रविवार, 26 दिसंबर 2010

एक ही रजत पे झूम उठे 103 करोड़ सिर!

राजीव मित्तल
आत्मसंतोष का इतना भयावह नजारा कहीं और देखने को मिलेगा! यह कुछ ऐसा ही है जैसे किन्नरों की बस्ती में कोई मुर्गी पहुंच गयी हो और वहां ढोल बजने लगें। मेजर राठौड़ के रजत पदक को दोनों हाथों से सलाम कि देश को हॅाकी के अलावा पहली बार चांदी का कोई पदक मिला, पर क्या यह राष्ट्रीय शर्म नहीं है और अगर नहीं है तो अब तक हम लजाना क्यों नहीं सीख पाए? एथेंस ओलम्पिक में पदक पाए 37 देशों में नीचे से सिर्फ तीन देशों के ऊपर, और इस खेल मेले के खत्म होते-होते शायद और नीच खिसक आएं। हमारे ऊपर जिम्बाबवे भी है और थाईलैंड भी, तो उ. कोरिया भी। थोड़ा इंतजार कीजिए, इस खेल महाकुम्भ के खत्म होते ही राठौड़ के रजत पदक को सब अपना कारनामा बताएंगे। बाकी तो मैदान सफाचट है ही, उसके लिये बैठेंगी कमेटियां, एक-दूसरे पर उठेंगी उंगलियां, खिलाड़ी कोसेगा प्रशिक्षक को, प्रशिक्षक कोसेगा खिलाड़ी को, दोनों कोसेंगे खेल समिति को और खेल समिति कोसेगी उस दिन को, जिस दिन हजारों साल पहले यह बकवासबाजी शुरू हुई। पर सबके चेहरे पर यह संतोष भाव भी होगा, कि चलो एथेंस भी घूम आए, जेब से एक पैसा भी खर्चे बगैर। सरकार को रोज ही चूना लग रहा है, राजनेता भी लगा रहे हैं, अफसरान भी लगा रहे हैं तो हम ही क्यों पीछे रहें। जन-गण मन की धुन एक बार तो बजवा दी, यही क्या कम है। जय हो कलमाड़ी जी की, जो बिना कुछ किये धरे सालों से मुर्गा तोड़ रहे हैं, जय हो गिल साहब की, जिन्होंने जर्मनी के एक उठाईगीर को हॅाकी टीम का प्रशिक्षक उस समय बनवाया, जब मैदान में खिलाड़ी मार्चपास्ट के लिये उतरने को ही थे। सारा देश पृथ्वीराज चौहान जैसा बिहेव बड़ी अदा से एक हजार साल से करता आ रहा है कि गौरी को सोलह बार पीट दिया, सतरहवीं बार आने से रहा चलो संयोगिता को अंक में भर के आराम फरमाया जाए। यह ओलम्पिक खत्म हुआ, पसीना पोंछो (जो कहीं नहीं बहा) अगले ओलम्पिक में अभी चार साल हैं, कलमाड़ी अपनी वार्डरोब को भरने के लिये धंधा पानी चलाएंगे, गिल मूछें उमेठते रहेंगे और बाकी भी इन दोनों में से कुछ तो करेंगे, एक हफ्ते हाथ-पांव चलाएंगे और पेइचिंग से भी खाली हाथ लौट आएंगे। एक कांस्य भी मिल गया तो 107 करोड़ के मुंह से निकलेगा बल्ले-बल्ले।

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