सोमवार, 6 दिसंबर 2010

वाटरलू में बिहारी राजनीति के नेपोलियन

बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान इतनी शांति से निपट गया कि सब सनाका खाये बैठे हैं कि बुद्ध और महावीर की धरती पर यह क्या हो गया। खैर, अब जबसे हंग की आशंका बढ़ी है तबसे दावे भी उसी तेजी से बढ़े हैं और कहीं-कहीं तो वाटरलू का इस्तेमाल भी हुआ है। आप पूछेंगे कि यह वाटरलू क्या बला है तो वाटरलू हमारी राजनीति का एक भावनाप्रधान शब्द है, जो किसी पराजय का प्रतीक है। किसी जमाने में हमारे ऋषि-मुनि वक्त-बेवक्त किसी के भी दरवाजे पर पहुंच कर डोरबेल बजाना शुरू कर दिया करते थे और थोड़ा देर से खुलने पर अगले को देखते ही उनके मुंह से यही निकलता-तू नरक का वासी हो। इस तरह की शब्दावली के लिये दुर्वासा मुनि तो विश्वविख्यात थे। वह भले चंगे इंसान को-चाहे वह औरत हो या मर्द-नरक में भेजने के बजाय क्षण भर में पत्थर का डला बना दिया करते थे। तो इस वासंती मौसम में वाटरलू वाला श्राप भी फिजां में गुंजाएमान है, जो किसी अमराई से लेकर शहर की गलियों तक में कूका जा रहा है। वैसे वाटरलू उस जगह का नाम है जहां नेपोलियन ने अपनी आखिरी लड़ाई हारी थी। वह ब्रितानी फौजों के हाथों कैद हुआ और कैद में ही चल बसा। वह तो चला गया लेकिन हमारे नेताओं को वाटरलू का रास्ता दिखा गया, जहां वे अक्सर एक-दूसरे को पहुंचाया करते हैं। कल्पना कीजिये कि तीसरे और अंतिम चरण के मतदान के बाद वे तीनों वाटरलू पहुंच जाते हैं। एक के हाथ में तीर है, पर धनुष नहीं, एक के हाथ में लालटेन है तो किरासन नहीं और एक के हाथ में प्लास्टर ऑफ पेरिस का बना फिल्मी झोंपड़ी सा मकान है, पर छप्पर नहीं। तीनों के पास एक-दूसरे को कोसने के लिये मन में गुबार भरा है पर बोल कुछ नहीं रहे क्योंकि तीनों ने ही एक-दूसरे के लिये यही कहा था कि अबकी बार का चुनाव उसके लिये वाटरलू साबित होगा। जरा समतल सी जमीन देख उस पर वो झोंपड़ी रख दी गयी, उसी में कहीं लालटेन टांग दी गयी और बगैर धनुष का तीर दांत खोदने के काम आने लगा। झोंपड़ी वाले सज्जन ने बगल वाले से कहा-बगैर किरासन के ही चल दिये! क्या सोच के चले थे कि यहां मिट्टी के तेल का भंडार मिलेगा! देखिये, हमारे मुंह न लगें, हम तो इसे पानी भर कर जला लेंगे, आप क्या सोच कर यह नमूना उठा लाए कि सिर पर छप्पर तक नहीं है। इन्हें देखिये, खाली तीर लेकर निकल पड़े जैसे सुदर्शन चक्र हो। तीसरे के मुंह से कोई करारा जवाब निकलता कि शोरगुल सुन नेपोलियन साहब वहां तलवार घुमाते आ गये और आते ही बरस पड़े तीनों पर-भारतीय राजनीति की ही उपज हो न तुम लोग! अक्सर कोई न कोई आता रहता है वहां से। वाटरलू से तुम लोगों को इतना लगाव क्यों है? अरे कहीं और जाओ न! तुम्हारे देश में भी तो पानीपत जैसी कई जगह हैं, जहां विदेशी आक्रमणकारी तुम लोगों की मिट्टी पलीद किया करते थे। तुम लोगों को अपने देश से इतनी दूर बेल्जियम की यही जगह क्यों याद आती है? अब तीनों यहां से निकल लो नहीं तो खैर नहीं। अचानक बाहर से नारे लगा रही भीड़ में कोई चिल्लाया- हमारा नेता कैसा हो! कानों में यह शोर पड़ते ही तीनों हड़बड़ा कर उठे तो पाया कि अपने ही घर में विराजमान हैं और अभी 23 फरवरी का मतदान बाकी है।

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