटेन हो तो मिट्टी का तेल भी हो, बल्ब हो तो बिजली भी हो, जिसके घर में कालाजार का रोगी हो तो किसी ताक पर फंगीजोन भी धरी हो, केला सड़क पर न सड़े, लीची नाली में न फिंके, अस्पताल में रोगी हो न हो, लेकिन दवाइयों से लैस डाक्टर तो हो, सड़क ऐसी तो हो, जिस पर कोई भी वाहन बैलगाड़ी से होड़ ले सके, बांध नदियां को उनकी हद में रखने के लिये हो न कि लोगों को बसाने के लिये-अगर पांच साल भी किसी भी सरकार ने इतना इंतजाम भी कर दिया तो बिहार को सांस आने लगेगी। भले ही उसकी आंखों के सामने मुंह पर कपड़ा बांध कर हुजूम का हुजूम विधायकी करने आ गया हो।

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