सोमवार, 6 दिसंबर 2010

पटना को पटना ही क्यों नहीं बनाते प्यारे

राजीव मित्तल
पिछले तीन-चार चुनावों से नेताओं ने खास कर अपने-अपने क्षेμाों के राष्ट्रीय प्रत्याशियों ने एक चलन शुरू किया है कि बिहार के इस शहर को मुम्बई बना देंगे-दिल्ली बना देंगे, उसको लंदन बना देंगे, फलाने को पेरिस बना देंगे। शायद इस टोटकेबाजी से कुछ जीत भी गए, लेकिन कुछ नहीं बना, बल्कि जो बना हुआ था वह भी चौपट हो गया। हमारे एक आला नेता जार्ज फर्नांडीज ने इस बार से पहले के किसी संसदीय चुनाव के दौरान मुजफ्फरपुर की किसी सभा में ताल ठोकते हुए कहा था कि बस, अब मैं आ गया हूं, इस शहर का अंतरराष्ट्रीय जगत में बाजा बजेगा, यह कह कर वो मुजफ्फरपुर की सीट भी पा गये। पता चला कि पांच साल बाद शहर और बदसूरत हो गया है। सड़ांध कुछ इतनी तीखी उठने लगी कि जार्ज नाक पर रूमाल रख यहां से दूसरी सीट पर शिफ्ट कर गये। वहां पर भी उन्होंने यही कहा कि इसके आगे तो मुम्बई और दिल्ली भी पानी भरेंगे। उस क्षेμा का भी तिया-पांचा हो गया। इस बार फिर जार्ज मुजफ्फरपुर के सांसद हैं। पर इस बार उन्होंने मुजफ्फरपुर की मुजफ्फरपुरता कायम रखने का भी वायदा नहीं किया इसलिये वह किसी भी इल्जाम से बरी हैं।पिछले दिनों भाई राम जतन सिन्हा ने भी मुम्बई-दिल्ली का राग छेड़ दिया। इस बार क्योंकि वह पटना मध्य से उम्मीदवार हैं इसलिये जाहिर है उनके दिमाग में पटना ही रहा होगा और उसे मुम्बई-दिल्ली जैसा बनाने का विचार भी उनके दिमाग में हिलोरे खा रहा होगा। उस विचार को उन्होंने पहले तो अपने मुखारबिंद से बाहर निकाला और अब यह विचार बाकायदा परचे पर छाप कर मतदाताओं के घर-घर पहुंचाया जा रहा है। सवाल यह है कि पटना को जिन दो शहरों जैसा बनाने का यह आलौकिक विचार उनके दिमाग में दौड़ रहा है, खुद वह शहर कैसे हो गये हैं, इस पर भी तो उन्हें ध्यान देना चाहिये। उन दोनों शहरों की नारकीय समस्याओं के विस्तार में न जाकर सिन्हा जी से बस इतना कहने को मन कर रहा है कि वह पटना को पटना के दायरे में रख कर पटना ही क्यों नहीं रहने देते। कई साल पहले उनके ही एक बिरादर ने पटना की सड़कों को हेमामलिनी के गाल सरीखे बनाने का ऐलान किया था। बाद में वो तो अपने बयान से ही मुकर गये और पटना की सड़कों ने उनकी लाज रखते हुए हेमा के गालों को भूल मरहूम ललिता पवार सरीखे रूप से समझैता कर लिया।बहुत पहले जब टीवी नहीं हुआ करता था तो गर्मी की दुपहरिया काटने के लिये घरों के अंदर एक खेला जाता था उसका नाम था व्यापार। उसमें लुडो जैसे बोर्ड के चौखानों पर कई शहरों के नाम लिखे होते थे। बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास, बेंगलौर, श्रीनगर, भोपाल, लखनऊ, अहमदाबाद, जमशेदपुर, रांची के साथ-साथ पटना भी। खेल के नियमों के अनुसार पटना की कीमत तीन हजार रुपये हुआ करती थी, जो किसी भी पांच महानगरों से एक-डेढ़ हजार रुपये कम थी। और उसके साथ जिन शहरों का जो जोड़ बैठता था, वह बड़ा लाभकारी होता था। इसलिये सब खिलाड़ियों की निगाह पटना को हासिल करने में लगी रहती थी। आज यही शहर अपने रेलवे स्टेशन से गुजरती किसी भी ट्रेन के याμाी को कंपकंपाता है, उसका जी धड़काता है, जो ईश्वर से मनाता है कि रेलगाड़ी पटना स्टेशन से ही नहीं बिहार से भी जितनी जल्दी हो बाहर हो जाए। सिन्हा जी, आप बस इतना करो कि रेलयाμिायों के मन से यह डर निकाल दो, समझ लो आपका इस शहर के मध्य से चुनाव लड़ना सार्थक हुआ। तभी काक भुशुण्डि ने गरुड को चौथी बार आवाज लगायी- अरे कितनी बार शौच जाएगा, पटना नहीं चलना है क्या!

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