बुधवार, 8 दिसंबर 2010

क्या-क्या हुआ हंगामा-ए-जुनूं ये नहीं मालूम

राजीव मित्तल
मटके फोड़े, सुराहियां तोड़ीं, कुएं में छलांग लगा दी, बाल मुंडवा लिये, भौंहें तक साफ करा लीं-ये सब एक विदेशन के प्रधानमंμाी बनने की ओर बढ़ते कदमों की वजह से या हार न पचा पाने का वायुदोष! ये हरकतें तो बलबन और उसके साथियों ने भी नहीं की थीं जब रजिया सुल्तान गद्दी पर बैठ रही थी। हालांकि उस औरत की हुकूमत बहुत दिन नहीं झेल पाये मर्द लोग। लेकिन इन बेवकूफों ने यह कैसे सोच लिया कि उनके सिर मंुडाने से सोनिया ने प्रधानमंμाी बनने से मना कर दिया। इस देश में 40 साल गुजार कर और इस देश की राजनीति का एक-एक पन्ना बूझ कर ही उन्होंने यह फैसला राजीव गांधी के मरने के बाद ही ले लिया था। अगर कांग्रेस अपने दम पर बहुमत में आती तो भी वह यही करतीं। इस फैसले का कारण है भारतीय चरिμा में रोम-रोम तक धंसा वो ब्राहमणत्व, जिसने बौद्ध धर्म में पलीता लगाया, जिसे मौर्यों का शासन इसलिये बर्दाश्त नहीं था क्योंकि वे नीची जीति के थे, जिसने शैव्यों और वैष्णवों में श्रेष्ठता को लेकर सदियों खून-खराबा मचवाया, जिसके चलते देश और समाज इस कदर कमजोर हो गये कि महमूद गजनवी से लेकर मोहम्मद गौरी तक सबने इस देश को रौंदा और बाद में तुर्क तो शासक ही बन बैठे। यही चारिμिाक विशेषता आज भी जेबों में ठुसी है। अब तुम ही बताओ चैनली, अगर सोेनिया के पास ब्रिटेन या अमेरिका में बसे मित्तलों, बंसलों, पटेलों और सिखों जितनी सम्पदा होती तो अब तक बीसियों घोटाले इस इतालवी औरत के मत्थे न मढ़ दिये गये होते? लक्ष्मी चंद मित्तल अगर ब्रिटेन में सबसे महंगा घर रखने और सबसे अमीर आदमी होने का दम भरता है तो इसलिये क्योंकि वह ब्रिटेन है। इस बात का अंग्रेजों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। इटली के एक कस्बानुमा शहर से निकल किसी तरह लंदन में पढ़ी सोनिया भारत में स्वराज पाल बनने की सोच भी सकती है? उसके मुंह पर अब तक कालिख नहीं पोती गयी यह उसका सौभाग्य है। जरा कैफ और सौरभ के दिल से पूछो कि विश्वकप में उनके घरों का क्या हाल किया गया था। तुम्हें नहीं लगता कि ब्लेयर और बुश को भी सिर मंुडवा लेना चाहिये क्योंकि उनके यहां भारतीय मूल के कई लोग वहां की सत्ता की कुछ सीढ़ियों पर पद्मासन लगा कर बैठ गये हैं। हिन्दू धर्म अपने को बहुत सहज, सरल, सहनशील, दयालू और पता नहीं क्या-क्या मानता आ रहा है इसलिये कि हमें पास्ट में रहने में ही सुख मिलता है। हम यह भूल जाते हैं फूलों सा खिला-खिला हिन्दू धर्मदो-ढाई हजार साल पहले तक ही था । उसके बाद तो वर्तमान से हमें बेदिली रही और भविष्य कहीं कंदराओं में घुसा रहा। हमें हमारा इतिहास भी कुछ भलेमानुष अंग्रेजोें से पता चला, नहीं तो हम अशोक की लाट को आगे के भी सैंकड़ों साल तक भीम की गदा मानते रहते। हमारे पुरुषत्व की यह मजबूरी है कि हम सीता की जन्मस्थली को शौचालय बनायें रखें और राम की जन्मस्थली को लेकर बावेला खड़ा करते रहें। हम गुलाम हैं इसका बोध व्यापक तौर पर डेढ़ सौ साल पहले हुआ। हालांकि देश के किसी दूरदराज के गांव में जाकर कहोगी कि हमें आजाद हुए 55 साल हो गये हैं तो सवाल होगा कि अब किसका राज है। तो ऐसे आत्ममुग्ध देश में एक विदेशन का प्रधानमंμाी न बनने का फैसला बहुत अचरज की बात नहीं है।बॉब, मैं तुमसे आज सच कहूं कि मुझे अपने देश के मीडिया पर शर्म महसूस हो रही है। पिछले ढाई महीने में खबरों के नाम पर सिर्फ अफवाहें फैलाने का काम किया है इसने। एक चैनल की कारस्तानी बताऊं-माधव राव सिंधिया के साथ हादसे में मरे एक फμाकार के यहां कैमरों की टोली पहुंच गयी। वहां एक चैलू उसके दुखियारे पिता के मुंह में माइक घुसेड़ कर पूछ रहा था-आपको कैसा लग रहा है सर! जैसे वह दुखियारा बाप इंटरनेशनल फिल्म फेस्टीवल में कोई फिल्म देख कर निकला हो।

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