राजीव मित्तल
जड़ बुद्धि, लापरवाही, अकर्मण्यता और ऊपर से जेबें भरने और सत्ता और कुर्सी पर बने रहने की धुन-जब शासन और प्रशासन में ये रोग पूरी तरह घर कर गये हों तो बाढ़ विनाशक और संहारक दोनों रूपों में आएगी ही। पता चलता है कि बाढ़ का इतनी ही गति से 1987 में हमला हुआ था। स्थानों में भी कोई बदलाव नहीं। इन सतरह सालों में क्या पानी नहीं बरसा, क्या नदियां कमोबेश यही रूप नहीं अपनाती रहीं, क्या बाढ़ का खतरा हर साल नहीं मंडराता रहा, क्या नेपाल हर साल पानी नहीं छोड़ता रहा? जब एक खतरा शाश्वत बरकार है तो शासन-प्रशासन की चाल बेढंगी क्यों बनी हुई है? यह सवाल बाढ़ से घिरे एक करोड़ लोग क्यों नहीं पूछेंगे?
जिन सौ-दो सौ परिवारों के घरों की चौखट सूनी हुई है उनके मुंह से हाय क्यों नहीं निकलेगी? जो पुल-पुलिया अंगरेज बना गए, आज उन्हीं जर्जरों पर हो रही है सत्तावन साल से आजाद देश में जिंदगी और मौत की रेस। रामराज्य लाने के चुनावी दावे भूल कम से कम इतना तो कर दीजिये कि लोग ढंग से सांस ले सकें, चल-फिर सकें और कुछ ऐसा कर दीजिये कि अकाल मौतों का ग्राफ थोड़ा नीचे आ जाए। फिर आराम से वोट लीजिये और सत्ता का सुख भोगिये-किसने मना किया है। अब बाढ़ उतर रही है तो मौत और रूप धर कर सामने आ रही है। सरकार ने मान लिया कि लोगों के पास खाने को नहीं। बहुत बड़ी इनायत कर दी जनता पर यह सच स्वीकार कर। पर क्यों नहीं है इसका कोई जवाब?
इनका जवाब भी किसके पास है कि नदियां गाद से क्यों भरी हुई हैं कि जरा सा भी पानी बरसा तो किनारे तोड़ने लगती हैं, तटबंध क्यों रेत के भीत बने हुए हैं, पुल-पुलिया क्यों इतने शर्मनाक हाल में हैं, नेशनल हाईवे जैसा भारी भरकम सम्मान पाई सड़कें क्यों गूदड़ हुई पड़ी हैं। यह बाढ़ कोई चीन का आक्रमण नहीं है, जिसने दोस्ती की आड़ में छुरा भोंक दिया, यह बाढ़ उस भारतीय मानसिकता का परिचायक है, जो ढाई हजार साल से विदेशी आक्रमणकारियों को न्योतती आ रही है। इस मानसिकता पर तो नादिरशाह, अब्दाली और अंग्रेज भी चकित हुए बिना न रह सके। मोहम्मद शाह रंगीले बन कर राजकाज नहीं चलाया जा सकता। हां, इतिहास के पन्नों पर काले मुंह के साथ जरूर पेश हुआ जा सकता है। कुछ करने आए हैं और कुछ करके जाएंगे-ये वचन अगर कर्म में लाने हैं तो खगड़िया के पिपराती गांव के अश्विनी मधुकर की सुन लीजिये, बेचारा दो दिन से मारा-मारा घूम रहा है।
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